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ब्रह्मप्रणव संधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव।। 30।।
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सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां संधाय वैष्णवीम्।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा।। 31।।
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अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावृणुते ध्वनिः।
पक्षाद्विपक्षमखिलं जित्वा तुर्यपदं व्रजेत्।। 32।।
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श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान्।
वर्धमाने तथाऽभ्यासे श्रूयते सूक्ष्मसूक्ष्मतः।। 33।।
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आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर संभवः।
मध्ये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा।। 34।।
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अन्ते तु किंकिणी वंश वीणा भ्रमर निःस्वनः।
इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः।। 35।।
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महति श्रूयमाणे तु महाभेर्यादिकध्वनौ।
तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत्।। 36।।
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घनमुत्सृज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सृज्य वा घने।
रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चालयेत्।। 37।।
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यत्र कुत्रपि वा नादे लगति प्रथमं मनः।
तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्धं विलीयते।। 38।।
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विस्मृत्य सकलं बाह्यं नादे दुग्धाम्बुवन्मनः।
एकीभूयाथ सहसा चिदाकाशे विलीयते।। 39।।
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उदासीनस्ततो भूत्वा सदाऽभ्यासेन संयमी।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत्।। 40।।
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सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टा विवर्जितः।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते।। 41।।
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मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नापेक्षते यथा।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति।
बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः।। 42।।
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नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति।। 43।।
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मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।। 44।।
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नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा।। 45।।
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ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः।
मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्।। 46।।
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तावदाकाशसंकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते।
निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीयते।। 47।।
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नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी।
सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।। 48।।
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सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना तु या।
निरंजने विलीयते मनोवायू न संशयः।। 49।।
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नादकोटिसहस्त्राणि विन्दुकोटिशतानि च।
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्म प्रणवनादके।। 50।।
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सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सर्वचिन्ताविवर्जितः।
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः।। 51।।
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शंखदुन्दुभिनादं च न शृणोति कदाचन।
काष्ठवज्ज्ञायते देह उन्मन्यावस्थया ध्रुवम्।। 52।।
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न जानाति स शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा।
न मानं नावमानं च संत्यक्त्वा तु समाधिना।। 53।।
अवस्थात्रयमन्वेति न चित्तं योगिनः सदा।
जाग्रन्निद्रा विनिर्मुक्तः स्वरूपावस्थितामियात्।। 54।।
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दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यं वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनाऽवलम्बं स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः।। 55।।
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ब्रह्मप्रणव संधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव।। 30।।
अर्थ-प्रणव-ब्रह्म के योग (नादानुसन्धान-योग) से वह नाद प्रकट होता है, जो ज्योतिर्मय और कल्याणकारी है; और वह बादल के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जैसे सूर्य चमकता है, वैसे ही आत्मा स्वयं प्रकाशित होता है।।30।।
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सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां संधाय वैष्णवीम्।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा।। 31।।
अर्थ-सिद्धासन में स्थित होकर वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए योगी दाहिने कान से अन्तरी नाद सर्वदा सुने।।31।।
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अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावृणुते ध्वनिः।
पक्षाद्विपक्षमखिलं जित्वा तुर्यपदं व्रजेत्।। 32।।
अर्थ-नाद का अभ्यास इस प्रकार करने से बाहरी शब्द के लिए वह बहरा बना देता है। सभी बाधाओं को जय कर लेने पर पन्द्रह दिन के भीतर तुरीय अवस्था में प्रवेश करता है।।32।।
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श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान्।
वर्धमाने तथाऽभ्यासे श्रूयते सूक्ष्मसूक्ष्मतः।। 33।।
अर्थ-अभ्यास के आरम्भ में भारी-भारी ध्वनियों को सुनता है। अभ्यास के बढ़ने पर ये ध्वनियाँ क्रमशः अधिकाधिक बारीक सुनाई पड़ती हैं।।33।।
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आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर संभवः।
मध्ये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा।। 34।।
अर्थ-आरम्भ में नाद समुद्र, बादल, दुन्दुभि, जलप्रपात से निकले हुए जैसे मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घंटा और सिंघा जैसे।।34।।
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अन्ते तु किंकिणी वंश वीणा भ्रमर निःस्वनः।
इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः।। 35।।
अर्थ-अन्तिम अवस्था में किंकिणी (मजीरा), मुरली, वीणा और मधुमक्खियों की भनभनाहट-जैसे। इस प्रकार वह अनेक बारीक-से-बारीक नादों को सुनता है।।35।।
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महति श्रूयमाणे तु महाभेर्यादिकध्वनौ।
तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत्।। 36।।
अर्थ-जब वह उस पद पर जाता है, जहाँ बड़ी दुन्दुभि का नाद सुनता है, उस समय उसे केवल बारीक (सूक्ष्म-से-सूक्ष्म) नादों को परखने का प्रयत्न करना चाहिए।।36।।
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घनमुत्सृज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सृज्य वा घने।
रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चालयेत्।। 37।।
अर्थ-भारी नाद से बारीक या बारीक से भारी नाद की ओर अपने ध्यान को बदल सकता है, परन्तु वह अपने ध्यान को दूसरी ओर न ले जाय।।37।।
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यत्र कुत्रपि वा नादे लगति प्रथमं मनः।
तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्धं विलीयते।। 38।।
अर्थ-किसी नाद पर अपने मन को स्थिर कर लेने से वह उस पर स्थित हो जाता है और उसी में तल्लीन हो जाता है।।38।।
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विस्मृत्य सकलं बाह्यं नादे दुग्धाम्बुवन्मनः।
एकीभूयाथ सहसा चिदाकाशे विलीयते।। 39।।
अर्थ-बाहरी भावों से विस्मृत होकर दूध एवं जल की नाईं वह उसमें मिल जाता है और शीघ्र ही चिदाकाश में लय हो जाता है।।39।।
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उदासीनस्ततो भूत्वा सदाऽभ्यासेन संयमी।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत्।। 40।।
अर्थ-सभी विषयों से उदासीन होकर योगी अपने मनोविकारों को नियंत्रित करके नाद पर अपने ध्यान को निरन्तर अभ्यास-द्वारा स्थिर करे, जिससे उन्मनी प्राप्त होती है।।40।।
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सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टा विवर्जितः।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते।। 41।।
अर्थ-सब चिन्ताओं और सब चेष्टाओं को त्यागकर योगी नाद का ही ध्यान करता हुआ नाद में चित्त को लय करे।।41।।
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मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नापेक्षते यथा।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति।
बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः।। 42।।
अर्थ-जिस प्रकार भौंरा फूल के केसर वा रस का पान करता हुआ उसकी सुगन्ध की चिन्ता नहीं करता है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय-चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।।42।।
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नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति।। 43।।
अर्थ-नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है।।43।।
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मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।। 44।।
अर्थ-नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।।44।।
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नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा।। 45।।
अर्थ-मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।।45।।
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ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः।
मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्।। 46।।
अर्थ-प्रणव से उत्थित नाद, जो ब्रह्म है, चेतन-स्वरूप (अर्थात् ज्योतिर्मय) है, मन उसमें लीन हो जाता है और वही विष्णु का परम पद है।।46।।
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तावदाकाशसंकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते।
निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीयते।। 47।।
अर्थ-जबतक आकाश-संकल्प है, तबतक नाद की स्थिति रहती है, उसके परे अशब्द परब्रह्म परमात्मा है।।47।।
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नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी।
सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।। 48।।
अर्थ-जबतक नाद की स्थिति रहती है, तबतक मन रहता है। नाद के विलीन होने पर मन उन्मनी को प्राप्त होता है (अर्थात् मन संकल्प-विकल्प त्यागकर लय हो जाता है)। नाद अक्षर (अनाश ब्रह्म) में विलीन हो जाता है और अशब्द परमपद है।।48।।
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सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना तु या।
निरंजने विलीयते मनोवायू न संशयः।। 49।।
अर्थ-नाद के सतत अभ्यास से वासना क्षीण हो जाती है और मन तथा प्राणवायु निरंजन (निर्माया) में लय हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है।।49।।
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नादकोटिसहस्त्राणि विन्दुकोटिशतानि च।
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्म प्रणवनादके।। 50।।
अर्थ-असंख्य नाद तथा करोड़ों विन्दु ब्रह्म के प्रणव-नाद में विलीन हो जाते हैं।।50।।
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सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सर्वचिन्ताविवर्जितः।
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः।। 51।।
अर्थ-सभी अवस्थाओं और सभी चिन्ताओं से छूटकर मृतक के समान योगी रहता है। वह मुक्त है; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।।51।।
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शंखदुन्दुभिनादं च न शृणोति कदाचन।
काष्ठवज्ज्ञायते देह उन्मन्यावस्थया ध्रुवम्।। 52।।
अर्थ-इसके पश्चात् किसी समय भी शंख या दुन्दुभि के नाद को वह (अभ्यासी) नहीं सुनता है। निश्चय ही उन्मनी अवस्था को प्राप्त कर उसकी देह काष्ठवत् हो जाती है।।52।।
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न जानाति स शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा।
न मानं नावमानं च संत्यक्त्वा तु समाधिना।। 53।।
अवस्थात्रयमन्वेति न चित्तं योगिनः सदा।
जाग्रन्निद्रा विनिर्मुक्तः स्वरूपावस्थितामियात्।। 54।।
अर्थ-ठण्ढ, गर्मी और सुख-दुःख को वह कुछ नहीं जानता है। योगी का चित्त सदा मान और अपमान को त्यागकर समाधि से तीनों अवस्थाओं को पार करता है। जाग्रत् और निद्रावस्था से छूटकर वह आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।।53-54।।
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दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यं वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनाऽवलम्बं स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः।। 55।।
अर्थ-जिसकी दृष्टि बिना किसी दृश्य आधार के स्थिर हो जाती है, जिसका प्राणवायु बिना किसी प्रयत्न के अचल हो जाता है, जिसका चित्त बिना किसी अवलम्ब के स्थिर हो जाता है, वह तार ब्रह्म (प्रणव ब्रह्म) के आन्तरिक नाद का स्वरूप ही हो जाता है।।55।।
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