मुक्तिकोपनिषद् (शुक्ल यजुर्वेद )

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अध्याय 1

मूल-

चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत्।। 25।।
इयं कैवल्यमुक्तिस्तु केनोपायेन सिध्यति।
माण्डूक्यमेकमेवालं मुमुक्षूणां विमुक्तये।। 26।।
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तथाप्यसिद्धं चेज्ज्ञानं दशोपनिषदं पठ।। 261/2 ।।
तथापि दृढता नो चेद्विज्ञानस्यांजनासुत।
द्वात्रिांशाख्योपनिषदं समभ्यस्य निवर्तय।। 281/2 ।।
विदेहमुक्ताविच्छा चेदष्टोत्तरशतं पठ।। 281/2 ।।
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स होवाच श्रीरामः। ऐतरेयकौषीतकीनादविन्द्वात्मप्रबोधनिर्वाणमुद्गलाक्षमालिकात्रिपुरा सौभाग्यबह्वृचनामृग्वेदगतानां दशसंख्याकानामुपनिषदां।।
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ईशावास्य बृहदारण्यक जाबाल हंस परमहंस सुबाल मन्त्रिका निरालम्ब त्रिशिखीब्राह्मण मण्डलब्राह्मणाद्वयतारक पैंगल भिक्षु तुरीयातीताध्यात्म तारसार याज्ञवल्क्य शाठ्यायनी मुक्तिकानां शुक्लयजुर्वेदगतानामेकोनविंशतिसंख्याकानामुपनिषदां।
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कठवल्ली तैत्तिरीयक ब्रह्म कैवल्य श्वेताश्वतर गर्भ नारायणामृतविन्द्वमृतनाद कालाग्निरुद्र क्षुरिका सर्वसार शुकरहस्य तेजोविन्दु ध्यानविन्दु ब्रह्मविद्या योगतत्त्वदक्षिणामूर्तिस्कन्दशारीरकयोगशिखैकाक्षर अक्ष्यवधूत कठरुद्र हृदय योगकुण्डलिनी पंचब्रह्म प्राणाग्निहोत्र वराह कलिसंतरण सरस्वतीरहस्यानां कृष्ण यजुर्वेदगतानां द्वात्रिंशत्संख्याकानामुपनिषदां।
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केनच्छान्दोग्यारुणिमैत्रयणि मैत्रेयी वज्रसूचिका योगचूडामणि वासुदेव महत्संन्यासाव्यक्तकुण्डिका सावित्री रुद्राक्ष जाबालदर्शनजाबालीनां सामवेदगतानां षोडशसंख्याकानामुपनिषदाम्।। 4।।
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प्रश्न मुण्डक माण्डूक्याथर्वशिरोऽथर्वशिखाबृहज्जाबाल नृसिंहतापनी नारदपरिव्राजक सीता शरभ महानारायण रामरहस्य रामतापनी शाण्डिल्य परमहंसपरिव्राजकान्नपूर्णा सूर्यात्मपाशुपत परब्रह्मत्रिपुरातपन देवीभावना भस्मजाबाल गणपति महावाक्य गोपालतपन कृष्ण हयग्रीव दत्तात्रेय गारुडानामथर्ववेदगतानामेकत्रिंशत्संख्याकानामुपनिषदाम्।। 5।।
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श्रीराम उवाच। ऋग्वेदादिविभागेन वेदाश्चत्वारः ईरिताः। तेषां शाखा ह्येनकाः स्युस्तासूपनिषदस्तथा।। 11।। ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशतिसंख्यकाः। नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज।। 12।। सहस्त्रसंख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप। अथर्वणस्य शाखाः स्युः पंचाशद्भेदतो हरे।। 13।। एकैकस्यास्तु शाखाया एकैकोपनिषन्मता।। 131/2 ।।
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सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्।। 431/2 ।।
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दयासमुद्रं सद्गुरुं विधिवदुपसंगम्योपहारपाणयोऽष्टोत्तरशतोपनिषदं विधिवदधीत्य श्रवणमनननिदिध्यासनानि नैरन्तर्येण कृत्वा प्रारब्ध क्षयाद्देहत्रयभंगं प्राप्योपाधिविनिर्मुक्तघटाकाशवत्परिपूर्णता विदेहमुक्तिः सैव कैवल्यमुक्तिरिति। अतः सर्वेषां कैवल्यमुक्तिर्ज्ञानमात्रेणोक्ता । न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरित्युपनिषत्।
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अध्याय 2

मूल-स होवाच श्रीरामः। पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुख- दुःखादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वाद्बन्धो भवति। तन्निरोधनं जीवन्मुक्तिः। उपाधिविनिर्मुक्तघटाकाशवत्प्रारब्धक्षयाद्विदेह मुक्तिः । जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योरष्टोत्तरशतोपनिषदः प्रमाणम्। कर्तृत्वादिदुःखनिवृत्तिद्वारा नित्यानन्दावाप्तिः प्रयोजनं भवति। तत्पुरुषप्रयत्नसाध्यं भवति। यथा पुत्रकामेष्टिना पुत्रं वाणिज्यादिना वित्तं ज्योतिष्टोमेन स्वर्गं तथापुरुषप्रयत्नसाध्यवेदान्तश्रवणादिजनितसमाधिना जीवन्मुक्त्यादि लाभो भवति-------।। 1।।
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द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकसि्ंमश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।। 27।।
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अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा।। 29।।
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एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।। 40।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।। 41।।
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उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम्।। 43।।
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अंकुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतंगजः।
अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च।। 44।।
वासना संपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम्।
एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल।। 45।।
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सतीषु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये।
चेतसो दीपमुत्सृज्य विचिन्वन्ति तमोऽञ्जनैः।। 46।।
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विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम्।
ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्तुभिः।। 47।।
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चित्तैकाग्र्याद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते।। 49।।
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ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृतिं विना।
संप्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः।। 53।।
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प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम्।
असंप्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः।। 54।।
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प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।। 55।।
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ऊर्ध्वपूर्णमधः पूर्णं मध्यपूर्णं शिवात्मकम्।
साक्षाद्विधिमुखो ह्येष समाधिः पारमार्थिकः।। 56।।
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बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम्।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।। 63।।
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दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम्।। 64।।
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अधीत्य चतुरो वेदान्सर्वशास्त्रण्यनेकशः।
ब्रह्मतत्त्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा।। 65।।
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बद्धो हि वासनाबद्धो मोक्षः स्याद्वासनाक्षयः।
वासनां संपरित्यज्य मोक्षार्थित्वमपि त्यज।। 68।।
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अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।। 72।।
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अध्याय 1

मूल-चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत्।। 25।।
इयं कैवल्यमुक्तिस्तु केनोपायेन सिध्यति।

माण्डूक्यमेकमेवालं मुमुक्षूणां विमुक्तये।। 26।।

अर्थ-(सालोक्य = उपास्य देव के लोक की प्राप्ति; सामीप्य = उपास्य देव की समीपता प्राप्त करनी; सारूप्य = उपास्य देव के शरीर-सदृश रूप प्राप्त करना; सायुज्य = उपास्य देव के साथ युक्त होना अर्थात् उपास्य देव के शरीर से भिन्न अपना दूसरा शरीर नहीं रखना।) इन चार प्रकार की मुक्तियों का वर्णन हुआ, ये मेरी उपासना से होती हैं।।25।।

कैवल्य मुक्ति जिस उपाय से सिद्ध होती है, उसका वर्णन होता है। मुमुक्षुगण को कैवल्य मुक्ति प्रदान करने में केवल माण्डूक्योपनिषद् ही समर्थ है।।26।।
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 मूल-तथाप्यसिद्धं चेज्ज्ञानं दशोपनिषदं पठ।। 261/2 ।।

तथापि दृढता नो चेद्विज्ञानस्यांजनासुत।
द्वात्रिांशाख्योपनिषदं समभ्यस्य निवर्तय।। 281/2 ।।

विदेहमुक्ताविच्छा चेदष्टोत्तरशतं पठ।। 281/2 ।।

अर्थ- माण्डूक्योपनिषद् पाठ करके यदि ज्ञान का विकास नहीं हो तो दश उपनिषद् पढ़ो ।।261/2 ।।

हे अंजनातनय ! दश उपनिषद् पाठ करके भी यदि ज्ञान-विकास न हो, तब बत्तीस उपनिषदों को पढ़कर संसार से निवृत्त हो सकोगे ।।28।।

यदि तुम विदेह-मुक्ति लाभ करना चाहो, तो 108 उपनिषदों को पढ़ो।।281/2 ।।
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 मूल- स होवाच श्रीरामः। ऐतरेयकौषीतकीनादविन्द्वात्मप्रबोधनिर्वाणमुद्गलाक्षमालिकात्रिपुरा सौभाग्यबह्वृचनामृग्वेदगतानां दशसंख्याकानामुपनिषदां।।

अर्थ-श्रीराम ने कहा- ऐतरेय (1), कौषीतकी (2), नादविन्दु (3), आत्मप्रबोध (4), निर्वाण (5), मुद्गल (60), अक्षमालिका (7), त्रिपुरा (8), सौभाग्य (9), बह्वृच (10); ये दश उपनिषद् ऋग्वेद के अन्तर्गत हैं।
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 मूल-ईशावास्य बृहदारण्यक जाबाल हंस परमहंस सुबाल मन्त्रिका निरालम्ब त्रिशिखीब्राह्मण मण्डलब्राह्मणाद्वयतारक पैंगल भिक्षु तुरीयातीताध्यात्म तारसार याज्ञवल्क्य शाठ्यायनी मुक्तिकानां शुक्लयजुर्वेदगतानामेकोनविंशतिसंख्याकानामु- पनिषदां।

अर्थ- ईशावास्य (1), बृहदाण्यक (2), जाबाल (3), हंस (4), परमहंस (5), सुबाल (6), मन्त्रिका (7), निरालम्ब (8), त्रिशिखी ब्राह्मण (9), मण्डल ब्राह्मण (10), अद्वयतारक (11), पैंगल (12), भिक्षु (13), तुरीयातीत (14), अध्यात्म (15), तारसार (16), याज्ञवल्क्य (17), शाठ्यायनी (18) और मुक्तिक (19); ये उन्नीस उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद के अन्तर्गत हैं।
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 मूल-कठवल्ली तैत्तिरीयक ब्रह्म कैवल्य श्वेताश्वतर गर्भ नारायणामृतविन्द्वमृतनाद कालाग्निरुद्र क्षुरिका सर्वसार शुकरहस्य तेजोविन्दु ध्यानविन्दु ब्रह्मविद्या योगतत्त्व दक्षिणामूत्तिर््ा स्कन्द शारीरक योगशिखैकाक्षराक्ष्यवधूत कठरुद्र हृदय योगकुण्डलिनी पंचब्रह्म प्राणाग्निहोत्र वराह कलिसंतरण सरस्वतीरहस्यानां कृष्ण यजुर्वेदगतानां द्वात्रिंशत्संख्याकानामु- पनिषदां।

 अर्थ-कठवल्ली (1), तैत्तिरीयक (2), ब्रह्म (3), कैवल्य (4), श्वेताश्वतर (5), गर्भ (6), नारायण (7), अमृतविन्दु (8), अमृतनाद (9), कालाग्निरुद्र (10), क्षुरिका (11), सर्वसार (12), शुकरहस्य (13), तेजोविन्दु (14), ध्यानविन्दु (15), ब्रह्मविद्या (16), योगतत्त्व (17), दक्षिणामूर्ति (18), स्कन्द (19), शारीरक (20), योगशिखा (21), एकाक्षर (22), अक्षी (23), अवधूत (24), कठरुद्र (25), हृदय (26), योगकुण्डलिनी (27), पंचब्रह्म (28), प्राणाग्निहोत्र (29) वराह (30), कलिसंतरण (31) और सरस्वतीरहस्य (32); ये बत्तीस उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद के अन्तर्गत हैं।
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मूल-केनच्छान्दोग्यारुणिमैत्रयणि मैत्रेयी वज्रसूचिका योगचूडामणि वासुदेव महत्संन्यासाव्यक्तकुण्डिका सावित्री रुद्राक्ष जाबालदर्शनजाबालीनां सामवेदगतानां षोडशसंख्याकानामुपनिषदाम्।। 4।।

 अर्थ-केन (1), छान्दोग्य (2), आरुणि (3), मैत्रयणि (4), मैत्रेयी (5), वज्रसूचिका (6), योगचूड़ामणि (7), वासुदेव (8), महत्संन्यास (9), अव्यक्त (10), कुण्डिका (11), सावित्री (12), रुद्राक्ष (13), जाबाल (14), दर्शन (15), तथा जाबाली (16); ये सोलह उपनिषद् सामवेद के अन्तर्गत हैं।।4।।
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 मूल-प्रश्न मुण्डक माण्डूक्याथर्वशिरोऽथर्वशिखाबृहज्जाबाल नृसिंहतापनी नारदपरिव्राजक सीता शरभ महानारायण रामरहस्य रामतापनी शाण्डिल्य परमहंसपरिव्राजकान्नपूर्णा सूर्यात्मपाशुपत परब्रह्मत्रिपुरातपन देवीभावना भस्मजाबाल गणपति महावाक्य गोपालतपन कृष्ण हयग्रीव दत्तात्रेय गारुडानामथर्ववेदगता- नामेकत्रिंशत्संख्याकानामुपनिषदाम्।। 5।।

अर्थ- प्रश्न (1), मुण्डक (2), माण्डूक्य (3), अथर्वशिर (4), अथर्वशिखा (5), बृहज्जाबाल (6), नृसिंहतापनी (7), नारदपरिव्राजक (8), सीता (9), शरभ (10), महानारायण (11), रामरहस्य (12), रामतापनी (13), शाण्डिल्य (14), परमहंसपरिव्राजक (15), अन्नपूर्णा (16), सूर्य (17), आत्म (18), पाशुपत (19), परब्रह्म (20), त्रिपुरातपन (21), देवी (22), भावना (23), भस्मजाबाल (24), गणपति (25), महावाक्य (26), गोपालतपन (27), कृष्ण (28), हयग्रीव (29), दत्तात्रेय (30) तथा गारुड़ (31); ये इकतीस उपनिषद् अथर्ववेद के अन्तर्गत हैं।।5।।
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 [ऋग्वेदीय 10 + सामवेदीय 16 + शुक्ल यजुर्वेदीय 19 + कृष्ण यजुर्वेदीय 32 + अथर्ववेदीय 31 = 108 उपनिषद् ]
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मूल- श्रीराम उवाच। ऋग्वेदादिविभागेन वेदाश्चत्वारः ईरिताः। तेषां शाखा ह्येनकाः स्युस्तासूपनिषदस्तथा।। 11।। ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशतिसंख्यकाः। नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज।। 12।। सहस्त्रसंख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप। अथर्वणस्य शाखाः स्युः पंचाशद्भेदतो हरे।। 13।। एकैकस्यास्तु शाखाया एकैकोपनिषन्मता।। 131/2 ।।

अर्थ-श्रीराम ने कहा-ऋग्वेदादि चार वेद हैं। इनकी शाखाएँ अनेक हैं। ऐसे ही उपनिषद् भी (अनेक) हैं। ऋग्वेद की 21 शाखाएँ हैं। हे पवनसुत (हनुमान) ! यजुर्वेद की 109 शाखाएँ हैं। हे शत्रु-संतापकारी ! सामवेद की 1,000 शाखाएँ हैं। हे कपि ! अथर्ववेद की 50 शाखाएँ हैं। प्रत्येक शाखा की एक-एक उपनिषद् है। (21 + 109 + 1,000 + 50 = 1180 चारो वेदों की शाखाएँ हैं और प्रत्येक शाखा की एक-एक उपनिषद् होने के कारण उपनिषद् भी 1180 ही हैं।) ।।131/2 ।।
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 मूल-सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्।। 431/2 ।।

अर्थ- सब उपनिषदों में 108 उपनिषद् ही सार हैं।।431/2 ।।
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 मूल-दयासमुद्रं सद्गुरुं विधिवदुपसंगम्योपहारपाणयोऽष्टोत्तर- शतोपनिषदं विधिवदधीत्य श्रवणमनननिदिध्यासनानि नैरन्तर्येण कृत्वा प्रारब्ध क्षयाद्देहत्रयभंगं प्राप्योपाधिविनिर्मुक्तघटाकाश- वत्परिपूर्णता विदेहमुक्तिः सैव कैवल्यमुक्तिरिति। अतः सर्वेषां कैवल्यमुक्तिर्ज्ञान-मात्रेणोक्ता । न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरित्यु- पनिषत्।

भावार्थ- दयासमुद्र सद्गुरु के समीप यथाविधि गमन करके 108 उपनिषदों (जिनके नाम लिखे जा चुके हैं) को पढ़कर निरन्तर श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन का अनुष्ठान करना चाहिए। इस प्रकार के अनुष्ठान से प्रारब्ध कर्म नष्ट होकर तीनों देह नष्ट हो जाती हैं। तब उपाधियों से मुक्त घटाकाश की तरह परिपूर्णतारूप विदेह-मुक्ति हो जाती है, इसी को कैवल्य मुक्ति कहते हैं। इसलिए जाना जाता है कि सबको ही कैवल्य मात्र के ज्ञान से ही कैवल्य मुक्ति साधित होती है, कर्मयोग, सांख्ययोग और उपासना से नहीं।

(श्रवण = सुनना; मनन = विचारना; निदिध्यासन = मनन किये हुए विषय का ध्यान करना।)
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अध्याय 2

मूल-स होवाच श्रीरामः। पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुख- दुःखादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वाद्बन्धो भवति। तन्निरोधनं जीवन्मुक्तिः। उपाधिविनिर्मुक्तघटाकाशवत्प्रारब्धक्षयाद्विदेह मुक्तिः । जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योरष्टोत्तरशतोपनिषदः प्रमाणम्। कर्तृत्वादि- दुःखनिवृत्तिद्वारा नित्यानन्दावाप्तिः प्रयोजनं भवति। तत्पुरुषप्रयत्नसाध्यं भवति। यथा पुत्रकामेष्टिना पुत्रं वाणिज्यादिना वित्तं ज्योतिष्टोमेन स्वर्गं तथापुरुषप्रयत्नसाध्यवेदान्तश्रवणादिजनितसमाधिना जीवन्मुक्त्यादि लाभो भवति-------।। 1।।

भावार्थ-श्रीराम कहने लगे-मैं कर्त्ता, भोक्ता, सुखी तथा दुःखी हूँ; इत्यादि वृत्ति ही चित्त का धर्म है। इस तरह की वृत्ति ही पुरुष को क्लेश देनेवाली और बन्धन का कारण है। इन वृत्तियों के निरोध को ही जीवन्मुक्ति कहते हैं। और जब उपाधिमुक्त घटाकाश की तरह प्रारब्ध कर्म क्षय होकर देह नष्ट हो जाती है, उसी अवस्था को विदेहमुक्ति कहते हैं। जीवन्मुक्ति तथा विदेहमुक्ति के संबंध में 108 उपनिषद् ही प्रमाण हैं। जब कर्तृत्वादि दुःख निवृत्त हो जाता है, तब पुरुष को नित्यानन्द प्राप्त होता है। इसी आनन्द की प्राप्ति के लिए मुक्ति का प्रयोजन है। यह मुक्ति मनुष्य के प्रयत्न से साधित होती है। जैसे पुत्रकामी व्यक्ति पुत्रेष्टि यज्ञ-द्वारा पुत्र, धनार्थी व्यक्ति वाणिज्यादि द्वारा धन तथा स्वर्गकामी मनुष्य ज्योतिष्टोम यज्ञ-द्वारा स्वर्गलाभ करते हैं; वैसे ही पुरुष के प्रयत्न से साधन-द्वारा वेदान्त-श्रवणादि-जनित समाधि से जीवन्मुक्त्यादि लाभ होते हैं।।1।।
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 मूल-द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकसि्ंमश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।। 27।।

भावार्थ- चित्त-रूप वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।।27।।
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 मूल-अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा।। 29।।

भावार्थ-मन जब वासना-विहीन होकर विषय को ग्रहण नहीं करता है, तब मन का अस्तित्व नष्ट हो जाता है और परम शान्ति का उदय होता है।।29।।
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 मूल-एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।। 40।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।। 41।।

भावार्थ-जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा।।40-41।।
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 मूल-उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम्।। 43।।

भावार्थ- पुनः पुनः एकान्त में बैठने पर भी बिना सत् युक्ति के कोई भी मनोजय करने में समर्थ नहीं होता है।।43।।
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 मूल-अंकुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतंगजः।
अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च।। 44।।

वासना संपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम्।
एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल।। 45।।

भावार्थ- जैसे बिना अंकुश के दुष्ट मस्त हाथी वश नहीं होता, वैसे ही अध्यात्म-विद्या की शिक्षा, साधु-संग, वासना-परित्याग तथा प्राणस्पन्दन-निरोध के बिना चित्त नहीं जीता जाता। ये सब चित्त के जय करने के प्रधान उपाय हैं।।44-45।।
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 मूल- सतीषु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये।
चेतसो दीपमुत्सृज्य विचिन्वन्ति तमोऽञ्जनैः।। 46।।

भावार्थ-इन सब सत् युक्तियों के मौजूद रहने पर भी जो लोग चित्त पर हठात् (दुराग्रह से) काबू करना चाहते हैं, वे लोग दीपक (प्रकाश) त्यागकर अन्धकार में ढूँढ़ते हैं।।46।।
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 मूल-विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम्।
ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्तुभिः।। 47।।

भावार्थ-जो मूढ़ व्यक्तिगण हठात् (दुराग्रह से) चित्त जीतने को उद्यत होते हैं, वे मदमस्त गजराज को कमल-नाल के तन्तु में बाँधते हैं। (अर्थात् जैसे कमल-नाल के तन्तु में मदमस्त गजराज बाँधा नहीं जा सकता, वैसे ही हठात् चित्त जीता नहीं जा सकता) ।।47।।
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 मूल-चित्तैकाग्र्याद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते।। 49।।

भावार्थ-ध्यान का कारण, जिससे ज्ञान तथा मुक्ति उपजती है, मन की एकविन्दुता (चित्त की एकाग्रता) है, अब तुमको जना दिया गया।।49।।
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 मूल-ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृतिं विना।
संप्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः।। 53।।

भावार्थ-जब अहंकार-वृत्ति निरुद्ध होकर केवल ब्रह्माकार में चित्त की वृत्ति होकर रहती है, इसको संप्रज्ञात समाधि कहते हैं, यह अतिशय ध्यानाभ्यास से होती है।।53।।
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 मूल-प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम्।
असंप्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः।। 54।।

भावार्थ-जब चित्त की सब वृत्तियाँ प्रशान्त हो जायँगी, उसी अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है। वह योगियों को प्रिय है।।54।।
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 मूल-प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।। 55।।

भावार्थ-ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है।।55।।
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 मूल-ऊर्ध्वपूर्णमधः पूर्णं मध्यपूर्णं शिवात्मकम्।
साक्षाद्विधिमुखो ह्येष समाधिः पारमार्थिकः।। 56।।

भावार्थ-(इस समाधि में) ऊपर, नीचे और मध्य; सर्वत्र कल्याणकारी ब्रह्म की परिपूर्णता की अनुभूति होती है, विधि-मुख (कथित) यह पारमार्थिक समाधि है।।56।।
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 मूल-बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम्।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।। 63।।

भावार्थ- बहुत-से शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल ? हे वायुसुत ! अत्यन्त यत्नवान होकर केवल अन्तर की ज्योति की खोज करो ।।63।।
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 मूल-दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम्।। 64।।

भावार्थ-हे कपिशार्दूल ! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है।।64।।
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 मूल-अधीत्य चतुरो वेदान्सर्वशास्त्रण्यनेकशः।
ब्रह्मतत्त्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा।। 65।।

भावार्थ-वह, जिसने चारो वेदों और सब शास्त्रें को पढ़ा हो, पर ब्रह्म-तत्त्व न जाना हो, पाक (पके हुए भोजन) के स्वाद को न जाननेवाले कलछुल के तुल्य है।।65।।
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 मूल-बद्धो हि वासनाबद्धो मोक्षः स्याद्वासनाक्षयः।
वासनां संपरित्यज्य मोक्षार्थित्वमपि त्यज।। 68।।

भावार्थ-वासना का बन्धन ही बन्धन है और वासना का नाश ही मोक्ष है। सब वासनाओं को त्यागकर मोक्ष की इच्छा भी त्याग दो।।68।।
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 मूल-अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।। 72।।

भावार्थ- हे पवनतनय ! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगन्ध, अनाम और गोत्रहीन, दुःखहरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य भजन करो।।72।। 
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