ईशावास्योपनिषद्  (शुक्ल यजुर्वेद )

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ॐ ईशा वास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधाः कस्यस्विद्धनम्।। 1।।
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।। 2।।
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तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।। 5।।
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अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ् रताः।। 9।
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ् रताः।। 12।।
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।। 15।।
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ॐ ईशा वास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधाः कस्यस्विद्धनम्।। 1।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है (अर्थात् उसे भगवत्स्वरूप अनुभव करना चाहिए)। उसके त्याग-भाव से तू अपना पालन कर; किसी के धन की इच्छा न कर।।1।।

शां0 भा0-ईशा ईष्ट इतीट् तेनेषा। ईशिता परमेश्वरः परमात्मा सर्वस्य। स हि सर्वमीष्टे सर्वजन्तूनामात्मा सन्प्रत्यगात्मतया तेन स्वेन रूपेणात्मनेशा वास्यमाच्छादनीयम्।
किम् ? इदं सर्वं यत्किञ्च यत्किञ्चिज्जगत्यां पृथिव्यां जगत्तत्सर्वं स्वेनात्मना ईशेन प्रत्यगात्मतयाहमेवेदं सर्वमिति परमार्थ सत्यरूपेणानृतमिदं सर्वं चराचरमाच्छादनीयं स्वेन परमात्मना।
यथा चन्दनागर्वादेरुदकादिसम्बन्धजक्लेदादिजमौपाधिकं दौर्गन्ध्यं तत्स्वरूपनिघर्षणेन आच्छाद्यते स्वेन पारमार्थिकेन गन्धेन। तद्वदेव हि स्वात्मनि अध्यस्तं स्वाभाविकं कर्तृत्व- भोक्तृत्वादिलक्षणं जगद्द्वैतरूपं जगत्यां पृथिव्याम्, जगत्यामिति उपलक्षणार्थत्वात्सर्वमेव नामरूपकर्माख्यं विकारजातं परमार्थ- सत्यात्मभावनया त्यक्तं स्यात्।
एवं त्यक्तैषणस्त्वं मा गृधाः गृधिमाकांक्षां मा कार्षीर्धन- विषयाम्। कस्यस्विद्धनं कस्यचित्परस्य स्वस्य वा धनं मा काघ्क्षीरित्यर्थः। स्विदित्यनर्थको निपातः।
अथवा मा गृधाः। कस्मात् ? कस्यस्विद्धनमित्याक्षेपार्थो न कस्यचिद्धनमस्ति यद्गृध्येत्। आत्मैवेदं सर्वमितीश्वरभावनया सर्वं त्यक्तमत आत्मन एवेदं सर्वमात्मैव च सर्वमतो मिथ्याविषयां गृधि मा कार्षीरित्यर्थः।। 1।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जो ईशन (शासन) करे, उसे ईट् कहते हैं, उसका तृतीयान्त रूप ‘ईशा’ है। सबका ईशन करनेवाला परमेश्वर परमात्मा है। वही सब जीवों का आत्मा होकर अन्तर्यामिरूप से सबका ईशन करता है। उस अपने स्वरूपभूत आत्मा ईश से सब वास्य-आच्छादन करने योग्य है।
क्या (आच्छादन करने योग्य है) ? यह सब जो कुछ जगती अर्थात् पृथ्वी में जगत् (स्थावर-जंगम प्राणिवर्ग) है, वह सब अपने आत्मा-ईश्वर से, अन्तर्यामिरूप से ‘यह सब कुछ मैं ही हूँ’-ऐसा जानकर अपने परमार्थ सत्य-स्वरूप परमात्मा से यह सम्पूर्ण मिथ्याभूत चराचर आच्छादन करने योग्य है।
जिस प्रकार चन्दन और अगरु आदि की, जल आदि के सम्बन्ध से गीलेपन आदि के कारण उत्पन्न हुई औपाधिक दुर्गन्धि उन (चन्दनादि) के स्वरूप को घिसने से उनके पारमार्थिक गन्ध से आच्छादित हो जाती है, उसी प्रकार अपने आत्मा में आरोपित स्वाभाविक कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि लक्षणोंवाला द्वैत-रूप जगत्-जगती में यानी पृथ्वी में-‘जगत्याम्’ यह शब्द (स्थावर-जंगम सभी का) उपलक्षण करनेवाला होने से-इस परमार्थ सत्य-स्वरूप आत्मा की भावना से नाम-रूप और कर्ममय सारा ही विकारजात परित्यक्त हो जाता है।
इस प्रकार जो, ईश्वर ही चराचर जगत् का आत्मा है-ऐसी भावना से युक्त है, उसका पुत्रादि तीनों एषणाओं के त्याग में ही अधिकार है- कर्म में नहीं। उसके त्यक्त अर्थात् त्याग से (आत्मा का पालन कर)। त्यागा हुआ अथवा मरा हुआ पुत्र या सेवक, अपने संबंध का अभाव हो जाने के कारण अपना पालन नहीं करता, अतः त्याग से-यही इस श्रुति का अर्थ है-भोग यानी पालन कर।
इस प्रकार एषणाओं से रहित होकर तू गर्द्ध अर्थात् धन-विषयक आकांक्षा न कर। किसी के धन की अर्थात् अपने या पराये किसी के भी धन की इच्छा न कर। यहाँ ‘स्वित्’ यह अर्थ-रहित निपात है।
अथवा आकांक्षा न कर; क्योंकि धन भला किसका है ? इस प्रकार इसका आक्षेप-सूचक अर्थ भी हो सकता है अर्थात् धन किसी का भी नहीं है, जो उसकी इच्छा की जाय। यह सब आत्मा ही है- इस प्रकार ईश्वर-भावना से यह सभी परित्यक्त हो जाता है। अतः यह सब आत्मा से उत्पन्न हुआ तथा सब कुछ आत्मरूप ही होने के कारण मिथ्या पदार्थ-विषयक आकांक्षा न कर- ऐसा इसका तात्पर्य है।।1।।
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 कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।। 2।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखनेवाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।।2।।
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 तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।। 5।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता। वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्तर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है ।। 5।।

(कबीर साहब के शब्द से भी ऐसा ही भाव प्रकट होता है-
‘है सब में सब ही तें न्यारा ।
जीव जन्तु जल थल सब ही में, सबद वियापत बोलनहारा ।
सब के निकट दूर सब ही तें, जिन जैसा मन कीन्ह विचारा।।’)

शां0 भा0-तदात्मतत्त्वं यत्प्रकृतं तदेजति चलति तदेव च नैजति स्वतो नैव चलति स्वतोऽचलमेव सत् चलतीवेत्यर्थः। किञ्चतद्दूरे वर्ष कोटिशतैरप्यविदुषामप्राप्यत्वाद् दूर इव। तद् उ अन्तिके इतिच्छेदः। तद्वन्तिकेसमीपेऽत्यन्तमेव विदुषामात्मत्वान्न केवलं दूरेऽन्तिके च। तदन्तरभ्यन्तरेऽस्य सर्वस्य। ‘य आत्मा सर्वान्तरः’ (बृ0 उ0 3।4।1) इति श्रुतेः। अस्य सर्वस्य जगतो नामरूपक्रियात्मकस्य तदु अपि सर्वस्य अस्य बाह्यतो व्यापकत्वादाकाशवन्निरतिशयसूक्ष्मत्वाद् अन्तः। ‘प्रज्ञानघन एव’ (बृ0 उ0 4।5।13) इति च शासनान्निरन्तरं च।। 5।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- जिसका प्रकरण है, वह आत्मतत्त्व एजन करता-चलता है, वही स्वयं नहीं भी चलता अर्थात् स्वयं अचल रहकर चलता हुआ-सा जान पड़ता है। यही नहीं, वह दूर भी है, अज्ञानियों को सैकड़ों-करोड़ों वर्षों में भी अप्राप्य होने के कारण दूर-जैसा है। (‘तद्वन्तिके’ का) तद् उ अन्तिके- ऐसा पदच्छेद करना चाहिए। वह अन्तिक-अत्यन्त समीप भी है। अर्थात् केवल दूर ही नहीं, विद्वानों का आत्मा होने के कारण समीप भी है। वह इस सबके अन्तर यानी भीतर भी है, जैसा कि ‘जो आत्मा सर्वान्तर है’ इत्यादि श्रुति से सिद्ध होता है। आकाश के समान व्यापक होने के कारण वह इस नाम-रूप और क्रियात्मक सम्पूर्ण जगत् के बाहर तथा सूक्ष्म रूप होने से इसके भीतर भी है। और श्रुति के ‘प्रज्ञानघन ही है’ इस कथन के अनुसार वह निरन्तर (बाहर-भीतर के भेद को त्यागकर सर्वत्र) ही है।।5।।
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 अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ् रताः।। 9।।

(यह मन्त्र बृहदारण्यकोपनिषद् में भी है।)

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जो अविद्या (कर्म) की उपासना करते हैं, वे (अविद्या रूप) घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या (उपासना) में ही रत हैं, वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं ।।9।।

शां0 भा0-तत्र अन्धन्तमः अदर्शनात्मकं तमः प्रविशन्ति। के ? येऽविद्यां विद्याया अन्या अविद्या तां कर्म इत्यर्थः, कर्मणो विद्याविरोधित्वात्, तामविद्यामग्निहोत्रादिलक्षणामेव केवलामुपासते तत्पराः सन्तोऽनुतिष्ठन्तीत्यभिप्रायः। ततस्तस्मादन्धात्मकात्तमसो भूय इव बहुतरमेव ते तमः प्रविशन्ति, के ? कर्मं हित्वा ये उ ये तु विद्यायामेव देवताज्ञान एव रताः अभिरताः।। 9।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- उनमें वे तो अज्ञानरूप अन्धकार में प्रवेश करते हैं। कौन ? जो अविद्या-विद्या से अन्य विद्या अर्थात् कर्म यानी केवल अग्निहोत्रादिरूप अविद्या ही की उपासना करते हैं, अर्थात् तत्पर होकर कर्म का ही अनुष्ठान करते हैं; क्योंकि कर्म, विद्या (आत्मज्ञान) के विरोधी हैं (इसलिए उन्हें अविद्या कहा गया है) तथा उस अन्धकार से भी कहीं अधिक अन्धकार में वे प्रवेश करते हैं, कौन ? जो कर्म करना छोड़कर केवल विद्या यानी देवता-ज्ञान में ही रत-अनुरक्त हैं।
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 अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ् रताः।। 12।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म) में रत हैं, वे मानो उनसे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।।12।।

शां0 भा0-अन्धं तमः प्रविशन्ति ये असम्भूतिं सम्भवनं सम्भूतिः सा यस्य कार्यस्य सा सम्भूतिः तस्या अन्या असम्भूतिः प्रकृतिः कारणमविद्या अव्याकृताख्या तामसम्भूतिमव्याकृताख्यां प्रकृतिं कारणमविद्यां कामकर्मबीजभूतामदर्शनात्मिकामुपासते ये ते तदनुरूपमेवान्धं तमोऽदर्शनात्मकं प्रविशन्ति। ततस्तस्मादपि भूयो बहुतरमिव तमः प्रविशन्ति य उ सम्भूत्यां कार्यब्रह्मणिहिरण्यगर्भाख्ये रताः।। 12।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- जो असम्भूति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। सम्भवन (उत्पन्न होने) का नाम सम्भूति है। वह जिस कार्य का धर्म है, उसे ‘सम्भूति’ कहते हैं। उससे अन्य असम्भूति-प्रकृति-कारण अथवा अव्याकृत नाम की अविद्या है। उस असम्भूति यानी अव्याकृत नामवाली प्रकृति-कारण अर्थात् अज्ञानात्मिका अविद्या की, जो कि कामना और कर्म की बीज है, जो लोग उपासना करते हैं, वे उसके अनुरूप ही अज्ञानरूप घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। तथा जो सम्भूति यानी हिरण्यगर्भ नामक कार्यब्रह्म में रत हैं, वे तो उससे भी गहरे- मानो अधिकतर अन्धकार में प्रवेश करते हैं।।12।।
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 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।। 15।।

(यह मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् में भी है।)

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-आदित्य-मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन् ! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।।15।।

शां0 भा0-हिरण्मयमिव हिरण्मयं ज्योतिर्मयमित्येतत्। तेन पात्रेणेव अपिधानभूतेन सत्यस्यैवादित्यमण्डलस्थस्य ब्रह्मणोऽपिहितम् आच्छादितं मुखं द्वारम्। तत्त्वं हे पूषन्नपावृण्वपसारय सत्यस्य उपासनात्सत्यं धर्मो यस्य मम सोऽहं सत्यधर्मा तस्मै मह्यमथवा यथाभूतस्य धर्मस्यानुष्ठान्ने दृष्टये तव सत्यात्मन उपलब्धये।। 15।।

गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- जो सोने का-सा हो, उसे ‘हिरण्मय’ कहते हैं, अर्थात् जो ज्योतिर्मय है, उस ढकने-रूप पात्र से ही आदित्यमण्डल में स्थित सत्य अर्थात् ब्रह्म का मुख-द्वार छिपा हुआ है। हे पूषन् ! सत्य की उपासना करने के कारण जिसका सत्य ही धर्म है, ऐसा मैं सत्यधर्मा हूँ, उस मेरे प्रति अथवा यथार्थ धर्म का अनुष्ठान करनेवाले मेरे प्रति दृष्टि अर्थात् अपने सत्य-स्वरूप की उपलब्धि के लिए तू उसे उघाड़ दे-(उस पात्र को) सामने से हटा दे।।15।।

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