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प्रश्न-3
आत्मन एष प्राणो जायते।
यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।। 3।।
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प्रश्न 5
तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः। तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति।। 2।।
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प्रश्न 6
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियम्।
मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्रः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।। 4।।
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प्रश्न 3
(अथर्ववेद का)
आत्मन एष प्राणो जायते।
यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।। 3।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है, जिस प्रकार मनुष्य-शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस आत्मा में प्राण व्याप्त-समर्पित है तथा यह मनोकृत संकल्पादि से इस शरीर में आ जाता है।।3।।
शां0 भा0- आत्मनः परस्मात्पुरुषादक्षरात्सत्यादेश उक्तः प्राणो जायते। कथमित्यत्र दृष्टान्तः। यथा लोक एषा पुरुषे शिरःपाण्यादिलक्षणे निमित्ते छाया नैमित्तिकी जायते तद्वदेतस्मि- न्ब्रह्मण्येतत् प्राणाख्यं छायास्थानीयमनृतरूपं तत्त्वं सत्ये पुरुष आततं समर्पितम् इत्येतत्। छायेव देहे मनोकृतेन मनःसंकल्पेच्छादि निष्पन्नकर्मनिमित्तेनेत्येतत्-वक्ष्यति हि ‘पुण्येन पुण्यम्’ (प्र0 उ0 3। 7) इत्यादि; तदेव ‘सक्तः सह कर्मणा’ (बृ0 उ0 4 । 4 । 6 ) इति च श्रुत्यन्तरात्- आयाति आगच्छत्य- स्मिञ्शरीरे।। 3।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- यह उपर्युक्त प्राण आत्मा-परम पुरुष-अक्षर यानी सत्य से उत्पन्न होता है। किस प्रकार उत्पन्न होता है ? इसमें यह दृष्टान्त देते हैं-जिस प्रकार लोक में शिर तथा हाथ-पाँववाले पुरुष-रूप निमित्त के रहते हुए ही उससे होनेवाली छाया उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस ब्रह्म यानी सत्य पुरुष में यह छायास्थानीय मिथ्या तत्त्व व्याप्त-समर्पित है। देह में छाया के समान यह मन के कार्य से यानी मन के संकल्प और इच्छादि से होनेवाले कर्म से इस शरीर में आता है। जैसा कि आगे ‘पुण्य से पुण्यलोक को ले जाता है’ आदि श्रुति से कहेंगे। ‘कर्मफल में आसक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के सहित (उसी को प्राप्त होता है)।’ इस अन्य श्रुति से भी यही बात कही गयी है।।3।।
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प्रश्न 5
तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः। तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति।। 2।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- (सत्यकाम को पिप्पलाद का उत्तर) हे सत्यकाम ! यह जो ओंकार है, वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है। अतः विद्वान इसी के आश्रय से उनमें से किसी एक (ब्रह्म) को प्राप्त हो जाता है।।2।।
शां0 भा0- इति पृष्टवते तस्मै स होवाच पिप्पलादः - एतद्वै सत्यकाम ! एतद्ब्रह्म वै परं चापरं च ब्रह्म परं सत्यमक्षरं पुरुषाख्यमपरं च प्राणाख्यं प्रथमजं यत्तदोंकार एवोंकारात्म- कमोंकार प्रतीकत्वात्। परं हि ब्रह्म शब्दाद्युपलक्षणानर्हं सर्व- धर्मविशेषवर्जितमतो न शक्यम् अतीन्द्रिय गोचरत्वात्केवलेन मनसावगाहितुम्। ओंकारे तु विष्ण्वादि प्रतिमास्थानीये भक्त्यावेशितब्रह्मभावे ध्यायिनां तत्प्रसीदति इत्येतदवगम्यते शास्त्रप्रामाण्यात् तथापरं च ब्रह्म। तस्मात्परं चापरं च ब्रह्म यदोंकार इत्युपचर्यते। तस्मादेवं विद्वानेतेनैवात्मप्राप्ति साधने- नैवोंकाराभि ध्यानेन एकतरं परमपरं वान्वेति ब्रह्मानुगच्छति नेदिष्ठं ह्यालम्बनम् ओंकारो ब्रह्मणः।। 2।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- इस प्रकार पूछनेवाले सत्यकाम से पिप्पलाद ने कहा- हे सत्यकाम ! यह पर और अपर ब्रह्म, पर अर्थात् सत्य अक्षर अथवा पुरुषसंज्ञक ब्रह्म तथा जो प्रथम विकार-रूप प्राण नामक अपर ब्रह्म है, वह ओंकार ही है, अर्थात् ओंकार-रूप प्रतीकवाला होने से ओंकार-स्वरूप ही है। परब्रह्म शब्दादि से उपलक्षित होने के अयोग्य और सब प्रकार के विशेष धर्मों से रहित है, अतः इन्द्रियगोचरता से अतीत होने के कारण केवल मन से उसका अवगाहन नहीं किया जा सकता; किन्तु विष्णु आदि की प्रतिमा स्थानीय ओंकार में, जिसमें कि भक्ति के द्वारा ब्रह्मभाव की स्थापना की गयी है, ध्यान करनेवालों के प्रति प्रसन्न होता है-यह बात शास्त्र प्रमाण से जानी जाती है। इसी प्रकार अपर ब्रह्म भी (ॐकार में ध्यान करनेवालों के प्रति प्रसन्न होता है) । अतः पर और अपर ब्रह्म ओंकार ही है, ऐसा उपचार से कहा जाता है। सुतरां, विद्वान आत्मप्राप्ति के इस ओंकार-चिन्तन-रूप साधन से ही पर या अपर किसी एक ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है; क्योंकि ओंकार ही ब्रह्म का सबसे अधिक समीपवर्त्ती आलम्बन है ।।2।।
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प्रश्न 6
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियम्।
मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्रः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।। 4।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-उस पुरुष ने प्राण को रचा, फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन और अन्न को तथा अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोकों को एवं लोकों में नाम को उत्पन्न किया ।।4।।
शां0 भा0-स पुरुष उक्त प्रकारेणेक्षित्वा प्राणं हिरण्यगर्भाख्यं सर्वप्राणिकरणाधारमन्तरात्मानमसृजत सृष्टवान्। अतः प्राणाच्छ्रद्धां सर्वप्राणिनां शुभ कर्मप्रवृत्तिहेतुभूताम्। ततः कर्मफलोपभोगसानाधिष्ठानानि कारणभूतानि महाभूतान्यसृजत्।
खं शब्दगुणम्, वायुं स्वेन स्पर्शेन कारणगुणेन च विशिष्टं द्विगुणम्। तथा ज्योतिः स्वेन रूपेण पूर्वाभ्यां च विशिष्टं त्रिगुणं शब्दस्पर्शाभ्याम्। तथापो रसेन गुणेना साधारणेन पूर्वगुणानुप्रवेशेन च चतुर्गुणाः। तथा गन्धगुणेन पूर्वगुणानुप्रवेशेन च पंचगुणा पृथिवी। तथा तैरेव भूतैरारब्धामिन्द्रियं द्विप्रकारं बुद्ध्यर्थं कर्मार्थं च दशसंख्याकम्। तस्य चेश्वरमन्तःस्थं संशयसंकल्पलक्षणं मनः। एवं प्राणिनां कार्यं करणं च सृष्ट्वा तत्स्थित्यर्थं ब्रीहियवादिलक्षणमन्नम्। ततश्चन्नादद्यमानाद्वीर्यं सामर्थ्यं बलं सर्वकर्मप्रवृत्तिसाधनम्।
तद्वीर्यवतां च प्राणिनां तपो विशुद्धिसाधनं संकीर्यमाणानाम्। मन्त्रस्तपो विशुद्धान्तर्बहिःकरणेभ्यः कर्मसाधनभूता ऋग्यजुःसामाथ- र्वांगिरसः। ततः कर्माग्निहोत्रदिलक्षणम्। ततो लोकाः कर्मणां फलम्। तेषु च सृष्टानां प्राणिनां नाम च देवदत्तो यज्ञदत्त इत्यादि।
एवमेताः कला प्राणिनाम् अविद्यादिदोषबीजापेक्षया सृष्टाः तैमिरिक दृष्टिसृष्टा इव द्विचन्द्रमशकमक्षिकाद्याः स्वप्नदृक्सृष्टा इव च सर्वपदार्थाः पुनस्तस्मिन्नेव पुरुषे प्रलीयन्ते हित्वा नामरूपादि विभागम्।। 4।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- उस पुरुष ने उपर्युक्त प्रकार से ईक्षण कर हिरण्यगर्भ-संज्ञक समष्टि प्राण को अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों की इन्द्रियों के आधारस्वरूप अन्तरात्मा को रचा। उस प्राण से समस्त प्राणियों की प्रवृत्ति की हेतुभूता श्रद्धा की रचना की और उससे कमर्फलोपभोग के साधन (शरीर) के अधिष्ठान अर्थात् कारणस्वरूप महाभूतों की सृष्टि की। सबसे पहले शब्द गुण-विशिष्ट आकाश को रचा, फिर निज गुण स्पर्श और शब्द गुण से युक्त होने के कारण दो गुणोंवाले वायु को, तदनन्तर स्वकीय गुण रूप और पहले दो गुण शब्द-स्पर्श से युक्त तीन गुणोंवाले तेज को तथा अपने असाधारण गुण रस के सहित पूर्वगुणों के अनुप्रवेश से चार गुणोंवाले जल को और गन्ध गुण के सहित पूर्व गुणों के अनुप्रवेश से पाँच गुणोंवाली पृथ्वी को रचा। इसी प्रकार विषयों के ज्ञान और कर्म के लिए उन भूतों से ही आरब्ध दश संख्यावाले दो प्रकार के इन्द्रियग्राम की तथा उसके स्वामी संकल्प-विकल्पादिरूप अन्तःस्थित मन की रचना की।
इस प्रकार प्राणियों के कार्य (विषय) और करणों (इन्द्रियों) की रचना कर उनकी स्थिति के लिए उसने अन्न उत्पन्न किया, फिर उस खाये हुए अन्न से सब प्रकार के कर्मों की प्रवृत्ति का साधनभूत वीर्य-सामर्थ्य यानी बल उत्पन्न किया। तदनन्तर वर्णसंकरता को प्राप्त होते हुए उन वीर्यवान प्राणियों की शुद्धि के साधनभूत तप की रचना की। फिर जिनके बाह्य और अन्तःकरणों की तप से शुद्धि हो गयी है, उन प्राणियों के लिए कर्म के साधनभूत ऋक्, यजुः, साम और अथर्वांगिरस मन्त्रें की रचना की और तत्पश्चात् अग्निहोत्रदि कर्म तथा कर्मों के फलस्वरूप लोक-निर्माण किये। फिर इस प्रकार रचे हुए उन लोकों में प्राणियों के देवदत्त, यज्ञदत्त आदि नाम बनाए।
इस प्रकार तिमिर-रोगी की दृष्टि से रचे हुए द्विचन्द्र, मशक (मच्छर) और मक्षिका आदि तथा स्वप्नद्रष्टा के बनाए हुए सब पदार्थों के समान, प्राणियों के अविद्या आदि दोष-रूप बीज की अपेक्षा से रची हुई ये कलाएँ अपने नाम-रूप आदि विभाग को त्यागकर उस पुरुष में ही लीन हो जाती हैं।।4।।
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