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मुण्डक 2, खण्ड 1
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः।। 2।।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।। 3।।
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मुण्डक 2, खण्ड 2
हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः।। 9।।
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्।। 11।।
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मुण्डक 3, खण्ड 1
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः।। 8।।
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मुण्डक 3, खण्ड 2
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। 8।।
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मुण्डक 2, खण्ड 1
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः।। 2।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-(वह अक्षर ब्रह्म) निश्चय ही दिव्य, अमूर्त्त, पुरुष, बाहर-भीतर विद्यमान, अजन्मा, अप्राण, मनोहीन, विशुद्ध एवं कार्यवर्ग की अपेक्षा श्रेष्ठ अक्षर (अव्याकृत प्रकृति) से भी उत्कृष्ट है।।2।।
शां0 भा0- दिव्यो द्योतनवान्स्वयंज्योतिष्ट्वात्। दिवि वा स्वात्मनि भवोऽलौकिको वा। हि यस्मादमूर्तः सर्वमूर्तिवर्जितः पुरुषः पूर्णः पुरिशयो वा, दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरः सह बाह्याभ्यन्तरेण वर्तत इति। अजो न जायते कुतश्चि- त्स्वतोऽन्यस्य जन्मनिमित्तस्य चाभावात्; यथा जलबुद्बुदा- देर्वाय्वादि, यथा नभः सुषिरभेदानां घटादि। सर्वभावविकाराणां जनिमूलत्वात् तत्प्रतिषेधेन सर्वे प्रतिषिद्धा भवन्ति। सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजोऽतोऽजरोऽमृतोऽक्षरो ध्रुवोऽभय इत्यर्थः।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- (वह अक्षर ब्रह्म) स्वयंप्रकाश होने के कारण दिव्य-प्रकाशित होनेवाला है, अथवा दिवि-अपने स्वरूप में ही स्थित या अलौकिक है; क्योंकि वह अमूर्त्त-सब प्रकार के आकार से रहित, पुरुष- पूर्ण अथवा शरीर-रूप पुर में शयन करनेवाला, सबाह्याभ्यन्तर- बाहर और भीतर के सहित सर्वत्र वर्त्तमान और अज-जो किसी से उत्पन्न न हो, ऐसा है; क्योंकि अपने से भिन्न कोई उसके जन्म का निमित्त है ही नहीं, जिस प्रकार कि जल से उत्पन्न होनेवाले बुद्बुदों का कारण वायु आदि है तथा घटाकाशादि भेदों का हेतु घट आदि पदार्थ हैं (उसी प्रकार उस अजन्मा के जन्म का कोई भी कारण नहीं है)। वस्तु के सारे विकारों का मूल जन्म ही है, अतः उस (जन्म) का प्रतिषेध कर दिये जाने पर वे सभी प्रतिषिद्ध हो जाते हैं; क्योंकि वह परमात्मा सबाह्याभ्यन्तर अज है, इसलिए वह अजर, अमर, अक्षर, ध्रुव और भयशून्य है-यह इसका तात्पर्य है।
शां0 भा0- यद्यपि देहाद्युपाधि भेददृष्टीनामविद्यावशाद्देह- भेदेषु सप्राणः समनाः सेन्द्रियः सविषय इव प्रत्यवभासते तलमलादिमदिव आकाशं तथापि तु स्वतः परमार्थदृष्टीनाम- प्राणोऽविद्यमानः क्रियाशक्तिभेदवांश्चलनात्मको वायुर्यस्मिन्न- सावप्राणः। तथामना अनेकज्ञानशक्ति भेदवत्संकल्पाद्यात्मकं मनोऽप्यविद्यमानं यस्मिन्सोऽयम् अमनाः। अप्राणो ह्यमनाश्चेति प्राणादि वायुभेदाः कर्मेन्द्रियाणि तद्विषयाश्च तथा च बुद्धि मनसीबुद्धीन्द्रियाणि तद्विषयाश्च प्रतिषिद्धा वेदितव्याः। तथा श्रुत्यन्तरे-‘‘ध्यायतीव लेलायतीव’’ (बृ0 उ0 4।3।7) इति।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- जिस प्रकार (दृष्टिदोष से) आकाश तल-मलादि-युक्त भासता है, उसी प्रकार देहादि-उपाधि-भेद में दृष्टि रखनेवालों को यद्यपि विभिन्न देहों में (वह अक्षर ब्रह्म) प्राण, मन, इन्द्रिय एवं विषय से युक्त-सा भासता है, तो भी परमार्थ-स्वरूप-दर्शियों को तो वह अप्राण-जिसमें क्रिया-शक्ति भेदवाला चलनात्मक वायु न रहता हो तथा अमनाः-जिसमें ज्ञान-शक्ति के अनेकों भेदवाला संकल्पा- दिरूप मन भी न हो (इस प्रकार प्राण और मन से रहित ही भासता है)। ‘अप्राणः’ और ‘अमनाः’ इन दोनों विशेषणों से प्राणादि वायुभेद, कर्मेन्द्रियाँ और उनके विषय तथा बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके विषय प्रतिषिद्ध हुए समझने चाहिए; जैसा कि एक दूसरी श्रुति उसे ‘‘मानो ध्यान करता हुआ-सा, मानो चेष्टा करता हुआ-सा’’-ऐसा बतलाती है।
शां0 भा0- यस्माच्चैवं प्रतिषिद्धोपाधिद्वयः तस्माच्छुभ्रः शुद्धः। अतोऽक्षरान्नामरूपबीजोपाधिलक्षितस्वरूपात्सर्वकार्य करणबीजत्वेनोपलक्ष्यमाणत्वात्परं तदुपाधिलक्षणमव्याकृता- ख्यमक्षरं सर्वविकारेभ्यः तस्मात्परतोऽक्षरात्परो निरुपाधिकः पुरुष इत्यर्थः।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- इस प्रकार क्योंकि वह (प्राण और मन) इन दोनों उपाधियों से रहित है, इसलिए शुभ्र- शुद्ध है। अतः नाम-रूप की बीज-भूत उपाधि से जिसका स्वरूप लक्षित होता है, उस अक्षर से-सम्पूर्ण कार्य-करण के बीज-रूप से उपलक्षित होने के कारण उन उपाधियोंवाला अव्याकृत संज्ञक वह अक्षर अपने सम्पूर्ण विकार से श्रेष्ठ है; उस सर्वोत्कृष्ट अक्षर से भी वह निरुपाधिक पुरुष उत्कृष्ट है- ऐसा इसका तात्पर्य है।
शां0 भा0- यस्मिंस्तदाकाशाख्यमक्षरं संव्यवहारविषयमोतं प्रोतं च कथं पुनरप्राणादिमत्त्वं तस्येत्युच्यते। यदि हि प्राणादयः प्रागुत्पत्तेः पुरुष इव स्वेनात्मना सन्ति तदा पुरुषस्य प्राणादिना विद्यमानेन प्राणादिमत्त्वं भवेन्न तु ते प्राणादयः प्रागुत्पत्तेः पुरुष इव स्वेनात्मना सन्ति तदा, अतोऽप्राणादिमान्परः पुरुषः; यथानुत्पन्ने पुत्रेऽपुत्रे देवदत्तः।। 2।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- किन्तु जिसमें सम्पूर्ण व्यवहार का विषय-भूत वह आकाश-संज्ञक अक्षरतत्त्व ओत-प्रोत है, वह प्राणादि से रहित कैसे हो सकता है ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं-यदि प्राणादि अपनी उत्पत्ति से पूर्व भी पुरुष के समान स्व-स्वरूप से विद्यमान रहते तो उन विद्यमान प्राणादि के कारण पुरुष का प्राणादि-युक्त होना माना जा सकता था, किन्तु उस समय वे अपनी उत्पत्ति से पूर्व पुरुष के समान स्वरूपतः हैं नहीं, इसलिए जिस प्रकार पुत्र उत्पन्न न होने तक देवदत्त पुत्रहीन कहा जाता है, उसी प्रकार परम पुरुष भी अप्राणादिमान है।।2।।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।। 3।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-इस (अक्षर पुरुष) से ही प्राण उत्पन्न होता है तथा इससे ही मन, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और सारे संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी (उत्पन्न होती है)।।3।।
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मुण्डक 2, खण्ड 2
हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः।। 9।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- वह निर्मल और कलाहीन ब्रह्म हिरण्मय (ज्योतिर्मय) परम कोश में विद्यमान है। वह शुद्ध और सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थों की ज्योति है और वह है, जिसे कि आत्मज्ञानी पुरुष जानते हैं।।9।।
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्।। 11।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं-बायीं ओर है तथा ब्रह्म ही नीचे-ऊपर फैला हुअा है। यह सारा जगत् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।।11।।
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मुण्डक 3, खण्ड 1
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः।। 8।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- (यह आत्मा) न नेत्र से ग्रहण किया जाता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से और न तप अथवा कर्म से ही। ज्ञान के प्रसाद से पुरुष विशुद्धचित्त हो जाता है और तभी वह ध्यान करने पर उस निष्कल आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है।।8।।
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मुण्डक 3, खण्ड 2
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। 8।।
गी0 प्र0 गो0, भा0 अ0-जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।।8।।
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