*********************
अध्याय 1, द्वितीय वल्ली
अशरीर्ँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। 22।।
आत्मा को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता।।22।।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ् स्वाम्।।23।।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। 24।।
*********************
अध्याय 1, वल्ली 3
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।। 14।।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते।।15।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 1
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराघ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।1।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 2
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। 10।।
न तत्र सूर्य्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।। 15।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 3
इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्त्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। 4।।
इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। 7।।
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।। 8।।
*********************
*********************
अध्याय 1, द्वितीय वल्ली
अशरीर्ँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। 22।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0--जो शरीरों में शरीर-रहित तथा अनित्यों में नित्यस्वरूप है, उस महान् और सर्वव्यापक आत्मा को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता।।22।।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ् स्वाम्।।23।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0--यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।।23।।
शां0 भा0- नायमात्मा प्रवचनेनानेक वेदस्वीकरणेन लभ्यो ज्ञेयो नापि मेधया ग्रन्थार्थ धारणशक्त्या। न बहुना श्रुतेन केवलेन। केन तर्हि लभ्य इत्युच्यते-यमेव स्वात्मानमेष साधको वृणुते प्रार्थयते तेनैवात्मना वरित्र स्वयमात्मा लभ्यो ज्ञायत एवमित्येतत्। निष्कामस्यात्मानम् एव प्रार्थयत आत्मनैवात्मा लभ्यत इत्यर्थः। कथं लभ्यत इत्युच्यते-तस्यात्मकामस्यैष आत्मा विवृणुते प्रकाशयति पारमार्थिकीं तनू्ँ स्वां स्वकीयां स्वयाथात्म्यम् इत्यर्थः।। 23।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-यह आत्मा प्रवचन द्वारा अर्थात् अनेकों वेदों को स्वीकार करने से प्राप्त यानी विदित होने योग्य नहीं है, न मेधा यानी ग्रन्थ-धारण की शक्ति से ही जाना जा सकता है और न केवल बहुत-सा श्रवण करने से ही। तो फिर किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, इस पर कहते हैं--
यह साधक जिस आत्मा का वरण-प्रार्थना करता है, उस वरण करनेवाले आत्मा-द्वारा यह आत्मा स्वयं ही प्राप्त किया जाता है अर्थात् उससे ही ‘यह ऐसा है’ इस प्रकार जाना जाता है। तात्पर्य यह कि केवल आत्म-लाभ के लिए ही प्रार्थना करनेवाले निष्काम पुरुष को आत्मा के द्वारा ही आत्मा की उपलब्धि होती है। किस प्रकार उपलब्ध होता है, इस पर कहते हैं-उस आत्मकामी के प्रति यह आत्मा अपने पारमार्थिक स्वरूप अर्थात् अपने याथात्म्य को विवृत-प्रकाशित कर देता है।।23।।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। 24।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।।24।।
*********************
अध्याय 1, वल्ली 3
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।। 14।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0- (अरे अविद्याग्रस्त लोगो !) उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।।14।।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते।।15।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जो अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय तथा रसहीन, नित्य और गन्ध-रहित है, जो अनादि, अनन्त, महत्तत्त्व से भी पर और ध्र्र्र्र्रुव (निश्चल) है, उस आत्मतत्त्व को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है।।15।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 1
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराघ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।1।।
अर्थात्-स्वयंभू-परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसलिए वे बाहर ही देखती हैं; अन्तरात्मा को नहीं। तब कोई-कोई धीर अमृतत्व की इच्छा करते हुए आवृत्तचक्षु होकर अर्थात् ढँके हुए नेत्र-बन्द नेत्रवाला होकर-दृष्टिशक्ति को अन्तर्मुख फेरकर आत्मा का दर्शन करते हैं।।1।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 2
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। 10।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।।10।।
न तत्र सूर्य्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।। 15।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-वहाँ (उस आत्मलोक में) सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न यह विद्युत् ही चमचमाती है, फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है ? उसके प्रकाशमान होते हुए ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ भासता है।।15।।
*********************
अध्याय 2, वल्ली 3
इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्त्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। 4।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-यदि इस देह में इसके पतन से पूर्व ही (ब्रह्म को) जान सका तो बन्धन से मुक्त होता है, यदि नहीं जान पाया तो इन जन्म-मरणशील लोकों में वह शरीर-भाव को प्राप्त होने में समर्थ होता है।।4।।
इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। 7।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-इन्द्रियों से मन पर (उत्कृष्ट) है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है; बुद्धि से महत्तत्त्व बढ़कर है तथा महत्तत्त्व से अव्यक्त उत्तम है।।7।।
शां0 भा0-सत्त्व शब्दाद्बुद्धिरिह्रोच्यते।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-‘सत्त्व’ शब्द से यहाँ बुद्धि कही गयी है।।7।।
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।। 8।।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ है और वह व्यापक तथा अलिंग है, जिसे जानकर मनुष्य मुक्त होता है और अमरत्व को प्राप्त हो जाता है।।8।।
शां0 भा0-लिंग्यते गम्यते येन तल्लिंगं बुद्ध्यादि।
गी0 प्रे0 गो0, भा0 अ0-जिसके द्वारा कोई वस्तु जानी जाती है, वह बुद्धि आदि लिंग कहलाते हैं।।8।।
*********************
Mobirise gives you the freedom to develop as many websites as you like given the fact that it is a desktop app.
Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.
Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.