वेदमंत्र, भारती अनुवाद-सहित

(पं0 वैदेहीशरण दूबे लिखित ‘वैदिक विहंगम-योग’ से संगृहित) 

*********************
मंत्र (01) [ य0 अ0 11, मं0 1 ]
 ओ३म् युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियम्।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्।।
*********************
मंत्र (02) [य0 अ0 11, मं0 3 ]
ओ३म् युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्य्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्।। 
*********************
मंत्र (03) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 2]
ओ३म् प्र हंसासस्तृपला वग्नुमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः।
अंगोषिणं पवमानं सखायो दुर्मर्षं वाणं प्र वदन्ति साकम्।।
*********************
मंत्र (04) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 3]
ओ३म् स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।। 
*********************  

*********************
मंत्र (01) [ य0 अ0 11, मं0 1 ]

सविता = जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर का
तत्त्वाय = तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए
प्रथमम् = पहले
धियम् = बुद्धि और
मनः = मनस् वा मानस (तथा)
अग्नेः = अग्नि की
ज्योतिः = ज्योतियों के
युञ्जानः = योग कर (इस)
निचाय्य = निश्चय वा दृढ़
पृथिव्याः = भूमि अर्थात् योग-भूमि को अपने अन्दर
अधि = पर अथवा में
आभरत् = अच्छी प्रकार धारण करें।
बुद्धियोग = सत्संग।
मानसयोग = मानस जप तथा मानस ध्यान।
ज्योतियोग = दृष्टियोग ।

*********************

मंत्र (02) [य0 अ0 11, मं0 3 ]

सविता = हे जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर ! आप
तान् = ऐसे
देवान् = विद्वानों को
प्रसुवाति = उत्पन्न करें
यतः = जिनके
धिया = बुद्धियोग अर्थात् जिसके ज्ञान-उपदेश के द्वारा हम
स्वः = सुख-स्वरूप सविता जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर को प्राप्त करने के निमित्त
युक्त्वाय = योगाभ्यास करके (अपने अन्तर की वे)
बृहत् = महान् ज्योतिः ज्योतियाँ (और वह)
दिवम् = दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद
करिष्यतः = दोनों को प्राप्त करें।

*********************

मंत्र (03) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 2]

अंगोषिणं = इस देह में वसनेवाले कान्तिस्वरूप
वाणम् = भोक्ता आत्मा को
प्रवदन्ति = उपदेश करते हैं कि
वृषगणा = उत्तम धर्म-मेघ समाधि के साधक
तृपलाः = सत्त्व, रज और तम; तीनों को पार करके या काम-क्रोधादि पर प्रहार करनेवाले या उनको वश में करनेवाले
हंसासः = नीर-क्षीर के विवेक करनेवाले या सत्यासत्य के विवेक करनेवाले परमहंस
दुर्मर्षम् = न सहन करने योग्य असह्य तेज से युक्त
साकम् = एक साथ वा एकरस से सबमें
पवमानं = व्यापक
वग्नुं = रमणीय अनाहत नाद को
अच्छा = लक्ष्य करके
अमात् = अव्यक्त से
अस्तं = शरण-योग्य सोम को
सखायः = वे समान आख्यानवाले आत्मस्वरूप से युक्त होकर
प्र अयासुः = प्राप्त होवे।

*********************

मंत्र (04) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 3]

ओ3म् = परमात्मा प्राप्त करने में
गावः = इन्द्रियाँ
वृथा = व्यर्थ ही
क्रीडन्तम् = नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करती हैं; क्योंकि वे परमात्मा को
न = नहीं
मिमिते = ज्ञान कर सकतीं
सः = वह पूर्व मंत्रेक्त
उरुगायस्य = विशाल गुण-गरिमावाले स्तुति अर्थात् अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी
जूतिं = ज्योति जो
परीणसं = नाना प्रकार के तेज प्रकट
कृणुते = करती है, उसको वह
योजते = समाधि-द्वारा साक्षात् करता है। और
स हरिः = वह हरि सब दुःखों के हरनेवाले सोम
तिग्मशृंगः = तीक्ष्ण तेज और
ऋज्रः = विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर
दिवा = दिन और
नक्तं = रात
ददृशे = प्रकाशित होता है।
 

*********************  

*********************
मंत्र (01) [ य0 अ0 11, मं0 1 ]
सारांश- वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले बुद्धियोग और मानसयोग तथा अग्नि की ज्योतियों का योग कर, योग की इस दृढ़ भूमि को अपने अन्दर अच्छी प्रकार धारण करें ।
*********************
मंत्र (02) [य0 अ0 11, मं0 3 ]
सारांश- इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि योगाभ्यास सीखनेवाले मनुष्य सच्चे सद्गुरु के द्वारा ही योग का भेद जानकर अभ्यास-द्वारा अपने अन्तर की महान् ज्योतियाँ और दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद; दोनों प्राप्त करें। और वह सद्गुरु, जिनसे योग का भेद जानना है, उनको प्राप्त करने के निमित्त ईश्वर से इस प्रकार की स्तुति करें।
हे जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर ! आप ऐसे विद्वानों को उत्पन्न करें कि जिनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश पाकर आप सुखस्वरूप परमात्मा में योग करने के लिए अपने अन्तर की ज्योतियों और दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद, दोनों को हम प्राप्त करें।
*********************
मंत्र (03) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 2]
सारांश- इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान् इस देह में वसनेवाले कान्तिस्वरूप आत्मा को उपदेश करते हैं कि हे जीवात्माओ ! जो उत्तम और अचल समाधि के साधक त्रिगुणादिकों को पार करके दूध में मिले हुए जल को हंस के पृथक्-पृथक् करने की सामर्थ्य की तरह सत्यासत्य निर्णय करने में समर्थ परमहंस योगी हों, वह अत्यन्त तेज से युक्त, जो सब देहों में एक समान ईश्वर का व्यापक और रमणीय अनाहत नाद है, उसको प्रत्यक्ष करने का लक्ष्य करके, अपने अन्तर में अप्रकट रूप से स्थित सोमरस को योगाभ्यास-द्वारा प्राप्त करते हैं। आप सब भी उनका अनुकरण करें। 
*********************
मंत्र (04) [सा0 उ0 अ0 8, मं0 3]
सारांश-- इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है। हाँ, वह पूर्व मंत्रेक्त परमहंस योगी, उस अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी ज्योति शरीर के बाहर और भीतर चन्द्र-सूर्यादि अनेकों लोक-लोकान्तरों में तेज और नाना प्रकार की ज्योतियाँ प्रकट करती है, और उस सोम को, जो विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर दिन और रात प्रकाशित होता है, प्राप्त करते हैं। 
*********************  

Mobirise gives you the freedom to develop as many websites as you like given the fact that it is a desktop app.

Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.

Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.

कॉपीराइट अखिल भरतीय संतमत-सत्संग प्रकाशन के पास सुरक्षित