निर्मल शुद्ध स्वरूप आतमा को समुझावन ।
ज्ञानसूर्य को रूप ज्ञान कर निकर फैलावन ॥
संसय भ्रम तम टारि अज्ञ बुधि तज्ञ बनावन ।
मोह नींद को तोडि विषय आसक्ति छोड़ावन ॥
सांख्य बेदान्त बुझाय अनातम धारि गिनावन ।
पावन सरल रु श्रेष्ठ संतमत भेद दृढ़ावन ॥
प्रेम अमीय भंडार प्रेम मय सुख बनावन।
सरल दृष्टि शब्द-योग भक्ति अभ्यास करावन ॥
पावन सतसंग वारि सींच धर्म रुख बढ़ावन ।
तासु अमिय फल देइ देइ भक्त अमरावन ॥
सभ श्रेष्ठन ते श्रेष्ठ परम प्रभु तेहू अधिका।
महाबीर बरियार सकल अघ दानव बधिका ॥
सतगुन दया अपार जासु सक बरनि न कोऊ।
सो सतगुरु परम दयाल नमौं चरणन धरि दोऊ ॥
आदरणीय और प्रेमी महाशयो!
यह बात संसार में अत्यन्त विख्यात है कि संसारी सब पदार्थों में से समय विशेष अमूल्य पदार्थ है। फिर भी समय का वह भाग जो कि सत्संग के निमित्त है, तिसका तो कहना ही क्या है, उसके लिए तो बुद्धिमान लोग कहते हैं कि वह समय अत्यन्त दुर्लभ और विशेष धन्य-धन्य है। सो परम प्रभु की असीम दया से आज वही अत्यन्त दुर्लभ और धन्य-धन्य समय उपस्थित है और हमलोगों को उपलब्ध है। जैसे अत्यन्त कृपण मनुष्य अपने अत्यन्त अल्प धन को भी खूब होशियारी से रखता है और कभी भी उसे बेपरवाही से खर्च नहीं करता है, आज ठीक उसी तरह हमलोगों को इस अत्यन्त अमूल्य, अत्यन्त दुर्लभ और अत्यन्त धन्य-धन्य समय की रक्षा करनी चाहिए और इसे थोड़ी भी बेपरवाही से खर्च नहीं करना चाहिए। महाभारत की कथा को जाननेवाले जानते होंगे कि उस बड़ी लड़ाई में भीष्म से लड़ते समय अर्जुन यदि पल भर भी बेपरवाही करते थे, तो भीष्म उनके दस हजार रथियों को मार गिराते थे और पांडवों की बड़ी भयंकर हानि होती थी। आज ठीक उसी तरह हमलोगों की हानि होती है और होगी यदि इस समय हम थोड़ी भी बेपरवाही करते हैं वा करेंगे। इसलिए इस समय हमलोगों को चाहिए कि निरालस और बे-बँटते हुए ख्याल से एकाग्रचित्त होकर सत्संग के वचनों को सुनें और उन्हें विचारें। मेरे लिए यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि ऐसे दुर्लभ समय पर कुछ कहने के लिए मैं आपके सामने खड़ा हुआ हूँ। यह समय जैसा दुर्लभ है, मुझे चाहिए कि वैसा ही दुर्लभ विषय को आपके सामने वर्णन करूँ। वैसा दुर्लभ विषय ढूँढ़ने पर पता लगता है कि 'कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना॥' इस हेतु से मैं इसी विषय का वर्णन करना परमोचति समझता हूँ। परन्तु इस विषय का वर्णन करना अत्यन्त कठिन है, सो इस विषय को कुछ भी जाननेवाले अवश्य जानते हैं। इसी कठिनता का वर्णन करने को गो० तुलसीदासजी ने अपने 'रामचरितमानस' में इस तरह लिखा है- 'सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥'-ऐसे विषय को मैं पूर्ण रूप से वर्णन करूँ, समझने और समझाने के लिए वक्ता और श्रोता दोनों को अत्यन्त एकाग्र होकर दिल लगाना चाहिए।
महाशयो!
ज्ञान का अर्थ 'जानना' है। सारे संसार में प्रत्येक स्थान पर इसकी ही महिमा सूर्य किरणों से भी विशेष चमकीली होकर चमक रही है। यह इसकी महिमा है कि भूगर्भ से अनेक प्रकार के अमूल्य और परम उपयोगी पदार्थों को निकालकर उनसे उत्तम-उत्तम लाभ लिये जाते हैं। यह इसी की महिमा है कि मिट्टी में से अनेक प्रकार के अपूर्व-अपूर्व पदार्थों को उत्पन्न किये और बनाए जाते हैं। यह इसी की महिमा है कि गोउ, घोड़े और कुत्ते की तरह सीधे जानवरों से और भैंसे, हाथी चीते और सिंह की तरह अत्यन्त बलिष्ठ, निष्ठुर, रक्त पीनेवाले और जंगली जानवरों से, उन्हें कब्जे में करके उचित काम लिये जाते हैं। यह इसी की महिमा है कि जल, वायु, वाष्प, अग्नि और बिजली इत्यादि जड़ वस्तुओं से अत्यन्त आश्चर्यजनक और परम लाभदायक काम लिये जाते हैं। यह इसी की महिमा है कि एक मनुष्य अनेक मनुष्यों पर शासन कर सकता है। यह इसी की महिमा है कि केवल ३,००,००,००० अल्प संख्यक पश्चिमी मनुष्य भारत के ३३,००,००,००० मनुष्यों को वश में कर लिये हैं और उन्हें अपने गुलामों की तरह खटाते हैं और यह इसी की महिमा है कि मनुष्य, अवतार, नवी, फिलॉस्फर, योगी, योगेश्वर और साधु-संत कहलाते हैं और संसार में सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य होकर देवता से भी उत्तम हो जाते हैं। और इसी की ही महिमा के कारण मनुष्य-देह की तारीफ में यह बात उच्च स्वर से पुकार-पुकार कर कही जाती है कि _ 'बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सद्ग्रंथन गावा॥'
अधिक कहाँ तक कहा जाए, संसार में जो कुछ करामात है, सो इसकी ही है। मनुष्य चोला में यह जिसके पास जितना अधिक वा कम होता है, वह उतना ही अधिक वा कम माननीय और पूज्य होता है। मनुष्य चोलाधारी जिसके पास यह केवल उतना ही हो, जितना कि यह एक पशु को मिल सकता है, तो यह प्राणी मनुष्य चोला पहरे हुए पशु से अधिक नहीं कहला सकता है।
विचारने से ज्ञात होता है कि ज्ञान दो प्रकार का है-एक विषय ज्ञान और दूसरा आत्मज्ञान। विषय, माया अथवा बदलनेवाले पदार्थ वा नाशवान पदार्थ वा असत् पदार्थ वा सत् पदार्थ को कहते हैं। यहाँ सत् पदार्थ का अर्थ आँखों से प्रत्यक्ष दीख पड़नेवाले बाहरी नाम-रूपधारी पदार्थ जानना चाहिए। इतिहास, भूगर्भ शास्त्र, विद्युतशास्त्र और पदार्थ-विज्ञान आदि शास्त्रों से वा उन शास्त्रों से जिनमें केवल नाम-रूप का विवेचन रहता है वा उन शास्त्रों से जिनसे इस प्रकार का ज्ञान मिले कि पानी जिसका नाम है, उसको भाफ नाम कब और कैसे मिलता है अथवा काले कलूटे तारकोल से लाल-हरे-नीले-पीले रँगने के रंग कैसे बनते हैं? जिनसे जो कुछ ज्ञान हमें मिलते हैं, उन्हें विषय ज्ञान कहते हैं। समासरूप में स्पष्ट जानने के लिए जानना चाहिए कि तीन गुण और विषय पसार चाहे अत्यन्त स्थूल हो वा अत्यन्त सूक्ष्म हो, तिस समस्त पसार के ज्ञान को विषय कहते हैं। विषय ज्ञान संबंधी, छांदोग्योपनिषद् से एक अपूर्व कथा व्यक्त होती है, नारद ऋषि, सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे कि मुझे आत्मज्ञान बतलाओ। तब सनत्कुमार बोले कि पहले बतलाओ कि तुमने क्या सीखा है? फिर मैं बतलाता हूँ। इसपर नारद ने कहा कि मैंने इतिहास, पुराणरूपी पाँचवें वेद-सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, क्षात्र-विद्या, नक्षत्रविद्या और सर्पदेवजन विद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परन्तु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब तुम्हारे यहाँ आया हूँ। इसका सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया कि 'तूने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नामरूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नामब्रह्म से बहुत आगे है। इस नाम-रूप से अर्थात् सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प, मन, बुद्धि और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़कर जो है, वही आत्मारूपी अमृत तत्त्व है।
जगत् मान्य और भूमंडल में तमाम विख्यात अति उच्च ज्ञान की पुस्तिका 'श्रीमद्भगवद्गीता' के दूसरे अध्याय के ४२, ४३, ४४, ४५, ४६ और ५३वें श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ! वेदों के वाक्यों में भूले हुए और यह कहनेवाले मूढ़ लोग कि इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है, बढ़ाकर कहा करते हैं कि (४२) अनेक प्रकार के कर्मों से ही जन्म रूप फल मिलता है और भोग तथा ऐश्वर्य मिलता है, स्वर्ग के पीछे पड़े हुए काम बुद्धिवाले (४३) उल्लिखित भाषण की ओर ही उनके मन आकर्षित हो जाने से, भोग और ऐश्वर्य में ही गर्क रहते हैं, इस कारण व्यवसायात्मिका अर्थात् कार्य-अकार्य का निश्चय करनेवाली बुद्धि समाधिस्थ अर्थात् एक स्थान में स्थिर नहीं रह सकती। (४४) हे अर्जुन! वेद वैगुण्य की बातों से भरे पड़े हैं, इसलिए तू निस्वैगुण्य अर्थात् त्रिगुणों से अतीत, नित्य-सत्त्वस्थ और सुख-दुःख द्वंद्वों से अलिप्त हो एवं योग-क्षेम आदि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ हो। (४५) चारों ओर पानी की बाढ़ आ जाने पर कुएँ का जितना अर्थ या प्रयोजन रह जाता है अर्थात् कुछ भी काम नहीं रहता, उतना ही प्रयोजन ज्ञान प्राप्त ब्राह्मण को सब वेद का रहता है। (४६) वेद-वाक्यों से घबरायी हुई तेरी बुद्धि जब समाधि-वृत्ति में स्थिर और निश्चल होगी, तब योग तुझे प्राप्त होगा। (५३) ।
छान्दोग्योपनिषद् का वराण वर्णित कथा से और श्रीमद्भगवद्गीता के वर्णित श्लोकार्थों से, जो लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के गीता-रहस्य से संग्रह किये गये हैं, कोई भी विचारवान सहज में ही यह सार निकाल सकता है कि संत कबीर साहब ने जो अपने अनुभव के ये वचन कहे हैं कि
'बेद कितेब भवजाल है मरिहैं बौराई हो।
मुक्ति भेव कछु और है सोई सन्तन पाई हो।'
और गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी जो अपने रामायण में लिखा है कि 'श्रुति पुरान बहु कहेठ ठपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।' सो छान्दोग्योपनिषद् से और श्रीमद्भगवद्गीता से कुछ भी विरुद्ध और विशेष नहीं कहा है। सारांश यही है कि नारदजी ने सनत्कुमार से जितने पुस्तकों का नाम बतलाया, उन सबसे भी विषय-ज्ञान ही प्राप्त होता है। विषय-ज्ञान कहाँ तक फैला हुआ है, इससे अधिक और क्या कहकर समझाया जाए?
मायिक उन्नतिरूपी रत्न का यह महान भंडार है। जो इस भंडार में जितना दूर तक जाता है, वह उतना विशेष रत्नों को प्राप्त करके तीनों लोकों में लाभ उठाता है। परन्तु यह उस लाभ को नहीं प्राप्त करा सकता है, जो कि तीनों लोकों से अथवा समस्त प्राकृतिक पसार से वा समूचे ब्रह्मांड से वा समूचे क्षर-अक्षर सृष्टि से परे है। ब्रह्मचर्यादि व्रतों को धारण करके और अच्छे नियम से दीर्घकाल पर्यन्त रहकर विद्या-अध्ययन कर और सीखे हुए विद्या का प्रयोग यत्नवान होकर और परिश्रम से कर मनुष्य इस महान भंडार को हस्तगत कर सकता है और इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय इसके प्राप्त करने का नहीं है। अबतक विषय ज्ञान का बयान कहा। मैं अब आपको 'आत्मज्ञान' का बयान सुनाता हूँ। आत्मा का अर्थ-अपना, निज, स्वयं है। अपने को जानना वा निज को जानना वा स्वयं को जानना आत्मज्ञान कहलाता है। प्रकट है कि जो अपने को भूल जाता है, वह अपने कर्तव्य को, अपने बल को, अपने हानि-लाभ को, अपने संबंध को और अपने सुख-दुःख को भी भूल जाता है, उसकी उन्नति बंद हो जाती है और उसकी अधोगति होती है। आत्मज्ञान से वंचित रहकर अधोगति को ही उन्नति और उसमें ही अपना पुरुषार्थ माननेवाला प्राणी, चाहे वह देव-दानव, नर-किन्नर, कोई भी हो, अत्यन्त मोह में पड़ जाता है। अनात्म-स्वरूप को ही आत्मस्वरूप मानने लगकर 'मैं और मोर तोर तें' रूपी मायाजाल में फंसकर, राग-द्वेषरूपी कठिन बंधनों से जकड़ा जाकर, कर्मचक्र में अबाधित घूमते हुए, तन, धन, धाम और स्त्री-पुत्रादि में संबंध जोड़ते हुए संसार-समुद्र में मीनवत् निमग्न और उतराते रहकर, कालरूपी मगर से बारंबार ग्रसा जाकर, मीनरूपी मत्त गज से अत्यन्त कुचला जाकर और इन्द्रीरूपी परम जहरीले नागों से उँसा जाकर अत्यन्त व्यथा और लहर से पीड़ित और अचेत हो जाता है, अपने कर्तव्य को संपूर्ण भूल जाता है और दुःखकुंड के गहरे और गंभीर तह में डूबकर निमग्न हो जाता है और इस अवस्था में वह तबतक पड़ा रहता है, जबतक कि उसके हृदय में आत्मज्ञानरूपी सूर्य उगकर उसके हृदय का अनात्म को ही आत्मा जानने का घोर अंधकार को दूर नहीं कर देता है। विषय में ज्वाला है, शीतलता नहीं। विषय में प्रतिलाभ के साथ तृष्णा की अधिक-अधिक वृद्धि है, संतोष नहीं। विषय में अशांति का प्रबल प्रवाह है, शांति नहीं। विषय में बंधन है, मोक्ष नहीं। विषय-ज्ञान संपूर्ण प्राप्त करके भी मोक्ष और परम शांतिप्रद आत्मज्ञान मिल नहीं सकता। आत्मज्ञान बिना नर लोक में रहो वा सातो पाताल में से किसी में जाओ वा सातो स्वर्गों में से किसी में जाओ, तिसके बिना देवत्व पाओ वा शिवता पाओ वा विधिता पाओ वा विष्णत्व पाओ वा विश्वरूपता पाओ, वह अवस्था कभी नहीं मिटेगी, जो कि इसके प्राप्त किये बिना रहती है और जो कि वर्णित हो चुकी है। ऐसे अधोगति और दुःख में रहना भला किस विचारवान् को पसंद होगा। विचारवान, ज्ञानी और संत लोग अचेत और साधारण मनुष्यों को समझाते और चेताते हैं कि हे मनुष्यो! अपने स्वरूप आत्मा को ऐसा कहकर समझें -
नहीं थल नहीं जल नहीं वायु अग्नी।
नहीं व्योम ना पाँच तन्मात्र ठगनी ॥
ये त्रय गुण नहीं नाहिं इन्द्रिन चतुर्दश ।
नहिं मूल प्रकृति जो अव्यक्त अगम अस ॥
सभी के परे जो परम तत्त्व रूपी।
सोई आत्मा है सोई आत्मा है ॥१॥
न उद्भिद् स्वरूपी न उष्मज स्वरूपी।
न अण्डज स्वरूपी न पिण्डज स्वरूपी ॥
नहीं विश्व रूपी न विष्णु स्वरूपी ।
न शंकर स्वरूपी न ब्रह्मा स्वरूपी ॥सभी के०॥२॥
कठिन रूप ना जो तरल रूप ना जो ।
नहीं वाष्प को रूप तम रूप ना जो ॥
नहीं ज्योति को रूप शब्दहु नहीं जो ।
सटै कुछ भी जा पर सोऊ रूप ना जो ॥ सभी के०॥३॥
न लचकन न सिकड़न न कम्पन है जामें।
न संचालना नाहिं विस्तृत्व जामें ॥
है अणु नाहिं परमाणु भी नाहिं जामें।
न रेखा न लेखा नहीं विन्दु जामें ॥ सभी के०॥४॥
नहीं स्थूल रूपी नहीं सूक्ष्म रूपी ।
न कारण स्वरूपी नहीं व्यक्त रूपी ॥
नहीं जड़ स्वरूपी न चेतन स्वरूपी।
नहीं पिण्ड रूपी न ब्रह्माण्ड रूपी ॥ सभी के०॥५॥
है जल थल में जोइ पै जल थल है नाहीं।
अगिन वायु में जो अगिन वायु नाहीं॥
जो त्रयगुण गगन में न त्रयगुण अकाशा।
जो इन्द्रिन में रहता न होता तिन्हन सा ॥ सभी के०॥६॥
मूल माया की सब ओर अरु आत प्रोतहु।
भरो जो अचल रूप कस सो सुजन कहु ॥
भरो मूल माया में नाहीं सो माया।
अव्यक्त हू को जो अव्यक्त कहाया ॥ सभी के०॥७॥
ब्रह्मा महाविष्णु विश्वरूप हरि हर।
सकल देव दानव रु नर नाग किन्नर ॥
स्थावर रु. जंगम जहाँ लौं कछू है।
है सब में जोई पर न तिनसा सोई है ॥ सभी के०॥८॥
जो मारे मरै ना जो काटे कटै ना।
जो साड़े सडै ना जो जारे जरै ना ॥
जो सोखा ना जाता सोखे से कछू भी।
नहीं टारा जाता टारे से कछू भी ॥ सभी के०॥९॥
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको ।
नहीं बाल यौवन जरापन है जाको ॥
जिसे नाहिं होती अवस्था हू चारो।
नहीं कुछ कहाता जो वर्णहु में चारो ॥ सभी के०॥१०॥
कभी नाहिं आता न जाता है जोई।
कभी नाहिं वक्ता न श्रोता है जोई॥
कभी जो अकर्ता न कर्ता कहाता ।
बिना जिसके कुछ भी न होता बुझाता ॥ सभी के०॥११॥
कभी ना अगुण वा सगुण ही है जोई।
नहीं सत् असत् मर्त्य अमरहु ना जोई॥
अछादन करनहार अरु ना अछादित ।
न भोगी न योगी नहीं हित न अनहित ॥ सभी के०॥१२॥
त्रिपुटी किसी में न आवै कभी भी।
औ सापेक्ष भाषा न पावै कभी भी॥
ओंकार शब्दब्रह्म ह को जो पर है।
हत अरु अनाहत सकल शब्द पर है ॥ सभी के०॥१३॥
जो टेढ़ों में रहकर भी टेढ़ा न होता।
जो सीधों में रहकर भी सीधा न होता ॥
जो जिन्दों में रहकर न जिन्दा कहाता।
जो मुर्दो में रहकर न मुर्दा कहाता॥ सभी के०॥१४॥
भरो व्योम से घट फिरै व्योम में जस।
भरो सर्व तासों फिरै ताहि में तस ॥
नहीं आदि अवसान नहिं मध्य जाको।
नहीं ठौर कोऊ रखै पूर्ण वाको ॥ सभी के०॥१५॥
हैं घट मठ पटाकाश कहते बहुत-सा ।
न टूटै रहै एक ही तो अकाशा ॥
है तस ही अमित चर अचर हू को आतम ।
कहैं बहु न टूटै न होवै सो बहु कम ॥ सभी के०॥१६॥
न था काल जब था वरतमान जोई।
नहीं काल ऐसो रहेगा न ओई॥
मिटैगा अवस काल वह ना मिटैगा।
है सतगुरु जो पाया वही यह बुझेगा ॥ सभी के०॥१७॥
सरव श्रेष्ठ तनधर की भी बुधि न गहती।
जो ऐसो अगम सन्तवाणी ये कहती ॥
करै पूरा वर्णन तिसे 'मही' कैसे।
है कंकड़-वणिक कहै मणि-गुण को जैसे ॥ सभी के०॥१८॥
ज्ञानवान लोग जानते हैं और कहते हैं और विचारवान मनुष्य अपने से भी विचार ले सकते हैं कि इस समस्त प्राकृतिक पसार के वा समस्त पिंड-ब्रह्मांड वा क्षर-अक्षर सृष्टि के इन्द्री-सहित और इन्द्री-रहित सृष्टियों में पाँच स्थूल तत्त्व से तमगुण सूक्ष्म है, पाँच ज्ञान और पाँच कर्म इन्द्रियों से रजगुण सूक्ष्म है, मन से सत्त्वगुण सूक्ष्म है; रज, तम, सत्-तीनों गुणों से अहंकार सूक्ष्म है; अहंकार से बुद्धि या महान या महत्तत्त्व सूक्ष्म है, महत्तत्त्व से मूल माया या अव्यक्त प्रकृति सूक्ष्म है और अव्यक्त प्रकृति से भी आत्मा सूक्ष्म है। यह प्रकट है कि जो पदार्थ जितना विशेष सूक्ष्म होता है, वह उतना ही विशेष व्यापक भी होता है। वर्णन के अनुसार आत्मा संपूर्ण क्षराक्षर पसार से विशेष सूक्ष्म है, इसलिए वह सबसे विशेष व्यापक भी है। इसीलिए ऐसा हो नहीं सकता कि वह प्रत्येक पिंड में प्रति पिंडवत् ही व्यापक हो और पिंड की अनेकता की तरह उसकी भी अनेकता हो वा ब्रह्मांड भर ही व्यापक होकर ब्रह्मांडवत् ही वह आदि अंत-सहित हो। ज्ञानियों और संतों ने यह सिद्धांत कर लिया है कि आत्मा सब क्षराक्षर पसार में ओत-प्रोत व्यापक है और उस पसार के भी बाहर कितना है, जिसकी कुछ सीमा नहीं। सारांश जैसे सब घट में एक ही आकाश है, तैसे ही सब क्षराक्षर अनेकता में एक ही आत्मा है और इसलिए संत कबीर साहब ने सबमें एक ही आत्मा को दरसाने के लिए इन पदों को गाया है -
मन तू मानत क्यों न मना रे।
कौन कहन को कौन सुनन को, दूजा कौन जना रे ॥
दर्पण में प्रतिबिम्ब जो भासै आप चहुँ दिस सोई।
दुविधा मिटै एक जब होवै तौ लख पावै कोई॥
आत्मा या निजस्वरूप को वर्णितानुसार जो कोई अपनी बुद्धि में स्थिर कर सकेंगे, वह जान ले सकेंगे कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इसी आत्मस्वरूप का वर्णन करने के लिए अपने रामचरितमानस और विनय-पत्रिका में इस प्रकार गाया है। यथा -
जोग वियोग भोग भल मन्दा।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ॥
जनम मरन जहँ लगि जग जालू।।
संपति बिपति करम अरु कालू ॥
धरनि धाम धन पुर परिवारू।
सरग नरक जहँ लगि ब्यवहारू ॥
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं।
मोह मूल परमारथ नाहीं॥
सपने होइ भिखारि नृप, रंक नाकपति होइ।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ ॥
मोह निसा सब सोवनिहारा।
देखिय सपन अनेक प्रकार ॥
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी।
परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिय तबहिँ जीव जग जागा।
जब सब विषय बिलास बिरागा ॥
अनुराग सो निजरूप जो जग तें विलक्षण देखिये।
संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ॥
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हर्ष शोक न व्यापई।
त्रैलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥
आत्मज्ञान के बिना क्या हानि और उसकी प्राप्ति से क्या लाभ तिसका वर्णन हो चुका है। उस हानि-लाभ को याद दिलाने के लिए यहाँ पर मैं केवल इतना कह देता हूँ कि आत्मज्ञान बिना संसार में फंसा हुआ रहकर भवदुःख भोगरूपी हानि और तिसे प्राप्त करने पर वर्णित हानि की निवृत्तिरूपी लाभ पाकर जीव कृतकृत्य हो जाता है। आत्मा के केवल अनुमान और उपमान ज्ञानों से जो अनेक युक्तिवादों से प्राप्त होते हैं, पूरी संतुष्टि नहीं होती है। यानी तिनसे आत्मा का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। पूरी संतुष्टि के लिए अनुभव यानी प्रत्यक्ष ज्ञान अवश्य होना चाहिए, जो कि बिना पूर्ण ध्यानभ्यास के दुनियाँ भर के पुस्तकों को पढ़कर और तमाम युक्तिवादों को जानकर और सबसे बड़ा तार्किक होकर भी कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। पुस्तकों की युक्तवादों की ओर यथोचित तर्क की भी अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि अनुमान और उपमान ज्ञान इनसे ही मिलते हैं और बिना अनुमान और उपमान ज्ञान पाये अन्धाधुंध ध्यानाभ्यास ठीक नहीं होता। ज्ञानियों ने दृढ़तापूर्वक कह दिया है आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन और ध्यानाभ्यास यही तीन साधन मुख्य हैं। सो प्रथम श्रवण और मनन अवश्य होना चाहिए और तब ध्यानाभ्यास की ओर चलना चाहिए। पुस्तकों के युक्तवादों के और यथोचित तर्क के बिना अथवा मोट में उचित विद्याभ्यास के बिना श्रवण और मनन नहीं आ सकते। इस हेतु से विद्या अभ्यास अवश्य करना चाहिए। विद्या की आवश्यकता विषय-ज्ञान और आत्मज्ञान, दोनों के वास्ते अवश्य है। इसलिए मनुष्यों को विद्या-प्राप्ति के लिए विशेष चेष्टित होना चाहिए और जान लेना चाहिए कि बिना विद्या के ज्ञान नहीं होता विद्या को केवल श्रवण द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं।
तुलसीकृत रामायण के पाठ करनेवाले जानते हैं कि ज्ञान से भी विशेष आदरणीय पदार्थ ईश्वर-भक्ति है। भक्ति है ऐसी अवश्य, परंतु इस की ऐसी महिमा होने पर भी ज्ञान की महिमा रत्ती भर भी कम नहीं होती। अब मैं ज्ञान के बयान को यह कहकर समाप्त करता हूँ कि यह दुर्लभ और धन्य-धन्य पदार्थ के पाने के लिए सबसे विशेष आवश्यकता जिस महान् पदार्थ की है, सो गुरु है। गुरु बिना कोटि करो कुछ न होगा। गुरु बिना ईश्वर का भी मजाल नहीं कि तुम्हें कुछ दे। इसलिए प्रेमियो! गुरु-भक्ति करो। उनका शरणागत होकर रहो, उनका इस तरह यश गाओ और इस तरह नम करके उनसे विनती करके ज्ञान प्राप्त करो। यथा -
भजो हो मन गुरु उदार, भव अपार तारणं ॥
ज्ञानवान अति सुजान, प्रेमपूर्ण हृदय ध्यान,
विगत मान सुख निधान, दास भाव धारणं ॥
रहें जहाँ सतसंग नित्त, सुजन जन सों नेह हित्त,
शब्द तार धरे सार, प्रकृति पार उतारनं ।।
छन छन मन ध्यान रत्त, स्तुति रमे धुन राम सत्त,
और मगन जग में भ्रमण, करि-करि जन तारणं ।।
कलह नहिं अनत चैन, सतसंग में दिवस रैन,
मरब जगत सुक्ख दैन, भक्त जन उधारनं ।।
जग में गुरु ही आधार,' 'मॅही' नहिं आन सार,
गरु बिनु सब अंधकार, सूर्य चन्द्र तारनं ॥
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मोहि दे दो भगती दान, सतगुरु हो दाता जी ॥
दस दिसि विषय-जाल से हूँ घेरो, टरत नहीं अज्ञान ॥
गाढ़ अविद्या प्रबल धार में, भये हूँ बहि हैरान ॥
निजबुधि बल को कछु न भरोसा, गुरु तव आस न आन ॥
जग के सब संबंधिन देखे, तुम बिनु हित न महान ॥
बाहर अंतर भक्ति कराई, दीजै आतम ज्ञान ॥
नात्म द्वैत से बाहर कीजै, यहि विनती नहिं आन ॥
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