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33. महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी

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।। मूल पद्य ।।

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम-रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में ।।2।।
सुरत निरत के पार में, सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में ।
आहत अनाहत पार में, सारे प्रपञ्चन्ह पार में ।।3।।
सापेक्षता के पार में, त्रिपुटी कुटी के पार में ।
सब कर्म काल के पार में, सारे जञ्जालन्ह पार में ।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।
सत्ता-स्वरूप अपार सर्वाधार, मैं-तू पार में ।।5।।
पुनि ओऽम् सोऽहम् पार में, अरु सच्चिदानंद पार में ।
हैं अनंत व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में ।। 6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में ।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में ।।7।।
सत् शब्द धरकर चल मिलन, आवरण सारे पार में ।
सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में ।।8।।


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।। मूल पद्य ।।

अव्यक्त अनादि अनंत अजय, अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।1।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्द ब्रह्म ॐ वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही, है परमातम प्रतीक वही ।।2।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सारशब्द सत्शब्द वही ।
है सत् चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही ।।3।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।।4।।
पुनि राम-नाम है अगुण वही, अकथ अगम पूर्णकाम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।5।।
है एक ॐ सत्नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
----------------------- मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ मेँहीँ नाम यही ।।6।।

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* संतवाणी सटीक समाप्त *
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।। मूल पद्य ।।

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम-रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में ।।2।।
सुरत निरत के पार में, सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में ।
आहत अनाहत पार में, सारे प्रपञ्चन्ह पार में ।।3।।
सापेक्षता के पार में, त्रिपुटी कुटी के पार में ।
सब कर्म काल के पार में, सारे जञ्जालन्ह पार में ।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।
सत्ता-स्वरूप अपार सर्वाधार, मैं-तू पार में ।।5।।
पुनि ओऽम् सोऽहम् पार में, अरु सच्चिदानंद पार में ।
हैं अनंत व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में ।। 6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में ।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में ।।7।।
सत् शब्द धरकर चल मिलन, आवरण सारे पार में ।
सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में ।।8।।

शब्दार्थ-क्षेत्र =शरीर। क्षर=नाशवान। अपरा=अपरा प्रकृति। परा=परा प्रकृति। अक्षर=अविनाशी। (भगवद्गीता के अनुसार तीन पुरुष हैं-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम-गीता, अध्याय 15, श्लोक 16 तथा 17)। सत्=अपरिवर्त्तनशील पदार्थ, परा प्रकृति, अक्षर पुरुष, निर्गुण। असत्= परिवर्त्तनशील पदार्थ, अपरा प्रकृति, क्षर पुरुष, सगुण। सापेक्षता= ऐसे दो शब्द, जो अत्यन्त संबंधित हों; परन्तु उनके अर्थ एक-दूसरे से विपरीत हों, जैसे-दिन-रात, अच्छा-बुरा, हर्ष-शोक आदि; इस तरह के शब्दों से नहीं वर्णित होनेयोग्य गुुणवाले ‘सापेक्षता के पार में’ कहलाते हैं। त्रिपुटी=अत्यन्त संबंधित तीन-तीन शब्द; जैसे-भक्ति- भक्त-भगवंत, ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय इत्यादि। कुटी=स्थान। त्रिपुटी कुटी=त्रिपुटी से संबंधित स्थान। आधेयता=अवलम्बित होने का गुण। ओऽम्=अनाहत आदिनाद, प्रणव ध्वनि, सत्शब्द। सोऽहम्=वह शब्द, जिसके मिलने से परमात्मा और अपने में एक तत्त्व होने का ज्ञान होता है। व्यापक=सबमें प्रविष्ट और फैलकर रहनेवाला। व्याप्य जिसमें व्यापक हुआ जाय, प्रकृति। हिरण्यगर्भ=ज्योतिर्मय ब्रह्म, व्यावहारिक सत्ता, ब्रह्मा।

पद्यार्थ-जो सब शरीरों यानी स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण तथा कैवल्य (जड़-विहीन चेतन), सभी नाशवानों, अपरा प्रकृति- निम्नकोटि की प्रकृति-परिवर्त्तनशील दशावाली जड़ प्रकृति-असत्; परा प्रकृति-उच्च कोटि की प्रकृति-अपरिवर्त्तनशील# दशा वाली जीव-रूपा* चेतन प्रकृति-सत्; इन उभय प्रकृतियों और परिवर्त्तनशील दशा-रहित अविनाशी तत्त्व के परे है। जो त्रिगुण-रहित परा प्रकृति तथा त्रिगुण-सहित अपरा प्रकृति के परे और सत्-असत् के भी परे है।।1।। जो समस्त नाम-रूपों के परे, मन, बुद्धि और वचन के परे है, जो पञ्चेन्द्रिय और पंच विषयों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) के परे है, चलने वा हिलने-डोलने और किसी प्रकार कहे जाने के भी परे है।।2।। जो सुरत की संलग्नता से परे है, सभी द्वैत (प्रपञ्च) के झगड़ों से परे है, जो ठोकर से और बिना ठोकर से होनेवाले शब्दों के परे और सारी सृष्टि के परे है।।3।। जो सापेक्षता और त्रिपुटी स्थान के परे है, जो सब कर्म और समय के परे है और सभी उलझन-झंझटों के परे है।।4।। जो अद्वितीय, रोग-रहित, अत्यन्त पवित्र और अवलम्बित रहने के गुण के परे है, जो स्वरूप से स्थितिवान, असीम, सबका आधार और मैं-तू के परे है।।5।। पुनः जो ॐ-सोऽहम् के परे है और सच्चिदानंद ब्रह्म** के परे है, जो अनंत, व्यापक और व्याप्य है, फिर व्याप्य और व्यापक के परे भी है।।6।। जिससे हिरण्यगर्भ-ज्योतिर्ब्रह्म भी निम्न कोटि का है, जो अंत-सहितों के परे है, (वही) सबका ईश्वर-प्रभु, सम्पूर्ण जगदादि का ईश्वर, विश्व का स्वामी सबके परे है।।7।। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि उस परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के लिए सत्शब्द यानी चेतन शब्द-प्रणव-ध्वनि को ग्रहण कर (स्थूल, सूक्ष्मादि) सारे (मायिक) आवरणों के पार में चलो। सद्गुरु के दयामय हस्त के नीचे ठहरकर और उसे धरकर या उसका सहारा लेकर कथित सब आवरणों के पार में जाओगे।।8।।

[ # महाभारत, शान्ति पर्व, उत्तरार्द्ध, मोक्ष-धर्म, अध्याय 104]
[* श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 7, श्लोक 5।]
[** सच्चिदानंद ब्रह्म और व्यावहारिक सत्ता के विषय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महोदय कृत गीता-रहस्य, पृष्ठ 211 तथा ‘कल्याण’ के वेदान्त अंक, संवत् 1993 वि0, पृष्ठ 187 में देखिये। और पंचम संस्करण सत्संग-योग, द्वितीय भाग का पृष्ठ 236 और तृतीय भाग का 280 देखिये।]


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।। मूल पद्य ।।

अव्यक्त अनादि अनंत अजय, अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।1।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्द ब्रह्म ॐ वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही, है परमातम प्रतीक वही ।।2।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सारशब्द सत्शब्द वही ।
है सत् चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही ।।3।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।।4।।
पुनि राम-नाम है अगुण वही, अकथ अगम पूर्णकाम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।5।।
है एक ॐ सत्नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
-------------------- मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ मेँहीँ नाम यही ।।6।।

पद्यार्थ-जो परमात्मा इन्द्रियों को अप्रत्यक्ष, आदि-अन्त-रहित, अजेय, अजन्मा और सारी सृष्टि का आदिमूल है, उस (परमात्मा) से जो धारा सर्वप्रथम प्रस्फुटित हुई यानी फूटकर निकली, उस अपरा-जड़ प्रकृति से श्रेष्ठ धारा को स्फोट कहते हैं।।1।। वही स्फोट है, वही उद्गीथ* है, वही ब्रह्म-ध्वनि, शब्दब्रह्म और ओऽम् भी वही है। वही अत्यन्त मीठी सुरीली प्रणव-ध्वनि की धारा है और वही परमात्मा की प्रतिमूर्त्ति है।।2।। वह परम प्रभु सर्वेश्वर का ध्वन्यात्मक नाम, सारशब्द और सत्शब्द है। वह सत्, चेतन तथा अप्रत्यक्ष (इन्द्रियों से नहीं जानने योग्य) है और वही इन्द्रियों से जानने योग्य सब (पदार्थों) में व्यापक (प्रभु का) नाम है।।3।। वही सबमें रमण करनेवाली, सर्वव्यापिनी राम-ध्वनि है तथा वही सबको आकृष्ट करनेवाला हरि और कृष्ण नाम है। वही परम प्रचण्डिनी शक्ति है। कल्याणकारक, क्लेशों को हरनेवाला नाम भी वही है।।4।। फिर निर्गुण राम-नाम भी वही है और अनिर्वचनीय, बुद्धि के परे, सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला नाम वही है। वही स्वर-व्यंजन-विहीन, घोषित नहीं किए जाने योग्य है# और वही निर्दोष-दोष-रहित चेतन-ध्वनि का समुद्र है।।5।। वही एक ‘ॐ’ सत् नाम है और वही ऋषियों-द्वारा सेवित प्रभु का नाम है। महर्षि मँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि यही ‘ॐ’ शब्द प्रभु का नाम है, इसी का भजन करो।।


[* उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाक्षरं च।
अत्रन्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः।।7।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद्, अध्याय 1
अर्थ-उद्गीत (उद्गीथ अर्थात् ॐ) परब्रह्म है। उसमें तीन सुप्रतिष्ठित अक्षर (अ, उ, म्) हैं। ब्रह्मज्ञानी लोग भीतरी हालत (रहस्य या गुप्त भेद) जानकर ब्रह्म में लीन होते हैं अर्थात् ॐ (उद्गीत) में लीन हो जाते हैं।।7।।]

[# अघोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।। -अमृतनादोपनिषद्
अर्थ-जो नाद-रहित, व्यञ्जन-रहित, स्वर-रहित, तालुकंठ प्रभृति उच्चारण- स्थान-रहित रेखा-रहित और दोनों ओष्ठों से नहीं उच्चरित होनेयोग्य है, उसी को अक्षर कहकर जानो। उसका कभी भी नाश नहीं होता है।
ॐ, स्फोट वा उद्गीथ के विषय में सत्संग-योग, भाग 2, पंचम संस्करण, पृष्ठ 259 में स्वामी विवेकानंदजी महाराज के तथा भाग 3, पृष्ठ 291 में स्वामी भूमानंदजी के वचन पढ़कर देखिये।]

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* संतवाणी सटीक समाप्त *
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