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32. परम भक्तिन मीराबाई की वाणी

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।। मूल पद्य ।।

लागी मोहि राम खुमारी हो।।
रमझम बरसै मेहड़ा, भीजै तन सारी हो ।
चहुँ दिस चमकै दामिणी, गरजै घन भारी हो ।।
सतगुरु भेद बताइया, खोली भरम किवारी हो ।
सब घट दीसै आतमा, सब ही सूँ न्यारी हो ।।
दीपक जोऊँ ज्ञान का, चढ़ँन्न् अगम अटारी हो ।
‘मीराँ’ दासी राम की, इमरत बलिहारी हो ।।

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।। मूल पद्य ।।
ऊँची अटरिया लाल किवड़िया, निरगुण सेज बिछी ।।
पचरंगी झालर शुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजूबन्द कड़न्न्ला सोहै, मांग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, शोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणाँ ‘मीरा’ सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।


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।। मूल पद्य ।।

फागण के दिन चार, होरी खेल मना रे ।।
बिन करताल पखावज बाजै, अनहद की झनकार रे ।।
बिन सुर राग छतीसूँ गावै, रोम-रोम रणकार रे ।।
सील संतोष की केसर घोली, प्रेम प्रीत पिचकार रे ।।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घट के सब पट खोल दिये हैं, लोक लाज सब डार रे ।।
होरी खेल पीव घर आये, सोई प्यारी पिय प्यार रे ।।
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे ।।

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।। मूल पद्य ।।

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलूँ कैसे जाय ।।
ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय ।।
सोच-सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय ।।
ऊँचा नीचा महल पिया का, म्हाँसूँ चढ्यो न जाय ।।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय।।
कोस-कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड-पैंड बटमार।।
हे विधना कैसी रच दीनी, दूर बसायो म्हारो गाँव।।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, सतगुरु दई बताय।।
जुगन-जुगन की बिछड़ी मीरा, घर में लीनी लाय।।

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।। परम भक्तिन मीराबाईजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।

लागी मोहि राम खुमारी हो।।
रमझम बरसै मेहड़ा, भीजै तन सारी हो ।
चहुँ दिस चमकै दामिणी, गरजै घन भारी हो ।।
सतगुरु भेद बताइया, खोली भरम किवारी हो ।
सब घट दीसै आतमा, सब ही सूँ न्यारी हो ।।
दीपक जोऊँ ज्ञान का, चढ़ँन्न् अगम अटारी हो ।
‘मीराँ’ दासी राम की, इमरत बलिहारी हो ।।

अर्थ-मुझे राम की मादकता लग गई है।। रिमझिम मेघ बरसता है और सारा शरीर भींजता है अर्थात् ध्यान के अन्तर-साधन में अन्तराकाश के अन्दर चेतन-ज्योति की झड़ी लगी हुई है, जिसके असर से सारा शरीर सराबोर है। चारो ओर बिजली चमक रही है और मेघ का भारी गर्जन हो रहा है। मतलब यह कि दृष्टियोग व शब्द-योग के साधन से अंदर में उपर्युक्त अनुभूतियाँ हो रही हैं।। इसका भेद सद्गुरु ने बताया है, जिसके साधनाभ्यास से माया का किवाड़ जो बन्द था, वह खुल गया। सब शरीरों में सब मायिक तत्त्वों से भिन्न आत्म-तत्त्व का दर्शन हो रहा है।। ज्ञान का दीपक देख रही हूँ और अगम अटारी चढ़ रही हूँ। राम की दासी मीरा कहती है कि इस अगम अटारी में के अमृत की बलिहारी है।
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।। मूल पद्य ।।

ऊँची अटरिया लाल किवड़िया, निरगुण सेज बिछी ।।
पचरंगी झालर शुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजूबन्द कड़न्न्ला सोहै, मांग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, शोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणाँ ‘मीरा’ सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।

अर्थ-(‘ब्रह्माण्डलक्षणं सर्वदेहमध्ये व्यवस्थितम्।’)
-ज्ञानसंकलिनी तंत्र
अर्थात् देह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है। ‘जो पिण्डे सो ब्रह्माण्डे।’
‘बूँद समानी समुँद में, यह जाने सब कोय ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।’
-कबीर साहब
‘सागर महिं बूँद, बूँद महि सागरु,
कवणु बुझै विधि जाणै।’
-गुरु नानकदेव

पिण्ड और ब्रह्माण्ड के प्रसाद की छत के ऊपर की अटारी या ऊँचे भवन में लाल किवाड़ी अर्थात् ज्योतिर्मय आवरण लगा है। उसमें पाँच तत्त्वों के पीले, नीले, उजले, काले और लाल रंग के झालर-युक्त परदे लगे हुए हैं, जो शुभ और शोभित हैं और फूलों की कलियाँ खिल गई हैं अर्थात् अन्दर दिव्य मंडल खुल गये हैं और उस अटारी के अंदर निर्गुण सेज अर्थात् शान्ति-सुखदायक निर्गुण तत्त्व विद्यमान है।।

[हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।15।।
-ईशावास्योपनिषद्

अर्थात् आदित्य-मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।।15।।]

मन-भुजा पर दम-रूपी कड़ा और शम-रूपी बाजूबंद शोभा पा रहे हैं तथा मूर्द्धा में ज्योति का लाल सिन्दूर विकसित है।। आरती उतारने के लिए सुमिरण का थाल मन-रूप भुजा के हाथ में ले लिया है।

[जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं ।
कबीर जाने भक्त जन, सुमिरन सम कछु नाहिं ।।
सुमिरन सुरत लगाय के, मुख थैं कछू न बोल ।
बाहर के पट देइ के, अन्तर के पट खोल ।।
-संत कबीर साहब]

यह बहुत अच्छी शोभा हो रही है। सुषुम्ना की सेज पर मीरा चैन पा रही है, आज का समय बहुत शुभ है।।
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।। मूल पद्य ।।

फागण के दिन चार, होरी खेल मना रे ।।
बिन करताल पखावज बाजै, अनहद की झनकार रे ।।
बिन सुर राग छतीसूँ गावै, रोम-रोम रणकार रे ।।
सील संतोष की केसर घोली, प्रेम प्रीत पिचकार रे ।।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घट के सब पट खोल दिये हैं, लोक लाज सब डार रे ।।
होरी खेल पीव घर आये, सोई प्यारी पिय प्यार रे ।।
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे ।।

अर्थ-अच्छे दिन बहुत अल्प होते हैं, इसलिए रे मन! जीवन-रूपी होली पर्व में तू प्रसन्नता मनाओ।। बिना हाथ के पखावज बजता है और अनहद शब्द की झनकार होती है। बिना लय और स्वर के छत्तीसों राग गाता है और रोम-रोम में वह शब्द गूँजता है।। शील अर्थात् सचाई और नम्रता के साथ व्यवहार और संतोष की केशर घोलकर प्रेम-प्रीति की पिचकारी बना ले।। गुलाल के उड़ने से आकाश लाल* हो गया और अनेक प्रकार के रंग बरसते हैं।। सभी लोक-लज्जा को फेंककर घट के सभी आवरण (स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि) खोल दिये हैं।। (इस तरह) होली खेलकर (जो) पीव-परमात्मा के घर जाते हैं, वही जीव-रूप स्त्री परमात्म-रूप पति से प्यार की जाती है।। मीराबाई कहती हैं कि मेरे सर्वश्रेष्ठ प्रभु तो कृष्ण-परमात्मा हैं, उनके चरणकमल में मैं अपने को न्योछावर करती हूँ।।

[* साधक को अन्तराकाश में कई प्रकार के रंगों की ज्योतियाँ दरसती हैं।
स्याही सुरख सफेदी होई। जरद जाति जंगाली सोई।।-संत तुलसी साहब
इसी सुरख-लाल ज्योति को देखकर मीराजी कहती हैं कि आकाश लाल हो गया है, मानो गुलाल या अबीर उड़ रहा हो।]



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।। मूल पद्य ।।

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलूँ कैसे जाय ।।
ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय ।।
सोच-सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय ।।
ऊँचा नीचा महल पिया का, म्हाँसूँ चढ्यो न जाय ।।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय।।
कोस-कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड-पैंड बटमार।।
हे विधना कैसी रच दीनी, दूर बसायो म्हारो गाँव।।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, सतगुरु दई बताय।।
जुगन-जुगन की बिछड़ी मीरा, घर में लीनी लाय।।

अर्थ-परम भक्तिन मीराबाईजी कहती हैं कि मेरी चारों गलियाँ* बंद हो गईं, मैं परम प्रभु परमात्मा से जाकर कैसे मिलूँगी? उस प्रभु के पास जाने की राह ऊँची-नीची और फिसलनेवाली है, जिसपर सुरत-रूपी पाँव स्थिर नहीं हो पाता।। सोच-विचारकर यत्नपूर्वक पैर (सुरत) रखती हूँ; किन्तु बारंबार पिछड़ जाता है-स्थिर नहीं रह पाता।। सब ऊँचा-नीचा सर्वव्यापक प्रभु का महल है, मुझसे चढ़ा नहीं जाता है। प्रभु सुदूर हैं, रास्ता सूक्ष्म है और हमारी सुरत डगमगाती है।। उस मार्ग के स्थान-स्थान पर ऋद्धि-सिद्धि-रूप रोकनेवाला और पद-पद पर षट् विकार बटमार हैं। हे विधाता! तूने कैसी रचना की है कि मेरे निवास-स्थान को दूर में बसाया है।। मीराबाई कहती हैं कि मेरे गिरिधर नागर को सद्गुरु ने मुझे बता दिया, जिससे युगों की बिछड़ी हुई मीरा ने अपने को शरीर-गृह में लाकर प्रभु को प्राप्त किया।।


[* स्थूल भौतिक जगत् से सूक्ष्म भौतिक जगत्-जिसमें जुगनू, दीपक, तारे और चन्द्रादि का प्रकाश है, में जाने की पहली गली है। सूक्ष्म भौतिक जगत् के रात्रि-प्रकाश-से सूक्ष्म तथा कारण भौतिक जगत् के दिन के प्रकाश में जाने की दूसरी गली है। उक्त दिन के प्रकाश से महाकारण और चिन्मय जगत् (अभौतिक आत्म-ज्योति-सह अन्तर्नाद) में प्रवेश करने की तीसरी गली है और उस अन्तर्नाद से अनाहत ध्वन्यात्मक आदिनाद ग्रहण करने की चौथी गली है अर्थात् चिन्मय पद से सत्शब्द के द्वारा उस पद को पार कर शब्दातीत (अनाम) पद में लीन होने की गली को चौथी गली कहते हैं।]

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।। परम भक्तिन मीराबाईजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय

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