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30. गुरु तेगबहादुरजी की वाणी

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।। मूल पद्य ।।

जो नर दुःख में दुःख नहिं मानै।
सुख सनेहु अरु भय नहिं जाकै, कंचन माटी जानै ।।
नहिं निंदिया नहिं उसतति जाकै, लोभु मोहु अभिमाना ।
हरष सोग ते रहै निआरउ, नाहिं मान अपमाना ।।
आसा मनसा सकल तिआगै, जग ते रहै निरासा ।
काम क्रोध जिन्ह परसै नाहिन, तिह घट ब्रह्म निवासा ।।
गुर कृपा जिउ नर कउ कीनी, तिह इह जुगति पछानी ।
नानक लीन भइयो गोविन्द सिउ, जिअ पानी सँगि पानी ।।

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।। गुरु तेगबहादुरजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।

जो नर दुःख में दुःख नहिं मानै।
सुख सनेहु अरु भय नहिं जाकै, कंचन माटी जानै ।।
नहिं निंदिया नहिं उसतति जाकै, लोभु मोहु अभिमाना ।
हरष सोग ते रहै निआरउ, नाहिं मान अपमाना ।।
आसा मनसा सकल तिआगै, जग ते रहै निरासा ।
काम क्रोध जिन्ह परसै नाहिन, तिह घट ब्रह्म निवासा ।।
गुर कृपा जिउ नर कउ कीनी, तिह इह जुगति पछानी ।
नानक लीन भइयो गोविन्द सिउ, जिअ पानी सँगि पानी ।।

अर्थ-जो मनुष्य दुःख में दुःख नहीं मानता है, सुख, प्रीति और डर जिसको नहीं है, जो सोने को मिट्टी जानता है, जो निन्दा और स्तुति से परे है, जिसको लोभ, मोह और अभिमान नहीं है, जो हर्ष-शोक से न्यारा है, जिसको मान और अपमान नहीं है, जो सब आशा और इच्छा का त्यागी है और संसार में आशा-रहित रहता है, जिसको काम-क्रोध नहीं छूते हैं, उसी के घट में ब्रह्म के वास की प्रत्यक्षता होती है।। जिस मनुष्य पर गुरु ने कृपा की है, वही इस युक्ति को पहचानता है। वह ईश्वर में लीन हो जाता है, जैसे पानी में पानी-यह गुरु नानकदेवजी कहते हैं।
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।। गुरु तेगबहादुरजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय

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