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।। मूल पद्य ।।
रे भाई! गैबी मरद सो न्यारे, वे ही अल्ला के प्यारे ।।
देहरा तुटेगा मशीदी फुटेगा, लुटेगा सब हय सो ।
लुटत नहीं फुटत नहीं, गैबी सो कैसो रे भाई ।।
हिन्दू मुसलमान महज्यब चले, येक सिरजन हारा ।
साहब आलम कूँ चलावे, सो आलम थीं न्यारा ।।
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।। समर्थ स्वामी रामदासजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।
रे भाई! गैबी मरद सो न्यारे, वे ही अल्ला के प्यारे ।।
देहरा तुटेगा मशीदी फुटेगा, लुटेगा सब हय सो ।
लुटत नहीं फुटत नहीं, गैबी सो कैसो रे भाई ।।
हिन्दू मुसलमान महज्यब चले, येक सिरजन हारा ।
साहब आलम कूँ चलावे, सो आलम थीं न्यारा ।।
अर्थ-अरे भाई! गैबी-अज्ञात-अव्यक्त पुरुष जो है, सो अनोखा वा विलक्षण है। हे ईश्वर के प्यारे भक्त! वे ही अर्थात् गैबी पुरुष ही स्थिर हैं। देव-मन्दिर और मस्जिद टूटेंगे-फूटेंगे। जो सब हैं, सब लुट जायँगे। जो लुटता नहीं-फूटता नहीं, सो गैबी पुरुष कैसा है? हिन्दू और मुसलमान के मजहब अलग-अलग चल पड़े हैं। परन्तु यह सिरजनहार ईश्वर गैबी पुरुष एक है, जो समस्त संसार को चलाता है, सो संसार से न्यारा है।।
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।। समर्थ स्वामी रामदासजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय
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