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20. सन्त मलूक दासजी की वाणी

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।। मूल पद्य ।।

तेरा मैं दीदार दीवाना।
घड़ी-घड़ी तुझे देखा चाहूँ, सुन साहेब रहमाना ।।
हुआ अलमस्त खबर नहिं तन की, पीया प्रेम पियाला ।
ठाढ़ होऊँ तो गिर गिर पड़ता, तेरे रंग मतवाला ।।
खड़ा रहूँ दरवार तिहारे, ज्यों घर का बन्दाजादा ।
नेकी की कुलाह सिर दीये, गले पैरहन साजा।।
तौजी और निमाज न जानूँ, ना जानूँ धरि रोजा।
बाँग जिकर तब ही से बिसरी, जब से यह दिल खोजा।।
कहै मलूक अब कजा न करिहौं, दिल ही सों दिल लाया।
मक्का हज्ज हिये मैं देखा, पूरा मुरशिद पाया।।

शब्दार्थ-दीदार=दर्शन। दीवाना=पागल। रहमाना=दयालु। अलमस्त=मतवाला। घर का बन्दाजादा=खानाजाद गुलाम अर्थात् खरीदे हुए सेवक का पुत्र, जो मालिक के घर में जन्म लेता है। नेकी=भलाई। कुलाह=टोपी। पैरहन=एक प्रकार का कुरता, जो गले से लेकर पैर तक रहता है। साजा=पोशाक। तौजी=वारी। रोजा=व्रत, उपवास, महीने भर का वह उपवास, जिसको मुसलमान लोग रमजान के महीने में करते हैं। बाँग=अजान, वह ऊँचा शब्द या कुरान का मन्त्रेच्चारण, जो नमाज का समय बताने के लिए मुल्ला मस्जिद में करते हैं। जिकर=जप। कजा=त्रुटि। हज्ज=हज, मुसलमानों का काबे के दर्शन के लिए मक्का जाना। मुरशिद=गुरु।

पद्यार्थ-तुम्हारे दर्शन के लिए मैं पागल हूँ। हे दयालु प्रभु! सुनो, मैं तुम्हें क्षण-क्षण देखना चाहता हूँ।। तुम्हारे प्रेम का प्याला पान कर मैं मतवाला हो गया हूँ-अपने शरीर की सुधि नहीं है। तुम्हारे प्रेम-रंग में मैं इस भाँति मस्त हो गया हूँ कि खड़ा होता हूँ, तो गिर-गिर पड़ता हूँ।। भलाई की टोपी सिर पर देकर और गले से लेकर पैर तक पहरावा पहनकर मैं तुम्हारे दरवाजे पर खानाजाद गुलाम (घर में उत्पन्न सेवक) की तरह खड़ा रहता हूँ।। मैं तौजी और नमाज नहीं जानता अर्थात् नमाज के समयों पर नमाज पढ़ना नहीं जानता और न मैं रोजा रखता हूँ। मैंने जबसे इस दिल की खोज की है, तबसे अजान देना और जप करना भी भूल गया हूँ।। बाबा मलूक दासजी कहते हैं कि अब मैं त्रुटि नहीं करूँगा; क्योंकि मैंने दिल से दिल लगा दिया है अर्थात् तन-मन को निज-मन में लगा दिया है। मैंने पूरे गुरु को प्राप्त कर मक्का और हज को अपने अन्दर देखा।।
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।। मूल पद्य ।। 

अब मैं अनुभव पदहि समाना ।
सब देवन को भर्म भुलाना, अविगति हाथ बिकाना ।।
पहला पद है देई-देवा, दूजा नेम-अचारा ।
तीजे पद में सब जग बंधा, चौथा अपरम्पारा ।।
सुन्न महल में महल हमारा, निरगुण सेज बिछाई ।
चेला गुरु दोउ सैन करत है, बड़ी असाइस पाई ।।
एक कहे चल तीरथ जइये, (एक) ठाकुर द्वार बतावै ।
परम जोति के देखे सन्तो, अब कछु नजर न आवै ।।
आवागमन का संशय छूटा, काटी जम की फाँसी ।
कह मलूक मैं यही जानि के, मित्र कियो अविनासी ।।

अर्थ-अब मैं (परम समाधि में प्राप्त) अनुभवपद-शुद्धात्म-पद में लीन हो गया-समा गया। भ्रमित बुद्धि में सब देव-ज्ञान को पकड़े था, उसको अब भूल गया और सर्वव्यापी परमात्मा पर अपने को न्योछावर कर दिया।। पहला पद देवी-देवताओं का है और दूसरा पद नेम-आचार का। तीसरा पद संसारासक्ति का है, जिसमें सभी सांसारिक लोग बँधे हुए हैं और चौथा पद अनादि-अनंत परमात्मा का स्वरूप है।। शून्य महल में मेरा घर है, उसमें निर्गुण सेज बिछी हुई है, जिसमें गुरु और चेले दोनों बहुत आराम पाकर सोते हैं।। कोई तीर्थ जाने के लिए कहते हैं, कोई ठाकुरद्वारा जाने के लिए बताते हैं। हे संतो! परम ज्योति का दर्शन पाकर अब कुछ नजर में नहीं आता।। आवागमन का संशय छूट गया और यम की फाँसी काट दी। संत मलूक दासजी कहते हैं कि यही जानकर मैंने अविनाशी को मित्र बनाया।।
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।। मूल पद्य ।।

रस रे निर्गुन राग से, गावै कोइ जाग्रत जोगी ।
अलग रहै संसार से, सो इस रस का भोगी ।।1।।
भरम करम सब छाँड़, अनूठा यह मत पूरा ।
सहजै धुन लागी रहै, बाजे अनहद तूरा ।।2।।
लहरैं उठती ज्ञान की, बरसैं रिमझिम मोती ।
गगन-गुफा में बैठ कै, देखै जगमग जोती ।।3।।
शिव नगरी आसन किया, सुन ध्यान लगाया ।
तीनों दसा विसार के, चौथा पद पाया ।।4।।
अनुभव उपजा भय गया, हद तज बेहद लागा ।
घट उँजियारा होइ रहा, जब आतम जागा ।।5।।
सब रंग खेलै सम रहै, दुविधा मनहिं न आनै ।
कह मूलक सोई रावला, मेरे मन मानै ।।6।।

पद्यार्थ-वाह रे रस! जिसको कोई जगा हुआ योगी (तुरीयावस्था में स्थित योगी) प्राप्त करता है अर्थात् जिसको निर्गुण नाद के ध्यान में मग्न रहनेवाला योगी प्राप्त करता है। जो इस संसार से अलग रहता है, सो इस रस का भोगी होता है।।1।। संसार में भरमानेवाले सब कर्मों को छोड़कर स्वाभाविक बजनेवाली अनहद ध्वनि की तुरही के ध्यान में वह योगी लगा रहता है, उसका मत अपूर्व और पूर्ण है।।2।। वह आज्ञाचक्र में जगमग ज्योति और मोती की रिमझिम वर्षा देखता है और उसके अन्दर ज्ञान की लहरें उठती हैं।।3।। उसने शिवनेत्र में अपनी स्थिरता कर ली और शून्य में ध्यान लगा लिया। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं की दशा भूलकर चौथी अवस्था तुरीय पद उसने प्राप्त किया।।4।। उसको अनुभव ज्ञान प्राप्त हो गया, उसका भव-डर मिट गया। वह ससीमता की सीमा छोड़कर असीम में लग गया। जब उसे आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, उसका घट प्रकाश से पूर्ण हो गया।।5।। वह योगी संसार के सब कर्तव्यों को करते रहकर समत्व में रहता है। वह द्वैत भाव मन में नहीं लाता है। संत मूलक दासजी कहते हैं कि वह राजा या श्रेष्ठ पुरुष है, मेरा मन ऐसा मानता है अथवा मेरे मन में वह पसन्द आता है।।6।।
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  ।। सन्त मूलक दासजी की वाणी समाप्त ।।
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सरलार्थ/व्याख्या

परिचय

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