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।। मूल पद्य ।।
भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने, तनु मनु धनु नहिं धीरे ।
लालच बिषु काम लुबधे राता, मनि विसरे प्रभ हीरे ।।रहाउ।।
विषु फल मीठ लगे मन बहुरे, चार विचार न जानिआ ।
गुन तें प्रीति बढ़ी अनभाँती, जनम मरन फिरि तानिआ ।।1।।
जुगति जानि नहिं रिदै निवासी, जलत जाल जमफंध परे ।
विषु फल संचि भरे मन ऐसे, परम पुरुष प्रभ मन विसरे ।।2।।
गिआन प्रवेश गुरुहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एक मये ।
प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ, त्रिपति अघाने मुकति भये ।।3।।
जोति समाए समानी जाकै, अछली प्रभु पहचानिआ ।
धन्ने धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जनु सन्त समानिआ ।।4।।
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।। सन्त धन्ना भगतजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।
भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने, तनु मनु धनु नहिं धीरे ।
लालच बिषु काम लुबधे राता, मनि विसरे प्रभ हीरे ।।रहाउ।।
विषु फल मीठ लगे मन बहुरे, चार विचार न जानिआ ।
गुन तें प्रीति बढ़ी अनभाँती, जनम मरन फिरि तानिआ ।।1।।
जुगति जानि नहिं रिदै निवासी, जलत जाल जमफंध परे ।
विषु फल संचि भरे मन ऐसे, परम पुरुष प्रभ मन विसरे ।।2।।
गिआन प्रवेश गुरुहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एक मये ।
प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ, त्रिपति अघाने मुकति भये ।।3।।
जोति समाए समानी जाकै, अछली प्रभु पहचानिआ ।
धन्ने धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जनु सन्त समानिआ ।।4।।
अर्थ-चौरासी लाख योनियों में घूमते-फिरते बहुत जन्म बीत गए; तन, मन, धन स्थिर नहीं है। लालच के विष से काम में लोभित हो विषयों में रत हो गया और मन से परमात्म-रूप हीरे को भूल गया।। पागल मन को विषय-विष का फल मीठा लगता है, वह आचार-विचार नहीं जानता। त्रिगुण (रज, सत्त्व और तम) से बेतरह प्रेम बढ़ गया। फलस्वरूप पुनः जन्म-मरण के ताने-बाने में अर्थात् आवागमन के चक्र में पड़ गया।।1।। हृदय-निवासी परमात्मा की प्राप्ति की युक्ति नहीं जानने के कारण यम-जाल के फन्दे में फँसकर जलते हैं-दुःखी होते हैं। इस प्रकार मन विषय-रूप विष-फल को इकट्ठा कर अपने को भर लेता है और परम पुरुष परमात्मा को भूल जाता है।।2।। गुरु ने ज्ञान-रूप धन को (हृदय में) प्रविष्ट करा दिया, जिसके द्वारा ध्यान करने से मानो मन एक में लय हो गया। प्रेम-भक्ति का सुख जानकर मन मान गया, तृप्ति हुई, सन्तुष्टि हुई और आवागमन के चक्र से वा शरीर और संसार के बंधन से मुक्त हो गया।।3।। जिसकी सुरत ज्योति में समाकर (शब्द में) समा गई, उसने असली प्रभु को पहचान लिया। सन्त धन्ना भगतजी कहते हैं कि सन्त के समान जन से मिलकर धरणीधर परमात्म-रूप धन को प्राप्त किया।।4।।
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।। सन्त धन्ना भगतजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय
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