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।। मूल पद्य ।।
सुरति सिरोमनि घाट, गुमठ मठ मृदंग बजै रे ।।टेक।।
किंगरी बीन संख सैनाई, बंकनाल की बाट ।
चितवत चाट खाट पर जागी, सोवत कपट कपाट ।।1।।
मुरली मधुर झाँझ झनकारी, रँभा नचत बैराट ।
उड़त गुलाल ज्ञान गुन गाँठी, भर-भर रंग रस माट ।।2।।
गाई गैल सैल अनहद की, उठै तान सुर ठाट ।
लगन लगाइ जाइ सोइ समझी, सुरत सैल नभ फाट ।।3।।
तुलसी निरख नैन दिन राती, पल-पल पहरौ आठ ।
यहि विधि सैल करै निस वासर, रोज तीन सै साठ ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
अजब अनार दो बहिश्त के द्वार पै ।
लखै दुरवेश कोई फकीर प्यारा ।।1।।
ऐनि के अधर दो चश्म के बीच में ।
खसम को खोज जहाँ झलक तारो ।।2।।
उसी बीच फक्त खुद खुदा का तख्त है ।
सिश्त से देख जहाँ भिस्त सारा ।।3।।
तुलसी सत मत मुरशिद के हाथ है ।
मुरीद दिलरूह दोजख न्यारा ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
आरति संग सतगुरु के कीजै। अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई। दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन थाल रवि ससि फल फूला। मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल। पोहप माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई। चन्दन धूप दीप सब चीजै ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मजीरा। मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा। मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निरमल जोत जरत घट माँही। देखत दृष्टि दोष सभ छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै। सत-मत द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली। चढ़ि-चढ़ि उमगि अमी रस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली। अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै। गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरुधामा। उलटि अलल तुलसी तन तीजै ।।13।।
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।। मूल पद्य ।।
पैठ मन पैठ दरियाव दर आप में, कँवल बीच झाज में कमठ राजै।
होत जहाँ सोर घनघोर घट में लखै, निरख मन मौज अनहद बाजै।।
गगन की गिरा पर सुरत से सैल कर, चढ़ै तिल तोड़ घर अगम साजै।
दास तुलसी कहै पछिम के द्वार पर, साहिब घर अद्भुत विराजै।।
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।। मूल पद्य ।।
स्त्रुति चढ़ि गई अकाश में, सोर भया ब्रह्मण्ड ।।
सोर भया ब्रह्मण्ड, अण्ड में धधक चढ़ाई ।
जब फूटा असमान, गगन में सहज समाई ।।
सुन्न सहर के बीच, ब्रह्म से भया मिलापा ।
परमातम पद लेख, देख कर भया हुलासा ।।
तुलसी गति मति लखि पड़ी, निरखि लखा सब अण्ड ।
स्त्रुति चढ़ि गई अकाश में, सोर भया ब्रह्मण्ड ।।
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।। संत तुलसी साहब की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।
सुरति सिरोमनि घाट, गुमठ मठ मृदंग बजै रे ।।टेक।।
किंगरी बीन संख सैनाई, बंकनाल की बाट ।
चितवत चाट खाट पर जागी, सोवत कपट कपाट ।।1।।
मुरली मधुर झाँझ झनकारी, रँभा नचत बैराट ।
उड़त गुलाल ज्ञान गुन गाँठी, भर-भर रंग रस माट ।।2।।
गाई गैल सैल अनहद की, उठै तान सुर ठाट ।
लगन लगाइ जाइ सोइ समझी, सुरत सैल नभ फाट ।।3।।
तुलसी निरख नैन दिन राती, पल-पल पहरौ आठ ।
यहि विधि सैल करै निस वासर, रोज तीन सै साठ ।।4।।
भावार्थ-पिण्ड में सुरत का सबसे उत्तम घाट (षट्चक्र या आज्ञा-चक्र के केन्द्र-विन्दु) के मठ की गुमटी में अनहद नाद का मृदंग बजता है।। इसके आगे बंकनाल वा पतले नल जिसके अंदर के मार्ग पर कठिनाई से चला जा सके, में मजीरा, बीन, शंख और शहनाई बजती है। जिसको दृष्टियोग द्वारा देखने का चस्का लग गया है, वह खटिये पर सोया हुआ-सा प्रतीत होता है; परन्तु जगता रहता है।।1।। वह मुरली की मधुर ध्वनि, झाँझ की झनकार और विश्व-विराट् रूप रंभा अप्सरा का नाच देखता है अर्थात् विश्व विराट् की गति और गति-ध्वनि देखता और सुनता है। उसकी गाँठ से ज्ञान-गुण का गुलाल उड़ता है अर्थात् उसके द्वारा ज्ञान का प्रचार होता रहता है और उसके सब रंग-रूप माटें ज्ञान-रंग के रस से भरे रहते हैं।।2।। यह मैंने अनहद में यात्र करके वर्णन किया है। वहाँ अनेक ध्वनियाँ उठती रहती हैं। जिसने इस साधन में मन लगाया है और जो सुरत से यात्र करके एक प्रकार के आकाश से दूसरे प्रकार के आकाश में चलकर गया है, उसी ने इसको समझा है।।3।। तुलसी साहब कहते हैं कि पल-पल, आठो पहर, दिन-रात आँख से निरखो (देखो) अर्थात् दृष्टि-साधन करो और इसी तरह से दिन-रात, सब दिन यात्र करते रहो।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
अजब अनार दो बहिश्त के द्वार पै ।
लखै दुरवेश कोई फकीर प्यारा ।।1।।
ऐनि के अधर दो चश्म के बीच में ।
खसम को खोज जहाँ झलक तारो ।।2।।
उसी बीच फक्त खुद खुदा का तख्त है ।
सिश्त से देख जहाँ भिस्त सारा ।।3।।
तुलसी सत मत मुरशिद के हाथ है ।
मुरीद दिलरूह दोजख न्यारा ।।4।।
भावार्थ-स्वर्ग के द्वार पर आश्चर्यमय दो अनार लटकते हैं, जिसको साधु का प्यारा कोई साधक देखते हैं।।1।। आँख के शून्य में दोनों आँखों के बीच के अन्दर प्रभु को खोजो, जहाँ तारा झलकता है।।2।। केवल उसी के अन्दर स्वयं प्रभु का सिंहासन है। शिस्त करके देखो, जहाँ असली स्वर्ग है।।3।। तुलसी साहब कहते हैं कि सत्य और निश्चित सिद्धांत गुरु के हाथ में है। जो मन और सुरत से चेला# बनता है, वह नरक से न्यारा हो जाता है।।4।।
[# मन से गुरु-आज्ञा में बरतना और बहिर्मुख से अन्तर्मुख होने का ठीक-ठीक अभ्यास करके सुरत-शब्द अभ्यास में संलग्न हो जाना-सुरत से चेला बनना है। ‘सुरत शिष्य सबदा गुरु मिलि मारग जाना हो।’]
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।। मूल पद्य ।।
आरति संग सतगुरु के कीजै। अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई। दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन थाल रवि ससि फल फूला। मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल। पोहप माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई। चन्दन धूप दीप सब चीजै ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मजीरा। मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा। मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निरमल जोत जरत घट माँही। देखत दृष्टि दोष सभ छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै। सत-मत द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली। चढ़ि-चढ़ि उमगि अमी रस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली। अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै। गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरुधामा। उलटि अलल तुलसी तन तीजै ।।13।।
भावार्थ-सद्गुरु के संग प्रभु परमात्मा की आरती कीजिए और अन्तर में ज्योति होती है, उसे देख लीजिए।।1।। तन के पाँच तत्त्वों की अग्नि को जला, दीपक बालकर प्रकाश कर लीजिए। इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान-अभ्यास करके पाँच तत्त्वों के भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाशों* को देखिए और इसके अनन्तर दीपक-टेम की ज्योति का भी दर्शन कीजिए।।2।। #शून्य के थाल में सूर्य* और चन्द्र* फल-फूल हैं और इस पूजा के मूल या आरम्भ में कपूर अर्थात् श्वेत ज्योति-विन्दु का कलश-स्थापन कीजिए।।3।। अन्तराकाश में दर्शित सब तारे* रूप मोतियों* का अच्छत (अरवा चावल, जिसका नैवेद्य पूजा में चढ़ाते हैं।) और ऊपर-कथित फूलों का हार गूँथकर हृदय में पहन लीजिए अर्थात् अपने अन्दर में उन फूलों का सप्रेम दर्शन कीजिए।।4।। पान, मिठाई, मिष्टान्न, चन्दन, धूप और दीप; सब-के-सब उजले यानी प्रकाश हैं।।5।। झलक अर्थात् प्रकाश में झाँझ, मजीरे और मृदंग की मीठी ध्वनियों को मीन-मन से अर्थात् भाठे से सिरे1 की ओर चढ़नेवाले मन से सुनिए।।6।। शरीर में बिखरी हुई सुरत की सब धार-रूप सुगन्ध आकाश में उठती हुई चलती है और उस मण्डल में वह भ्रमर-सदृश खेलती हुई अनहद ध्वनि से संतुष्ट होती है।।7।। शरीर के अन्दर पवित्र ज्योति जलती है। दृष्टि से दर्शन होते ही सब दोष नाश को प्राप्त होते हैं।।8।। अधर (आकाश) की धारा में अमृत बहकर आता है, उस धारा में सत्य-धर्म के द्वार पर आरती करनेवाला अभ्यासी अमर-रस में भींजता है।।9।। उस अमर-रस को पीकर सुरत मस्त होती है और विशेष-से-विशेष ऊपर चढ़ाई करके और उल्लसित होकर अमृत-रस में रीझती है।।10।। करोड़ों सूर्य के सदृश प्रकाशमान सौन्दर्य प्रकाशित है, अलख के2 पार3 लखकर संबंध लगा लीजिए।।11।। सुरत को क्षण-क्षण अधर पर रखे, तो गुरु-प्रसाद से अगम रस पीवै।।12।। तुलसी साहब कहते हैं कि गुरु-धाम (परम पुरुष-पद) चमकता हुआ ध्वनित होता है। हे सुरत! तू अलल पक्षी4 की भाँति उलटकर अर्थात् बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर तीनों शरीरों को छोड़ दे।।13।।
[* आदौ तारकवद्दृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत् उपरि पूर्णचन्द्र मण्डलम्। ततो नवरत्नप्रभामण्डलम्। ततो मध्याह्नार्क मण्डलम्। ततो वह्निशिखामण्डलम् क्रमाद्दृश्यते। तदा पश्चिमाभिमुख प्रकाशः स्फटिक धूम्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। -मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, ब्राह्मण-2
# मन इस्थिर अस अमी अघाना। तत्त पाँच रंग बिधी बखाना।।
स्याही सुरख सफेदी होई। जरद जाति जंगाली सोई।। -घटरामायण
‘जैसे मन्दिर दीपक बारा। ऐसे ज्योति होत उजियारा।।’-घटरामायण
1- नीचे से ऊपर-स्थूल से सूक्ष्म।
2- सारशब्द
3- शब्दातीत
4- जस अलल अण्ड अकार डारै, उलटि घर अपने गई।
यहि भाँति सतगुरु साथ भेटै, कर अली आनन्द लई।। -घटरामायण
अलल चिड़िया आकाश में रहती है। वह घोंसला नहीं बनाती है। आकाश में ही अण्डा छोड़ती है। आकाश से नीचे गिरते-गिरते अण्डा फूटता है और बच्चा हो जाता है। उसमें पर जम जाता है और उसकी आँखें भी खुल जाती हैं। जमीन के नजदीक आते-आते उसे ज्ञान होता है कि यह मेरे रहने का स्थान नहीं है। वह लौटकर अपनी माता के पास चला जाता है। -अनुराग-सागर, कबीर-पंथ का एक ग्रन्थ।]
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।। मूल पद्य ।।
पैठ मन पैठ दरियाव दर आप में, कँवल बीच झाज में कमठ राजै।
होत जहाँ सोर घनघोर घट में लखै, निरख मन मौज अनहद बाजै।।
गगन की गिरा पर सुरत से सैल कर, चढ़ै तिल तोड़ घर अगम साजै।
दास तुलसी कहै पछिम के द्वार पर, साहिब घर अद्भुत विराजै।।
अर्थ-अपने शरीर-रूप-समुद्र के अन्दर अरे मन! प्रवेश कर, प्रवेश कर। कमल के बीच जहाज में कछुआ* शोभता है अर्थात् जिस भाँति कच्छप अपनी सर्वेन्द्रियों को अपने में प्रविष्ट कर रहता है, उसी भाँति जो साधक अपनी सर्वेन्द्रियगत चेतन-धारों को अपने अन्दर संयमित कर-समेटकर रख सकता है, वह आज्ञा-कमल के केन्द्र-विन्दु-रूप जहाज में शोभा पाता है। अपने शरीर के अन्दर जहाँ घनघोर ध्वनि होती है, वहाँ लखै अर्थात् देखे तथा उसे देख और अनहद ध्वनि को सुनकर मन में आनन्दित हो।। अन्तराकाश के शब्द पर सुरत से यात्र करे और अन्धकार के तिल को तोड़कर अगम घर अर्थात् परमात्म-धाम की तैयारी करे। सन्त तुलसी साहब कहते हैं कि पश्चिम के द्वार पर अर्थात् प्रकाश# मण्डल से ऊपर आरोहण के द्वार पर परम प्रभु का आश्चर्यमय मन्दिर शोभा पाता है।
[* यदा संहरते चायं कूर्मोऽघ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिताः।। -गीता, 2।58
अर्थात् कछुआ जैसे सब ओर से अंग समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई है-ऐसा कहा जाता है।]
[# हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।15।। -ईशावास्योपनिषद्
अर्थात् आदित्य-मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषण! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।।15।।]
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।। मूल पद्य ।।
स्त्रुति चढ़ि गई अकाश में, सोर भया ब्रह्मण्ड ।।
सोर भया ब्रह्मण्ड, अण्ड में धधक चढ़ाई ।
जब फूटा असमान, गगन में सहज समाई ।।
सुन्न सहर के बीच, ब्रह्म से भया मिलापा ।
परमातम पद लेख, देख कर भया हुलासा ।।
तुलसी गति मति लखि पड़ी, निरखि लखा सब अण्ड ।
स्त्रुति चढ़ि गई अकाश में, सोर भया ब्रह्मण्ड ।।
शब्दार्थ-सुन्न सहर=शून्य शहर, भौतिक तत्त्वों से रहित मण्डल। लेख=देव।
अर्थ-ध्यान-साधना के द्वारा जीवात्मा वा सुरत आकाश में चढ़ गई और ब्रह्माण्ड में जोर की आवाज हुई। तात्पर्य यह कि सुरत की पिण्ड से ब्रह्माण्ड में चढ़ाई होने पर अनहद ध्वनि की अनुभूति हुई।। ब्रह्माण्ड में अग्नि की लपट की भाँति सुरत ऊपर चढ़ी और वहाँ (ब्रह्माण्ड में) गम्भीर नाद सुन पड़ा। नयनाकाश-स्थित प्रथम अन्ध- कार-आकाश के फूटते ही स्वाभाविक दूसरे आकाश-प्रकाश में सुरत समा गई।। शून्य शहर के बीच में ब्रह्म-साक्षात्कार हुआ। परमात्म-पद के देव को देखकर प्रसन्नता हुई।। तुलसी साहब कहते हैं कि जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखा, तो बुद्धि की चाल देखने में आई। सुरत आकाश में चढ़ गई और ब्रह्माण्ड में जोर की आवाज हुई।।
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।। संत तुलसी साहब की वाणी समाप्त ।।
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परिचय
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