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16. सन्त सूरदासजी की वाणी 

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।। मूल पद्य ।।

अपने जान मैं बहुत करी।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी समुझी न परी ।।
दूरि गयो दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी ।
मनसा वाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
गुण बिनु गुणी स्वरूप रूप बिनु, नाम लेत श्री श्याम हरी ।
कृपासिन्धु अपराध अपरमित, क्षमो ‘सूर’ तें सब बिगड़ी ।।

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।। मूल पद्य ।।

ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर पफ़ूलै पफ़लै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई।।

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।। मूल पद्य ।।

जो मन कबहुँक हरि को जाँचै।
आन प्रसंग उपासना छाड़ै मन बच क्रम अपने उर साँचै ।।
निशदिन श्याम सुमिरि यश गावै कल्पन मेटि प्रेम रस पाचै ।
यह व्रत धरै लोक में विचरै सम करि गनै महामणि काचै ।।
शीत उष्ण सुख दुख नहिं मानै हानि भये कुछ सोच न राचै ।
जाइ समाइ सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत में नाचै ।।

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।। मूल पद्य ।।

जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत।
तौं लौं मनु मणि कण्ठ बिसारे, फिरत सकल बन बूझत।।
अपनो ही मुख मलिन मन्द मति, देखत दर्पण माँह।
ता कालिमा मेटिबे कारण, पचत पखारत छाँह।।
तेल तूल पावक पूट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत।।
सूरदास जब यह मति आई, वे दिन गये अलेखे।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे।।

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।। संत सूरदासजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।

अपने जान मैं बहुत करी।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी समुझी न परी ।।
दूरि गयो दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी ।
मनसा वाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
गुण बिनु गुणी स्वरूप रूप बिनु, नाम लेत श्री श्याम हरी ।
कृपासिन्धु अपराध अपरमित, क्षमो ‘सूर’ तें सब बिगड़ी ।।

भवार्थ-मैंने अपने जानकर बहुत कुछ किया; परन्तु आपकी कृपा किस तरह होती है, हे प्रभु-परमात्मा! यह बात मेरी समझ में नहीं आयी।। मैं आपकी सर्वव्यापकता की प्रभुता को भूलकर आपके दर्शन के वास्ते दूर-दूर गया। आपकी जो मूर्त्ति* मन, वचन और कर्म को अप्रत्यक्ष है, उसको मैंने अपनी आँख में नहीं पकड़ा।। आप त्रय गुणातीत होते हुए गुणवान हैं और आपका आत्म-स्वरूप बिना रूप का है; परन्तु हे हरि! मैं श्याम कहकर आपका नाम लेता हूँ। हे कृपा-सिन्धु! मुझसे असंख्य अपराध हुए, आप क्षमा कीजिये, सूरदास से तो सब बिगड़ ही गया।।

[* पिण्डी मन, वचन और कर्म को परमात्मा का अणोरणीयाम् वा विन्दु-रूप अप्रत्यक्ष है। दृष्टियोग के अभ्यास से नयनाकाश में यह धारण करने-योग्य है।]

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।। मूल पद्य ।।

ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर पफ़ूलै पफ़लै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई।।

भावार्थ-इसलिए भगवान यदुराई श्रीकृष्ण का भजन करो। सम्पत्ति से विपत्ति और विपत्ति से सम्पत्ति होती है, देह धरने का यही स्वभाव है।। वृक्ष पफ़ूलता है, पफ़लता है और काल पाकर पफ़ूल-पफ़ल को त्याग देता है। तालाब में पानी भर जाता है, उमड़ जाता है और सूखकर उसमें से गर्दा उड़ने लगता है।। द्वितीया का चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा तक पूर्ण रूप से बढ़ जाता है और घटते-घटते अमावास्या में बिल्कुल घट जाता है। श्रीसूरदासजी कहते हैं कि धन, ऐश्वर्य और दुःख-दारिद्र्य का कोई विश्वास न करे। ये सदा एक तरह नहीं रहते हैं।।
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।। मूल पद्य ।।

जो मन कबहुँक हरि को जाँचै।
आन प्रसंग उपासना छाड़ै मन बच क्रम अपने उर साँचै ।।
निशदिन श्याम सुमिरि यश गावै कल्पन मेटि प्रेम रस पाचै ।
यह व्रत धरै लोक में विचरै सम करि गनै महामणि काचै ।।
शीत उष्ण सुख दुख नहिं मानै हानि भये कुछ सोच न राचै ।
जाइ समाइ सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत में नाचै ।।

भावार्थ-हे मन! यदि तुम कभी हरि की याचना करो, तो दूसरे प्रसंग और उपासनाओं को छोड़ दो तथा मन, वचन, कर्म से अपने हृदय में सच्चे बने रहो।। दिन-रात श्रीश्याम का सुमिरण करो, उनका यश गाओ और कल्पों से पंच विषय-रस में लीनता को उन श्रीश्याम के प्रेम में लगाकर मिटा डालो। इस व्रत को धारण करके संसार में विचरो और महामणि तथा काँच को एक तुल्य समझो।। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख को सहन करो और हानि होने पर दुःखी मत बनो। जाकर इस परमात्म-रूप समुद्र में समा जाओ कि फिर लौटकर तुमको इस संसार में नहीं नाचना पड़े।।
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।। मूल पद्य ।।

जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत।
तौं लौं मनु मणि कण्ठ बिसारे, फिरत सकल बन बूझत।।
अपनो ही मुख मलिन मन्द मति, देखत दर्पण माँह।
ता कालिमा मेटिबे कारण, पचत पखारत छाँह।।
तेल तूल पावक पूट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत।।
सूरदास जब यह मति आई, वे दिन गये अलेखे।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे।।

भावार्थ-जबतक आत्म-दर्शन नहीं होता है, तबतक जैसे कोई मणि-माला को अपने कण्ठ में भूलकर उसे समस्त जंगल में ढ़ूँढ़ता है, उसी तरह मनुष्य अपने अंदर की ढ़न्न्ँढ़ छोड़कर आत्मा (ब्रह्म) को बाहर-बाहर ढ़न्न्ँढ़ता है।। भद्दी बुद्धिवाले किसी व्यक्ति के निज मुख पर मैल लगी है और वह दर्पण में मुख देखता है, तो उस मैल को मिटाने के लिए ऐने में के अपने प्रतिबिम्ब को अधिकाधिक प्रयास से धोता है। तात्पर्य यह कि शरीरस्थ चेतन-आत्मा के ऊपर स्थूल-सूक्ष्मादि-भेद से शरीर और अन्तःकरण आदि मैल लगी हुई है; जब श्रवण-मनन ज्ञान-रूप दर्पण में यह मैल जानने में आती है, तो केवल शरीर को धो-नहलाकर साफ करके वा तप-व्रत आदि द्वारा उसे साध और कष्ट पहुँचाकर वा केवल विचार-द्वारा ही अन्तःकरण को शुद्ध करने के प्रयास से ही वह मैल दूर नहीं होती।। दीपक में तेल भर और उसमें रूई की बत्ती देकर तो बिना जलाने से नहीं बलता है अर्थात् अंधकार में प्रकाश नहीं होता है और (अंधकार में बैठकर) दीपक की बातें बना-बनाकर कहता रहता है, तो भला वह अंधकार कैसे दूर हो सकता है? इन पद्यों से भाव यह निकलता है कि जब ईश-भजन की उस विधि से, जिस विधि से कि सुरत या चेतन-आत्मा प्रभु से मिलने को अन्तःस्थ अंधकार से पार हो ब्रह्म-ज्योति में पहुँच अंतर के सब मायिक आवरणों को पार करे, तब वह अंधकार को दूर कर सकेगी और अपने ऊपर चढ़ी कथित मैल को भी मिटा सकेगी। इसके अतिरिक्त कथित छाँह धोने से और केवल दीपक की बातें अंधकार में करने से न वह मैल मिटेगी, न वह अंधकार मिटेगा। सूरदासजी कहते हैं कि जब इस विचार का बोध हुआ, तब वे दिन अर्थात् इसके पहले के दिन बिना लेखे के बीत गए अर्थात् उन सब दिन के परिश्रम व्यर्थ हुए; परंतु आत्म-सत्स्वरूप-रूप सूर्य की महिमा को आत्म-दृष्टि से नहीं देख सकनेवाला अंधा क्या जाने?
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।। संत सूरदासजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय

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