*********************
।। मूल पद्य ।।
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग, भव भंग कारन सरन सोकहारी ।
जेतु भवदघ् घ्निपल्लव समस्त्रित सदा, भक्तिरत विगत-संसय मुरारी ।।1।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग, रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने।
संत संसर्गत्रयवर्ग पर परम पद, प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।।2।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
वृत्र बलि प्रह्लाद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज-बन्धु निज धर्म त्यागी।
साधु-पद सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी।।3।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुन,
सब्दब्रह्मैक पर ब्रह्म ज्ञानी ।
दच्छ समदृकस्वदृकविगत अति स्व-पर-मति,
परम रति विरति तव चक्रपानी ।।4।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
बिस्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी ।।5।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
वेद पय सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथनकर्त्ता ।
सार सत्संगमुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्रीकृष्ण वैदर्भि भर्त्ता ।।6।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
सोक सन्देह भय हर्ष तम तर्ष गन,
साधु सद्युक्ति विच्छेद कारी।
जथा रघुनाथ सायक निसाचर चमू,
निचय निर्दलन पटु वेग भारी।।7।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
जत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस,
भ्रमत जग जोनि संकट अनेकम्।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम्।।8।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भैषज भक्ति,
भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।।9।।
*********************
।। मूल पद्य, चौपाई ।।
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
जो मारग स्त्रुति साधु दिखावैं। तेहि मग चलत सबइ सुख पावैं।।
*********************
।। मूल पद्य, छन्द ।।
पावइ सदा सुख हरि कृपा, संसार आसा तजि रहै ।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन, बात कोटिक को कहै ।।
द्विज देव गुरु हरि सन्त बिनु, संसार पार न पाइये ।
यह जानि तुलसीदास त्रस, हरण रमापति गाइये ।।3।।
*********************
।। गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी समाप्त ।।
*********************
*********************
।। मूल पद्य ।।
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग, भव भंग कारन सरन सोकहारी ।
जेतु भवदघ् घ्निपल्लव समस्त्रित सदा, भक्तिरत विगत-संसय मुरारी ।।1।।
अर्थ-हे लक्ष्मीपति! मुझे सत्संग दीजिए। वह आपका अपना शरीर, जन्म को नष्ट करने का कारण और शरणागत के शोक को हरनेवाला है। हे मुरारि! जो आपके चरण-पल्लव के अधीन होकर सदा भक्ति में लगे रहते हैं, वे सन्देह से रहित हो जाते हैं।।1।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग, रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने।
संत संसर्गत्रयवर्ग पर परम पद, प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।।2।।
अर्थ-तीनों दरजों के परे (चौथा पद) नहीं पाने योग्य अर्थात् अत्यन्त कठिनाई से पाने योग्य-मोक्ष की गति आपकी कृपा से सत्संग पाकर असुर, देवता, नाग, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, पक्षी, निशाचर, सिद्ध और दूसरों के पाने योग्य होती है।।2।।
स्थूल जगत्=स्थूल माया, पिण्ड=अन्धकार; सूक्ष्म जगत्=रूप ब्रह्माण्ड, प्रकाश; कारण जगत्=कारण माया, अरूप ब्रह्माण्ड और मूल प्रकृति, जड़ात्मक शब्द; इन तीनों वर्गों वा दर्जों वा पदों के आगे परम मोक्ष है, जिसको चौथा पद कहते हैं।#
[# कबीर साहब, दरिया साहब (बिहारी), तुलसी साहब और धरनी दासजी की तथा और भी कई सन्तों की वाणियों में चौथे पद का वर्णन पाया जाता है, जिनमें इस पद को मोक्ष-पद कहा गया है, इस पद को सन्तों ने सत्तलोक, छपलोक, सचखण्ड और निर्वाण भी कहा है।
‘चौथे घर एक गाँव ठाँव पिव को बसै, लखे रे कोई बिरला पद निरवान।
तीन लोक में यह यमराजा, चौथे लोक में नाम निशान।।’
-सन्त कबीर साहब
‘चौथा लोक शब्द की बानी। शब्द समुन्दर बाँधल ज्ञानी।।’
-दरिया साहब, बिहारी
‘सूरति सन्त करै कोई सैला। चौथा पद सतनाम दुहेला।।’
-तुलसी साहब
‘चौथे चारि चतुर नर सोई, चौथे पद कहँ लागी।’ -धरनी दासजी]
*********************
।। मूल पद्य ।।
वृत्र बलि प्रह्लाद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज-बन्धु निज धर्म त्यागी।
साधु-पद सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी।।3।।
अर्थ-वृत्रसुर, बलि, वाणासुर, प्रह्लाद, मयदानव, व्याध, गज, गिद्ध, स्वधर्म-त्यागी ब्राह्मण (अजामिल), डोम और मुसलमान इत्यादि साधु के चरण के जल से सब पापों को धोकर मोक्ष के भागी हुए।।3।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुन,
सब्दब्रह्मैक पर ब्रह्म ज्ञानी ।
दच्छ समदृकस्वदृकविगत अति स्व-पर-मति,
परम रति विरति तव चक्रपानी ।।4।।
अर्थ-हे चक्र को हाथ में रखनेवाले! जो आपमें अत्यन्त आसक्त होते हैं, वे शान्त, उदासीन, ममता-हीन, रोग-रहित और निर्गुण शब्द-ब्रह्म* से आगे की गति के ब्रह्मज्ञानी, समदृष्टि में निपुण, अपनपौ की आँख और अपना और पराया विचारनेवाली बुद्धि से अत्यन्त रहित और विरक्त होते हैं।।4।।
[*‘अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते’-योगशिखोपनिषद्। यही निर्गुण शब्दब्रह्म है। इसके परे ‘निःशब्दं परमं पदम्’-ध्यानविन्दूपनिषद्। सन्तों का यही अनाम पद है।]
*********************
।। मूल पद्य ।।
बिस्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी ।।5।।
शब्दार्थ-सर्व=शर्व, शिव।
अर्थ-संसार के उपकार के लिए जिनका चित्त सदा चंचल रहता है, जो गर्व और क्रोध को त्यागकर बहुत-से पुण्य करते हैं, वे जहाँ ठहरते हैं, वहीं ब्रह्मा और शिव के सहित क्षीर-समुद्र में वास करनेवाले हरि भगवान जा पहुँचते हैं।।5।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
वेद पय सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथनकर्त्ता ।
सार सत्संगमुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्रीकृष्ण वैदर्भि भर्त्ता ।।6।।
अर्थ-वेद क्षीर-समुद्र है। उत्तम विचार मंदराचल है। समस्त मुनिगण मथनेवाले हैं। रुक्मिणीजी के स्वामी श्रीकृष्ण कहते हैं कि मंथन करके सत्संग-रूपी सार निकाला गया है, यह निश्चित है।।6।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
सोक सन्देह भय हर्ष तम तर्ष गन,
साधु सद्युक्ति विच्छेद कारी।
जथा रघुनाथ सायक निसाचर चमू,
निचय निर्दलन पटु वेग भारी।।7।।
शब्दार्थ-साधु सद्युक्ति=साधु की सुन्दर युक्ति=सुरत को सुषुम्ना में रखना।
अर्थ-शोक, संशय, डर, हर्ष, अन्धकार और अभिलाषाओं को साधु अपनी सुन्दर युक्ति से इस प्रकार हटा देनेवाले हैं, जिस तरह श्री रघुनाथजी (राम) का तीर निशाचर की सेना नाश करने के लिए तीक्ष्ण और भारी वेगवान है।।7।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
जत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस,
भ्रमत जग जोनि संकट अनेकम्।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम्।।8।।
अर्थ-अपने कर्मों के अधीन हो संसार की योनियों में भटकते हुए अनेक कष्टों में जहाँ कहीं मेरा जन्म हो, वहाँ आपकी भक्ति और सत्संग मुझको प्राप्त हो, मैं यही एक विश्राम माँगता हूँ।।8।।
*********************
।। मूल पद्य ।।
प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भैषज भक्ति,
भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।।9।।
शब्दार्थ-त्रय व्याधि=तीन रोग (दैहिक=ज्वरादि शारीरिक क्लेश। दैविक=दैवात् प्राप्त क्लेश। भौतिक=सर्पादि दुष्ट जन्तुओं से उत्पन्न हुए क्लेश, प्राणी-सम्बन्धी क्लेश)। दैहिक दैविक भौतिक तापा---(तुलसीकृत रामचरितमानस)।
अर्थ-संसार से उत्पन्न हुए तीनों कठिन रोगों की औषधि भक्ति है। आत्म-दर्शी भक्त वैद्य हैं। सन्त और भगवन्त में सदा कुछ भी भेद नहीं है। हे तुलसीदास! यह निर्मल बुद्धिवाले कहते हैं।।9।।
विचार-त्रय वर्ग पर, शब्दब्रह्मैक पर और तीनों अवस्थाओं के स्थान आदि बहुत-सी बातें जो पद्यों से सम्बन्ध रखनेवाली हैं, वे सब ‘सत्संग-योग’ के चौथे भाग में दिए गए चित्र से विदित होंगी।
*********************
।। मूल पद्य, चौपाई ।।
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
जो मारग स्त्रुति साधु दिखावैं। तेहि मग चलत सबइ सुख पावैं।।
अर्थ-यदि उस रास्ते (ईश्वरोपासना-द्वारा आत्मस्वरूप प्राप्त करने की दशा के मार्ग) पर मन लगाकर चले, तो हरि क्यों नहीं सहायक होंगे? वेद का जो रास्ता साधु दरसाते हैं, उस रास्ते पर चलने में सब कोई सुख पाते हैं।।
*********************
।। मूल पद्य, छन्द ।।
पावइ सदा सुख हरि कृपा, संसार आसा तजि रहै ।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन, बात कोटिक को कहै ।।
द्विज देव गुरु हरि सन्त बिनु, संसार पार न पाइये ।
यह जानि तुलसीदास त्रस, हरण रमापति गाइये ।।3।।
अर्थ-वह (आत्म-स्वरूप में रत भक्त) संसार की आशा को त्यागकर (जीवन्मुक्त होकर) संसार में रहता है और हरि की कृपा से सदा सुख पाता है। (उसकी निसबत) अनेक बातें और कौन कहे? उसे सपने में भी वह दुःख नहीं होता है, जो ईश्वर से अपने को दूसरा मानकर उत्पन्न होता है।। ब्राह्मण, देवता, गुरु, ईश्वर और सन्त की कृपा बिना संसार का पार पाया नहीं जाता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा जानकर डर को हरनेवाले लक्ष्मीपति का गुण गाइए।।3।।
भावार्थ-हरि की कृपा से साधु-संग मिलता है। सत्संग से ईश्वर की भक्ति मिलती है। ईश्वर की भक्ति मोक्षदायक है। साधु की सेवा करने से प्रथम सगुण ब्रह्म की प्रीति-सहित उपासना बनती है। इससे देह-उत्पन्न विकार दूर होता है। तब फिर आत्म-स्वरूप अद्भुत, अदेह और परम पवित्र है। इस दशा को पाकर सपने में भी द्वैत-दुःख नहीं व्यापता है। मन लगाकर इस दशा को प्राप्त करने के मार्ग पर चलने से ईश्वर सहायक होते हैं।
विचार-गो0 तुलसीदासजी महाराज के इस पद्य के भावों से ये सिद्धांत स्पष्ट सिद्ध होते हैं-(1) ब्रह्म के दो स्वरूप हैं-निर्गुण और सगुण। (2) सत्संग करके दोनों स्वरूपों की प्राप्ति का भेद जानना चाहिए। (3) केवल सगुण स्वरूप से ही प्रेम करके उसीमें संतुष्ट नहीं होना चाहिए। (4) प्रथम से ही जान लेना चाहिए कि निर्गुण ब्रह्म वा आत्म-स्वरूप को प्राप्त करके ही भक्ति पूरी होगी और तभी ईश्वर और अपने में भेद-ज्ञान का दुःख (द्वैत-दुःख) मिटकर परम कल्याण होगा। इसलिए प्रथम सगुण ब्रह्म की उपासना से अपने को योग्य बना, फिर निर्गुण स्वरूप का अनुरागी बन, उसे प्राप्त करना चाहिए। (5) जो कोई इस पूरी उपासना के मार्ग पर (अर्थात् सगुण से निर्गुण तक पहुँचने के मार्ग पर) मन लगाकर चलेगा, उसपर ईश्वर प्रसन्न होंगे और सहायता देकर उसे निर्गुण वा आत्म-स्वरूप तक की गति प्राप्त करा देंगे (6) कथित मार्ग पर चित्त लगाकर चलना ईश्वर को प्रसन्न कर उसकी सहायक बनाने का एक ही जरिया है। गोस्वामीजी की यह बात ‘ईश्वर उनको सहायता देता है, जो अपने को आप मदद करते हैं-"God helps those who help themselves." के सदृश है। (7) इस तरह गो0 तुलसीदासजी महाराज केवल सगुण उपासना तक ही नहीं रह जाते, वे आत्म-स्वरूप वा निर्गुण के भी प्रेमी बनते हैं और उसे पाकर द्वैत-दुःख से मुक्त होते हैं, ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ वाला पद प्राप्त कर लेते हैं। गोस्वामीजी सगुण स्वरूप में रत थे, निर्गुण स्वरूप में वे रत नहीं थे, वे भेद-भक्ति (ईश्वर से अलग रहने की भाव वाली भक्ति) को ही पसंद करते थे, उनकी गति इसी भक्ति तक थी, ऐसा कहना अनजानपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
*********************
।। गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी समाप्त ।।
*********************
परिचय
Mobirise gives you the freedom to develop as many websites as you like given the fact that it is a desktop app.
Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.
Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.