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(15) . गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की वाणी
[केशव कही न जाइ का कहिये।]

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।। मूल पद्य ।।

केशव कही न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ।।1।।
शून्य भीति पर चित्र रंग नहिं, तनु बिना लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ।।2।।
रवि कर नीर बसै अति दारुन, मकर रूप तेहि माहीं ।
वदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ।।3।।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।।4।।

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।। मूल पद्य ।।

केशव कही न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ।।1।।
शून्य भीति पर चित्र रंग नहिं, तनु बिना लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ।।2।।
रवि कर नीर बसै अति दारुन, मकर रूप तेहि माहीं ।
वदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ।।3।।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।।4।।

अर्थ-हे केशव! क्या कहूँ, कहा नहीं जाता है। हे हरि! आपकी विचित्र सृष्टि को देखकर और समझकर मन-ही-मन रह जाता हूँ।।1।। अशरीरी (निराकार परमात्मा) चित्रकार ने माया-रूपी शून्य1 दीवाल पर बिना रंग के चित्र लिख दिया है अर्थात् बिना रंग के ही बहुरंगी सृष्टि की है। इस बहुरंगे चित्र का रंग धोने से नहीं मिटता है और इस दीवाल के उस दुःख से मरता हूँ, जो दुःख इस देह को देखकर अर्थात् अनात्मदर्शी होने से प्राप्त होता है।।2।। सूर्य-किरण-रूप जल अर्थात् मृग-तृष्णा के जल में भयंकर बोचा (मगर) रूप काल बसता है, जो बिना मुँह के ही उन समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों को ग्रसता है, जो उस जल को पीने जाते हैं।।3।। माया को कोई2 सत्य कहता है (उसकी सत्ता मानता है), और कोई उसको मिथ्या मानता है (उसकी सत्ता नहीं मानता है), और कोई उसको सत्य एवं असत्य, दोनों ही रूपों में मानता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि जो तीन भ्रमों को अर्थात् तीन गुणों- को त्यागता है अर्थात् त्रयगुणातीत होता है, वह आत्मदर्शी होता है।।4।।




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परिचय

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