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।। मूल पद्य ।।
हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
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।। मूल पद्य ।।
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
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।। मूल पद्य ।।
पात पात कै सींचवो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।
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।। मूल पद्य ।।
हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
शब्दार्थ-पुरट=सोना। सम्पुट=डिब्बा। लसत=शोभा पाता है। ललित=मनोहर, सुन्दर। ललाम=रत्न।
पद्यार्थ-हृदय में निर्गुण है और आँखों में सगुण है; जैसे सोने के डिब्बे में मनोहर रत्न शोभा पा रहा हो।
[हृदय में जो होता है, उसी में विशेष आसक्ति रहती है।]
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।। मूल पद्य ।।
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
भावार्थ-जो बिना अज्ञान के ज्ञान कहते हैं अर्थात् जो अपरोक्ष या प्रत्यक्ष आत्म-ज्ञान प्राप्त किए हुए हैं, जो अन्धकार को पार करके प्रकाश का कथन करते हैं और जो सगुण-विहीन निर्गुण का वर्णन करते हैं, तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि वे गुरु हैं।।
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।। मूल पद्य ।।
पात पात कै सींचवो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।
भावार्थ-(वृक्ष की जड़ में पानी सींचना छोड़कर) पत्ते-पत्ते में पानी सींचना और (बेसन में ही नोंन मिला देना छोड़कर) एक-एक बरी में पृथक्-पृथक् नोंन देने की चतुराई से कौन नहीं ठगे गए? भाव यह कि पृथक्-पृथक् अनेक देव-उपासना से बचना चाहिए और सबकी जड़ एक ही परमात्म-भक्ति में लौ लगानी चाहिए। ऐसा जो नहीं करते हैं, वे ठगे जाते हैं अर्थात् परमात्मा की भक्ति और मुक्ति से वंचित रहते हैं।।
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