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(15) . गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की वाणी
[1. ऐसी आरती राम की करहि मन]

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।। मूल पद्य ।।

ऐसी आरती राम की करहि मन,
हरन दुख द्वन्द्व गोविन्द आनन्द घन।।1।।
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
वसत इति वासना धूप दीजै।
दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
प्रौढ़ अभिमान चित्त वृत्ति छीजै।।2।।
भाव अतिसय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ,
श्री रमन परम सन्तोषकारी।
प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव वासना-बीज हारी।।3।।
असुभ सुभ कर्म-घृत पूर्न दस वर्त्तिका,
त्याग-पावक सतोगुन प्रकासं।
भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
अर्पि निरांजनं जगनिवासं।।4।।
विमल हृदि भवन कृत सान्ति परयंक सुभ,
सयन विश्राम श्री राम राया।
छमा करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया।।5।।
आरती निरत सनकादिक स्त्रुति सेष सिव,
देवरिषि अखिल मुनि तत्त्वदरसी।
जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
बदत इति अमल मति दास तुलसी।।6।।

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।। मूल पद्य ।।

ऐसी आरती राम की करहि मन,
हरन दुख द्वन्द्व गोविन्द आनन्द घन।।1।।
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
वसत इति वासना धूप दीजै।
दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
प्रौढ़ अभिमान चित्त वृत्ति छीजै।।2।।
भाव अतिसय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ,
श्री रमन परम सन्तोषकारी।
प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव वासना-बीज हारी।।3।।
असुभ सुभ कर्म-घृत पूर्न दस वर्त्तिका,
त्याग-पावक सतोगुन प्रकासं।
भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
अर्पि निरांजनं जगनिवासं।।4।।
विमल हृदि भवन कृत सान्ति परयंक सुभ,
सयन विश्राम श्री राम राया।
छमा करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया।।5।।
आरती निरत सनकादिक स्त्रुति सेष सिव,
देवरिषि अखिल मुनि तत्त्वदरसी।
जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
बदत इति अमल मति दास तुलसी।।6।।

शब्दार्थ-गोविन्द=ज्ञान-सिन्धु (मानस-कोष)। अचर=स्थावर, नहीं चलनेवाला; जैसे वृक्षादि। चर=जंगम, चलनेवाला; जैसे मनुष्यादि। गत=लीन, तन्मय, निमग्न। निज बोध=आत्म-ज्ञान। विसद=विशुद्ध। प्रवर=उत्तम। हारी=हरनेवाला। नीराञ्जनं=आरती।

पदार्थ-हे मन! दुःख और कलह के हरनेवाले, ज्ञान-सिन्धु और आनन्द-पुंज राम की आरती इस तरह कर।।1।। स्थावर-जंगम स्वरूप राम के हैं और वह सबमें लीन हैं-सर्वव्यापी हैं, इसी इच्छा का धूप दीजिये। आत्म-ज्ञान का दीपक दीजिये, जिससे क्रोध, मस्ती और अज्ञान-अन्धकार नष्ट होकर बढ़ा हुआ अभिमान और चित्त की चंचलता नष्ट होती है।।2।। अत्यन्त शुद्ध प्रेम का उत्तम और शुभ नैवेद्य और प्रेम ही का पान भोग लगाइये, जिनसे लक्ष्मीपति परम सन्तुष्ट होते हैं, सम्पूर्ण कष्ट और सन्देह दूर होते हैं और जो संसार के बीज बहुत-सी इच्छाओं के हरनेवाले हैं। ।।3।। भक्ति, वैराग्य और विज्ञान के दीपों में शुभ-अशुभ कर्म-रूपी घी से भरी हुई दस बत्तियों का त्याग की अग्नि से लेसकर सत्त्वगुण की प्रकाशवाली आरती राम को अर्पित कीजिये ।।4।। पवित्र हृदय-भवन में शान्ति के सुन्दर पलँग पर आराम करने के लिए श्रीराम को सुलाइये। वहाँ राम की सेवा के लिए क्षमा और दया मुख्य-मुख्य दासियों को रखिये, जहाँ राम (उपर्युक्त रीति से) रहेंगे, वहाँ द्वैत उत्पन्न करनेवाली माया नहीं रहेगी।।5।। इस आरती में सनकादि, वेद, शेष, शिव, नारद और सार पदार्थ (निर्माया) के दर्शन करनेवाले समस्त मुनिगण विशेष रूप से रहते हैं। सब इच्छाओं को छोड़कर जो इस प्रकार आरती करेगा, वह मुक्त होगा। हे तुलसीदास! निर्मल बुद्धिवाले ऐसा कहते हैं।।6।।
भावार्थ- जो भवसागर से पार होना चाहे, उसे चाहिए कि राम को सम्पूर्ण रीति से सन्तुष्ट करने के हेतु उन्हें अपने अन्दर की शान्ति के पलँग पर प्रत्यक्ष पाने के लिए (1) उन्हें (राम को) सर्व-रूपी और सर्वव्यापी दृढ़ता से जाने, (2) आत्म-ज्ञान प्राप्त करे, (3) राम से अत्यन्त प्रेम करे, (4) दसो इन्द्रियों की वृत्तियाँ वा चेतन-धारें शुभाशुभ कर्मों से सराबोर रहती हैं, उन्हें विषयों से हटाकर अर्थात् त्याग की अग्नि से दग्ध करके सत्त्वगुण को धारण कर, भक्ति, विज्ञान और वैराग्य प्राप्त करे, (5) क्षमा और दया को धारण करे, (6) सब इच्छाओं को त्याग दे।
विचार-गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज इसी कलिकाल में थे। जबकि वे अपने मन को उपर्युक्त रीति से राम की आरती करने कहते हैं और जबकि वे यह भी कहते हैं कि जो कोई (अर्थात् कोई भी मनुष्य) इस प्रकार राम की आरती करेगा, वह तर जाएगा अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेगा, तब गोस्वामीजी महाराज के विचारानुसार कलियुग में भी राम की योगाभ्यास से होनेवाली ऐसी आध्यात्मिक आरती होती है और होगी। जो कोई इसे करना चाहेगा, करने में लग जाएगा, वह कर लेगा। स्त्री, शूद्र, चाण्डालादि, गृहस्थ, विरत्तफ़-सब-के-सब इस आरती के करने के अधिकारी हैं। राम को सर्वगत कहकर उनके निर्गुण स्वरूप का और उन्हें चर-अचररूप कहकर उनके सगुण रूप का वर्णन कर, उनके इन दोनों स्वरूपों में रत रहने को कहा गया है। निर्गुण सर्वव्यापी स्वरूप राम का अरूप, इन्द्रियों से नहीं जाननेयोग्य, मूल, सनातन और सहज स्वरूप वा निज स्वरूप है और सगुण रूप उनका कारणवश प्रकट होनेवाला, अगुण से पीछे का रूपमान, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से इन्द्रियों से जाननेयोग्य भी और उनसे नहीं जाननेयोग्य भी, माया या छलरूप है (रामचरितमानस-सार सटीक, चौ0 सं0 68 को और दोहा सं0 113 को अर्थ और लिखित विचारों-सहित पढ़िए।) निर्गुण स्वरूप में और सगुण के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपों में, उनकी निसबत केवल पढ़-सुन और विचारकर रत होना केवल कठिनसाध्य ही नहीं, बल्कि असम्भव है (देखिए, विनय-पत्रिका-सार सटीक, पद्य 7)। जब चेतन-वृत्ति वा सुरत का पसार स्थूल शरीर में रहकर स्थूल इन्द्रियों के द्वारा काम करता रहता है, तब स्थूल सगुण में रत होना सम्भव होता है। इसी तरह जब सूक्ष्म भक्ति के साधन से सुरत को स्थूल शरीर से समेटकर और सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा काम करना छोड़कर जब केवल सूक्ष्म ही शरीर में उसका पसार रहेगा और स्थूल-विहीन केवल सूक्ष्म शरीर से ही कर्म करना सम्भव होगा, तब सूक्ष्म सगुण में और इसी भाँति जब सूक्ष्म से भी सिमटकर आगे बढ़कर केवल कारण ही शरीर में सुरत का पसार रहेगा और उसके द्वारा कर्म किया जा सकेगा, तब सूक्ष्मातिसूक्ष्म सगुण में रत होते हुए, फिर कारण से भी सिमटकर सुरत वा चैतन्य वृत्ति को आत्म-स्वरूप में लय कर निर्गुण स्वरूप में रत होना अत्यन्त सम्भव है। रामचरितमानस-सार सटीक में वर्णित नवधा भक्ति, राम की इस प्रकार की आरती करने का वा उसके सगुण और निर्गुण स्वरूपों में रत होने का और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का साधन है। सगुण राम की उपासना के बाद आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है। इसके प्राप्त होने पर राम के निर्गुण स्वरूप में रत होना बाकी नहीं रहता। भक्ति के साधन का अन्त निज रूप वा आत्म-स्वरूप वा निर्गुण राम में रत होने तक ही है (देखिये, विनय-पत्रिका-सार सटीक, पद्य 9)। ध्यान, उपासना, आरती, पूजन, भजन और भक्ति का प्राण प्रेम है। राम के प्रति प्रेम बिना ये निस्सार और निरर्थक हैं। जिस महल में राम से मिलाप होता है, उसमें केवल राम के प्रेमी ही अपना शीश उतारकर अर्थात् अहंकार को सम्पूर्णतः गँवाकर जा सकते हैं। प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसके बिना उसको रहा नहीं जाता। सच्चा प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसकी ओर एकटक देखता है और चाहता है कि वह भी उसको देखे। वह अपने प्रेम-पात्र के पास चल पड़ता है और सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को और सम्पूर्ण विपत्तियों को झेलते हुए, कठिन-से-कठिन मार्ग को पार कर उससे जा मिलता है। संत कबीर साहब प्रेम का कितना उत्तम वर्णन निम्नलिखित शब्दों में करते हैं-
प्रेम सखी तुम करो विचार। बहुरि न आना यहि संसार।।1।।
जो तोहि प्रेम खेलनवाँ चाव। शीश उतार महल में आव।।2।।
प्रेम खेलनवाँ यही विशेष। मैं तोहि देखूँ तू मोहि देख।।3।।
प्रेम खेलनवाँ यही स्वभाव। तू चलि आव कि मोहि बुलाव।।4।।
खेलत प्रेम बहुत पचिहारी। जो खेलिहैं सो जग से न्यारी।।5।।
कहै कबीरा प्र्रेम समान। प्रेम समान और नहीं आन।।6।।
जिस महल में राम से मिल सकते हैं, वह महल अपना ही शरीर है (विनय-पत्रिका-सार सटीक, पद्य 12 में देखिये) अपने शरीर के अन्तर की तहां में अपनी दृष्टि से देखे बिना, राम को देख नहीं सकते। इस प्रकार देखने के साधन को ही दृष्टि-साधन वा दृष्टि-योग कहते हैं। इस साधन का विवरण रामचरितमानस-सार सटीक की चौú 5 को अर्थ और लिखित विचारों के सहित पढ़कर जानिये। वर्णात्मक नाम को अत्यन्त एकाग्रता और प्रेम से जपना, राम को अपने पास बुलाना है। पर याद रहे कि इस प्रकार बुलाकर राम को केवल स्थूल सगुण रूप में ही पा सकते हैं। उनके सूक्ष्म, सूक्ष्मातिसूक्ष्म और निर्गुण रूपों से मिलने के लिए प्रथम कथित रीति से चेतनवृत्ति को समेटते हुए स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में राम के स्थूल और सूक्ष्मातिसूक्ष्म वा कारण रूपों से मिलते हुए तीनों शरीरों से टपकर राम के निर्गुण स्वरूप से मिलना संभव है। और राम के स्थूल सगुण रूपों से मानस ध्यान के द्वारा मनाकाश में मिल सकते हैं, यह भी अपने शरीर में सिमटना वा अपने अन्तर में राम की ओर जाना ही हुआ। अतएव अपने शरीर में यात्र करनी राम की ओर चलना है। राम सच्चा प्रेमी इस यात्र का यात्री वा अन्तर-पथ का पथिक अवश्य ही होता है। भक्ति-साधन का परम रहस्य यही है। इसी रहस्य को लक्ष्य करते हुए गो0 तुलसीदासजी महाराज ने विनय-पत्रिका-सार सटीक में पद्य 10 को गाया है। दृष्टि-योग की सुगम रीति से सुषुम्न-विन्दु पर युगल दृष्टि- धारों को मिलाने से इन्द्रियों की वृत्तियाँ शुभाशुभ कर्मों से सराबोर नहीं रहती हैं। विषयों से हट जाती हैं और रजोगुण-वाहिनी इड़ा और तमोगुण-वाहिनी पिंगला से भी हटकर सतोगुण-वाहिनी सुषुम्न के विन्दु पर मिल, उसको दृढ़ता से धरती है, तो सत्त्वगुण के प्रकाश से प्रकाशित होती है। जैसे किसी चीज को एक ही साथ दोनों हाथों से अत्यन्त बलपूर्वक पकड़ने पर सारे शरीर का बल हाथों की पकड़ पर ही आ जाता है, वैसे ही युगल दृष्टि से विन्दु को जकड़कर पकड़ने से सब इन्द्रियों की चेतन-वृत्ति वा सुरत की धारें उस विन्दु पर सिमटकर मिल जाती हैं और एक हो जाती हैं। दसों इन्द्रियों के दीपों में सुरत की धारें ही दस बत्तियाँ हैं। इन्द्रियों में रहकर ही यह उनके संग विषयों में बरतकर शुभाशुभ कर्म-रूप घी से सराबोर रहती है और रज और तम गुणों में बरतती रहती है। सो सब इनका सिमटाव होकर उस विन्दु पर जमाव होता है, जो बाहर में नहीं है और जो किसी इन्द्रिय में वा इड़ा वा पिंगला में नहीं है। तब सहज ही ये इन्द्रियों से, विषयों से और रज-तम गुणों से हट जाती हैं, सत्त्वगुण से प्रकाशित हो जाती हैं और शुभाशुभ कर्म जलने लगते हैं। जिस चीज का सिमटाव होता है, उसको जिस ओर से सिमटाव होता है, उससे विपरीत ओर को, आगे बढ़ाते जाने का, सिमटाव का स्वभाव है। इसी कारण पिण्ड वा स्थूल शरीर की ओर से सिमटकर सुरत जब सुषुम्न-विन्दु पर जम जाती है, तो स्थूल शरीर की ओर से विरुद्ध ओर को अर्थात् सूक्ष्म शरीर की ओर आगे बढ़ जाती है। और यह काम यदि उत्तरोत्तर (लगातार) जारी रखा जाय अर्थात् प्रथम विन्दु की सीध में के विन्दुओं पर जहाँ-जहाँ सुरत जाय, वहाँ-वहाँ सिमटाव नहीं छोड़ा जाय, तो सुरत वा चेतन-वृत्ति की गति सूक्ष्म के सब मंडलों से गुजरती हुई, सूक्ष्म सगुण के सब स्वरूपों से मिलती हुई, कारण मंडल में पहुँच जायगी। यहाँ तक दृष्टियोग की गति है। पर यहीं तक काम समाप्त नहीं होता है। कारण से भी आगे राम के निर्गुण स्वरूप से मिलना है, जहाँ दृष्टि की गति नहीं है। वहाँ केवल निर्गुण राम-नाम के भजन से ही जाना सम्भव है। निर्गुण राम-नाम के बारे में रामचरितमानस-सार सटीक की चौ0 सं0 80 को अर्थ और लिखित विचारों-सहित पढ़िये। इसी निर्गुण राम-नाम का भजन करना सुरत-शब्द-योग का सार है। इस शब्द को, दृष्टि-योग सम्पूर्णतः समाप्त करके भी सुरत पा सकती है और दृष्टि को केवल सुषुम्ना में ही थिर-थाम्हकर वहीं से अनहद ध्वनि के सहारे आगे बढ़ पा सकती है। पर इन दोनों हालतों में गुरु के संकेत की बड़ी आवश्यकता है। शब्द में सुरत को आकर्षित करने का स्वभाव है। शब्द अपने आकर्षण से सुरत को अपने उद्गम-स्थान में खींच लाता है। निर्गुण राम-नाम सुरत को राम के निज निर्गुण स्वरूप तक अपने महान आकर्षण से खींचकर पहुँचा देता है।
विचार का सांराश यह कि वर्णित आरती केवल विचार-द्वारा वा राम के केवल स्थूल सगुण स्वरूप की उपासना से ही नहीं की जा सकेगी। यह कथित विचारानुसार वर्णात्मक नाम-भजन, मानस ध्यान, दृष्टि-योग और सुरत-शब्द-योग द्वारा की जा सकेगी। गो0 तुलसीदासजी महाराज ज्ञानी भक्त-योगी सन्त थे, न कि केवल मोटी ही उपासनावाले भक्त।
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