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(14) . संत सुन्दरदासजी की वाणी 

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।। मूल पद्य ।।

ब्रह्म में जगत यह ऐसी विधि देषियत,
जैसी विधि देषियत फूलरी महीर में।
जैसी विधि गिलम दुलीचे में अनेक भाँति,
जैसी विधि देषियत चूनरीउ चीर में।।
जैसी विधि कांगरेऊ कोट पर देषियत,
जैसी विधि देषियत बुदबुदा नीर में।।
सुन्दर कहत लीक हाथ पर देषियत,
जैसी विधि देषियत शीतला शरीर में।।

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।। मूल पद्य ।।
एक ब्रह्म मुख सूँ बनाय करि कहत हैं,
अन्तःकरण तौ विकारन सूँ भर्यो है।
जैसे ठग गोबर को कूपो भरि राखत है,
सेर पंच घृत ले कै ऊपर ज्यूँ कर्यो है।।
जैसे कोई भाँड माहिं प्याज कूँ छिपाय राखै,
चीथरा कपूर को लै मुख बाँधि धर्यो है।
‘सुन्दर’ कहत ऐसे ज्ञानी हैं जगत माहिं,
तिनकूँ तौ देखि करि मेरो मन डर्यो है।।

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।। मूल पद्य ।।
काक अरु रासभ, उलूक जब बोलत हैं,
तिनके तौ वचन, सुहाते कहु कौन कूँ।
कोकिला रु सारि पुनि, सूवा जब बोलत हैं,
सब कोऊ कान दे, सुनत रव रौन कूँ।।
ताहिं तें सुवचन, विवेक करि बोलिये जू,
यूँहि आक बाक बकि, तोरिये न पौन कूँ।
‘सुन्दर’ समुझि ऐसे, वचन उचार करौ,
नहिं तौ समुझि करि, बैठो गहि मौन कूँ।।

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।। संत सुन्दरदासजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।

ब्रह्म में जगत यह ऐसी विधि देषियत,
जैसी विधि देषियत फूलरी महीर में।
जैसी विधि गिलम दुलीचे में अनेक भाँति,
जैसी विधि देषियत चूनरीउ चीर में।।
जैसी विधि कांगरेऊ कोट पर देषियत,
जैसी विधि देषियत बुदबुदा नीर में।।
सुन्दर कहत लीक हाथ पर देषियत,
जैसी विधि देषियत शीतला शरीर में।।

अर्थ-जैसे महीर (मट्ठे में चावल) पकाते समय उसके अन्दर उबाल आने के कारण तरह-तरह के नक्शे से फूल-सदृश देखने में आते हैं, जैसे गलीचे और कालीन पर तरह-तरह की नक्काशियाँ दीखती हैं, जैसे चुनरी कहानेवाले रंगीन वस्त्र पर बुन्दकियाँ देखने में आती हैं, जिस तरह कंगूरे भी किले के ऊपर देखने में आते हैं, जैसे पानी पर बुलबुले दिखाई देते हैं, जैसे हाथ पर हस्त-रेखाएँ तथा जैसे शरीर में शीतला का चिह्न देखने में आता है, सुन्दरदासजी कहते हैं कि उसी तरह ब्रह्म में जगत् दिखाई देता है।।
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।। मूल पद्य ।।
एक ब्रह्म मुख सूँ बनाय करि कहत हैं,
अन्तःकरण तौ विकारन सूँ भर्यो है।
जैसे ठग गोबर को कूपो भरि राखत है,
सेर पंच घृत ले कै ऊपर ज्यूँ कर्यो है।।
जैसे कोई भाँड माहिं प्याज कूँ छिपाय राखै,
चीथरा कपूर को लै मुख बाँधि धर्यो है।
‘सुन्दर’ कहत ऐसे ज्ञानी हैं जगत माहिं,
तिनकूँ तौ देखि करि मेरो मन डर्यो है।।

अर्थ-इस पद्य में संत सुन्दरदासजी ने वाचक ज्ञानी के संबंध में लिखा है कि वह एक परब्रह्म परमात्मा की बात को मुख से विविध भाँति बना-बनाकर वर्णन करता है; किन्तु उसका अन्तःकरण काम, क्रोधादि विकारों से भरा रहता है; जैसे कोई ठग या धूर्त्त घी-तेल रखने के बड़े भाँड़े में गोबर भरकर रखे और उसके ऊपर पाँच सेर घृत रख दे। तात्पर्य यह कि जैसे सर्वसाधारण की दृष्टि में वह बर्त्तन घृत से भरा है; लेकिन यथार्थ में बात ऐसी नहीं है, उसी तरह वाक्य-ज्ञानी अपनी चिकनी-चुपड़ी ज्ञानमयी वाणी-द्वारा सर्वसाधारण के समक्ष अपने को यथार्थ ज्ञानी प्रमाणित करना चाहता है; किन्तु यथार्थ में वह वैसा नहीं है। यदि कोई जानकार जन (ठग-कथनानुसार) समस्त घृत को लेकर उसकी जाँच करे, तो वह केवल घृत नहीं ठहरता, उसी तरह अनुभव-प्राप्त ज्ञानी के सामने वह वाचक ज्ञानी खरा नहीं उतर सकता, उसकी पोल खुल जाती है।। जैसे कोई आदमी किसी पात्र में प्याज को छिपाकर रखे और उस पात्र के मुख पर कपड़े में कपूर को लपेटकर रखे, तात्पर्य यह कि वर्णित कथक ज्ञानी के अन्दर दुर्गुण की दुर्गन्धि भरी होती है, किन्तु बाहर में वह अपने वाक्-जाल-द्वारा लोगों में अपना भलपन जनाता है। जैसे कर्पूर की सुगन्धि देर तक नहीं टिकती, उसी भाँति उसकी कलाबाजी अधिक दिन नहीं टिकती और अन्त में ‘उघरे अन्त न होहिं निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।’ की भाँति उसकी हालत हो जाती है। संत सुन्दरदासजी कहते हैं कि संसार में ऐसे ही ज्ञानी (अधिक) हैं, जिनको देखकर मेरा मन डरता है। आशय यह कि ऐसे वाचक ज्ञानी से सचेत-होशियार रहना चाहिए; अन्यथा विपद है।।
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।। मूल पद्य ।।
काक अरु रासभ, उलूक जब बोलत हैं,
तिनके तौ वचन, सुहाते कहु कौन कूँ।
कोकिला रु सारि पुनि, सूवा जब बोलत हैं,
सब कोऊ कान दे, सुनत रव रौन कूँ।।
ताहिं तें सुवचन, विवेक करि बोलिये जू,
यूँहि आक बाक बकि, तोरिये न पौन कूँ।
‘सुन्दर’ समुझि ऐसे, वचन उचार करौ,
नहिं तौ समुझि करि, बैठो गहि मौन कूँ।।

अर्थ-(बोलते सभी जन हैं; किन्तु बोलने की कला किन्हीं- किन्हीं में होती है। इस संतवाणी-द्वारा वाणी-व्यवहार की हम एक दिव्य प्रेरणा पाते हैं। वर्णित पद्य में बताया गया है कि किस भाँति बोलना चाहिए और कब मौन-धारण करके रहना चाहिए।) सन्त सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं कि काग, गदहे और उल्लू (पक्षी) जब बोलते हैं, तो कहिए उनकी बोली किनको सुहाती है? फिर जब कोयल, मैना और सुग्गे बोलते हैं, तो सभी कोई उनकी (मीठी) बोली को कान लगाकर सुनते हैं।। इसलिए विवेक के साथ सुन्दर वचन अर्थात् सत्य और प्रिय वचन बोलिए, व्यर्थ ही वृथा की बकवाद वा बकझक करके (प्राण) वायु-जीवनी-शक्ति को नष्ट नहीं कीजिए। इस तरह भलाभल, सत्यासत्य और प्रियाप्रिय का विचार कर वचन का उच्चारण कीजिए; अन्यथा समझ-सोचकर मौन धारण कीजिए अर्थात् चुप होकर रहिए।।
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।। संत सुन्दरदासजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय

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