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।। मूल पद्य ।।
तन खोजै तब पावै रे।
उलटी चाल चलै जे प्राणी, सो सहजै घर आवै रे।।टेक।।
बारह मारग बहता रोकै, तेरह ताली लावै रे।
चन्द सूर सहजै सत राखै, अनहद वेण बजावै रे।।1।।
तिन्नू गुण चौथे घर राखै, पाँच पचीस समावै रे।
नऊ निरति सूँ और बहत्तर, रोम-रोम धुनि धावै रे।।2।।
मैल निर्मल करे ज्ञान सौं, सतगुरु कहि समुझावै रे।
गरीबदास अनभै घर उपजै, तब जाइ जोति लखावै रे।।3।।
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।। सन्त गरीब दासजी की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।
तन खोजै तब पावै रे।
उलटी चाल चलै जे प्राणी, सो सहजै घर आवै रे।।टेक।।
बारह मारग बहता रोकै, तेरह ताली लावै रे।
चन्द सूर सहजै सत राखै, अनहद वेण बजावै रे।।1।।
तिन्नू गुण चौथे घर राखै, पाँच पचीस समावै रे।
नऊ निरति सूँ और बहत्तर, रोम-रोम धुनि धावै रे।।2।।
मैल निर्मल करे ज्ञान सौं, सतगुरु कहि समुझावै रे।
गरीबदास अनभै घर उपजै, तब जाइ जोति लखावै रे।।3।।
पद्यार्थ-जब कोई अपने शरीर को खोजै, तब ईश्वर को पावै। जो प्राणी उलटी चाल चलै, 1सो सहज ही घर में आवै। बारह पथ2 होकर बहती हुई चेतन-धारा को रोक दे और तेरहवें3 में ताली लगा दे अर्थात् उसको बंद कर दे। सहज-ही-सहज इड़ा-पिंगला को सत्त्वगुण में रखे4 और अनहद वेणु बजावे।।1।। तीनों गुणों के मण्डल से ऊपर उठकर अपने को चौथे घर (सतलोक या सच्चिदानन्द-पद) में रखे, तो पाँचो तत्त्वों के पचीस स्वभाव लय हो जाएँगे अर्थात् अपने स्वभावों के प्रभाव से साधक को प्रभावित नहीं करेंगे। और ध्यान में विशेष तल्लीनता होने से नवो नाड़ियां5, बहत्तर कोठे6 और रोम-रोम में ध्वनि की गति विदित होती है।।2।। सद्गुरु कहकर समझाते हैं कि हे गरीब दास! चित्त-मल को ज्ञान से पवित्र कर तब अन्तर्ज्योति की अनुभूति होती है।।3।।
[1- बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर स्थूल से सूक्ष्म में-पिण्ड से ब्रह्माण्ड में गति।
2- पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों में चेतन-धारों का बहाव-पथ-दस मार्ग और नासिका के दोनों पुटों में होकर श्वास का बहाव-पथ-दो मार्ग; सब मिलाकर बारह पथों को ध्यान-अभ्यास से रोका जाता है।
3- तेरहवें मार्ग के द्वार में सुरत के रहने से वह सत्त्वगुण में रहेगी।
4- आज्ञाचक्र का केन्द्र-विन्दु-शिवनेत्र-तीसरा तिल। इस तेरहवें द्वार के मार्ग में दृढ़ता के साथ सुरत जमा दे।
5- ‘नौ नाड़ी को खैंच पवन लै उर में दीजै।’ -संत चरणदासजी
6- ‘कोठा बहत्तर कहै बखानी। लै लख भीतर जो पहचानी।।’
घट-रामायण में इन कोठों के भिन्न-भिन्न नाम हैं।]
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।। सन्त गरीब दासजी की वाणी समाप्त ।।
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परिचय
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