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(11) . सन्त पलटू साहब की वाणी 

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।। मूल पद्य ।।

गंगा पाछे को वही, मछरी चढ़ी पहाड़।।
मछरी चढ़ी पहाड़, चुल्हा में फन्दा लाया।
पुखरा भीटे बाँधि, नीर में आग छिपाया।।
अहिरिन फेकै जाल, कहारिन भैंसि चरावै।
तेलि के मरिगा बैल, बैठि के धुबइन गावै।।
महुवा में लागा दाख, भाँग में भया लुबाना।
साँप के बिल के बीच, जाय के मूस लुकाना।।
पलटू सन्त विवेकी, बुझिहैं सबद सम्हार।
गंगा पाछे को वही, मछरी चढ़ी पहाड़।।

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।। मूल पद्य ।।

भजन आतुरी कीजिये और बात में देर।।
और बात में देर जगत में जीवन थोरा।
मानुष तन धन जात गोड़ धरि करौं निहोरा।।
काँचे महल के बीच पवन इक पंछी रहता।
दस दरवाजा खुलाऽ उड़न को नित उठि चहता।।
भजि लीजै भगवान एही में भल है अपना।
आवागौन छुटि जाय जनम की मिटै कलपना।।
पलटू अटक न कीजिये चौरासी घर फेर।
भजन आतुरी कीजिये और बात में देर।।

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।। मूल पद्य ।।

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग।।
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती।
छः रितु बारह मास, रहत जरतैं दिन राती।।
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै।
बिन सतगुरु कोउ होय, नहीं वाको दरसावै।।
निकसै एक अवाज, चिराग की जोतिहिं माहीं।
ज्ञान समाधी सुनै, और कोउ सुनता नाहीं।।
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग।
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग।।

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।। मूल पद्य ।।

सुर नर मुनि जोगी यती सभै काल बसि होय।।
सभै काल बसि होय मौत कालौं की होती।
पार ब्रह्म भगवान मरै ना अविगत जोती।।
जाको काल डेराय ओट ताही की लीजै।
काल की कहा बसाय भक्ति जो गुरु की कीजै।।
जरा मरन मिटि जाय सहज में औना जाना।
जपि कै नाम अनाम संतजन तत्त्व समाना।।
बैद धनंतर मरि गया पलटू अमर न कोय।।
सुर नर मुनि जोगी यती सभै काल बसि होय।।

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।। मूल पद्य ।।

हमने बातें तहकीक किया, सबमें साहब भरपूर है जी।।
अपनी समझ कुआँ को पानी, कहिं नियरे कहिं दूर है जी।
गाफिल की ओर से सोय गया, चेतन को हाल हजूर है जी।
पलटू इस बात को ना मानै, तिसके मुख ऊपर धूर है जी।।

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।। मूल पद्य ।।

आठ पहर निरखत रहै जैसे चन्द चकोर।।
जैसे चन्द चकोर पलक से टारत नाहीं।
चुगै बिरह से आग रहै मन चन्दै माहीं।।
फिरै जेहि दिस चन्द तेही दिस को मुख फेरै।
चन्दा जाय छिपाय आग के भीतर हेरै।।
मधुकर तजै न पदम जान से जाय बँधावै।
दीपक में ज्यों पतंग प्रेम से प्राण गँवावै।।
पलटू ऐसी प्रीति कर परधन चाहै चोर।
आठ पहर निरखत रहै, जैसे चन्द चकोर।।

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।। मूल पद्य ।।

हाथी घोड़ा खाक है, कहै सुनै सो खाक।।
कहै सुनै सो खाक, खाक है मुलुक खजाना।
जोरू बेटा खाक, खाक जो साचै माना।।
महल अटारी खाक, खाक है बाग बगैचा।
सेत सपेदी खाक, खाक है हुक्का नैचा।।
साल-दुसाला खाक, खाक मोतिन कै माला।
नौबतखाना खाक, खाक है ससुरा साला।।
पलटू नाम खुदाय का, यही सदा है पाक।
हाथी घोड़ा खाक है, कहै सुनै सो खाक।।

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।। संत पलटू साहब की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।

गंगा पाछे को वही, मछरी चढ़ी पहाड़।।
मछरी चढ़ी पहाड़, चुल्हा में फन्दा लाया।
पुखरा भीटे बाँधि, नीर में आग छिपाया।।
अहिरिन फेकै जाल, कहारिन भैंसि चरावै।
तेलि के मरिगा बैल, बैठि के धुबइन गावै।।
महुवा में लागा दाख, भाँग में भया लुबाना।
साँप के बिल के बीच, जाय के मूस लुकाना।।
पलटू सन्त विवेकी, बुझिहैं सबद सम्हार।
गंगा पाछे को वही, मछरी चढ़ी पहाड़।।

अर्थ-पिण्डी मन-तन-मन की बहती हुई धारा (गंगा) बाह्य विषय-सुख से मुड़कर अन्तर को चली, तो सुरत-रूप मछली ऊँचाई पर चढ़ गई।। उस मछली-सुरत ने ऊँचे उठकर आज्ञाचक्र-स्थित ब्रह्माण्डी मन-रूप चूल्हे में पिण्डी मन को फँसा रखने के लिए फन्दा लगा दिया। मतलब यह कि जब अभ्यास-द्वारा पिण्डी मन को पीछे की तरफ अर्थात् अन्तर की तरफ करके ब्रह्माण्डी मन में केन्द्रित किया जाता है, तब वहाँ के रस में पिण्डी मन का फँसाव हो जाता है। आज्ञाचक्र-षष्ठचक्र पोखरे के किनारे को बाँधकर पिण्डी मन-रूप बहती हुई जल-धारा को उस तालाब में रखा, जिसमें ब्रह्माग्नि गुप्त रूप से रहती है।। विद्या माया-रूप अहीरिन सत्त्वगुण का जाल सुरत पर फेंकती है और अविद्या माया-रूप कहारिन इन्द्रिय-रूप भैंसों को विषय-रूप चरागाह में चराती है। असार खल्ली-रूप विषय को त्यागकर तेल-रूप सारतत्त्व के लेनेवाले, सारग्राही-अभ्यासी-तेली का मन-रूप बैल मर गया अर्थात् मनोलय हो गया-संकल्प-विकल्प को छोड़ दिया। तब निर्मल चेतन-आत्मा स्थिर भाव से आनन्दित हो नादानुसन्धान में संलग्न हो गई।। विषय-मुखी जीवात्मा महुआ-रूप मनुष्य-शरीर, जो महुआ वृक्ष कहनेयोग्य था, में उपर्युक्त साधक के होने से वह दाख का वृक्ष हो गया और उसी विषय चेतन-आत्मा से युक्त भाँग-शरीर-भाँग-वृक्ष में साधक-रूप सुगन्धित पदार्थ बन गया। विषय-विष से युक्त मन-रूप साँप का बैठक इस मनुष्य-शरीर में जहाँ था, उस स्थान में अब साधक (मूसा) रहने लगा। मतलब यह कि साधन-विहीन रहते हुए जीवात्मा-मूसा मन के वश में रहा करता है; परन्तु वही जब साधनशील होता है, तब मन के स्थान में रहकर मन-रूप सर्प को काबू में किए हुए रहता है।। पलटू साहब कहते हैं कि सारासार का ज्ञान रखनेवाले सन्त वचन को सँभालकर समझेंगे। गंगा पीछे की ओर बह गई और मछली पहाड़ पर चढ़ गई।।
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।। मूल पद्य ।।

भजन आतुरी कीजिये और बात में देर।।
और बात में देर जगत में जीवन थोरा।
मानुष तन धन जात गोड़ धरि करौं निहोरा।।
काँचे महल के बीच पवन इक पंछी रहता।
दस दरवाजा खुला* उड़न को नित उठि चहता।।
भजि लीजै भगवान एही में भल है अपना।
आवागौन छुटि जाय जनम की मिटै कलपना।।
पलटू अटक न कीजिये चौरासी घर फेर।
भजन आतुरी कीजिये और बात में देर।।

अर्थ-जगत् के अन्य कार्यों में विलम्ब करके परमात्म-भजन अविलम्ब कीजिए।। सांसारिक जीवन क्षणिक है, इसलिए अन्य बातों में देर कीजिए। मनुष्य-शरीर-रूप सम्पत्ति निरर्थक चली जा रही है, मैं पाँव पकड़कर प्रार्थना करता हूँ (कि ‘भजन आतुरी कीजिए’)।। इस (शरीर-रूप महल) के दसो द्वार खुले हैं**, जिस होकर जीवात्मा-रूपी पक्षी उड़ जाने के लिए नित्य प्रति चाहता है। तात्पर्य यह कि इस शरीर से कब प्राण-चेतन निकल जाय, यह निश्चित नहीं।। अपनी भलाई-अपना कल्याण इसमें है कि ईश्वर का भजन करें, जिससे आवागमन वा गमनागमन का चक्र छूटे और जन्म का क्लेश मिटे।। सन्त पलटू साहब कहते हैं कि परमात्म-भजन में विलम्ब नहीं कीजिए अन्यथा चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा। एतदर्थ अन्य कार्यों में देर करके ईश्वर-भजन शीघ्रतापूर्वक कीजिए।।



[* आँखों के दो छिद्र, कानों के दो छिद्र, नाक के दो छिद्र, मुँह का एक छिद्र, मल-मूत्र त्यागने के दो छिद्र और नाभि का एक छिद्र; ये खुले दस द्वार हैं। (गर्भस्थ शिशु की नाभि-नाल उसकी माता के गर्भाशय की दीवार से मिली होती है, जिससे शिशु भोजन पाता है और उसका शरीर पुष्ट होता है। इसलिए इसको भी एक द्वार माना गया है।)
अथवा
आँखों के दो छिद्र, कानों के दो छिद्र, नाक के दो छिद्र, मल-मूत्र परित्याग के दो छिद्र और आज्ञाचक्र का अन्धकार भाग; ये दस खुले दरवाजे हैं।]

[** उपर्युक्त व्याख्या देखें।]

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।। मूल पद्य ।।

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग।।
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती।
छः रितु बारह मास, रहत जरतैं दिन राती।।
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै।
बिन सतगुरु कोउ होय, नहीं वाको दरसावै।।
निकसै एक अवाज, चिराग की जोतिहिं माहीं।
ज्ञान समाधी सुनै, और कोउ सुनता नाहीं।।
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग।
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग।।

व्याख्या-गगन में उलटा कुआँ है, उसमें चिराग जलता है। मतलब यह कि मनुष्य का माथा, गले से ऊपर शून्य में प्रत्यक्ष है; इसके अन्दर ज्योति जलती है। यह दीपक-ज्योति की तरह अभ्यासी को विदित होती है। " जैसे मन्दिर दीपक बारा। ऐसे जोति होत उजियारा।"-तुलसी साहब। पृथ्वी पर जो कुआँ होता है, उसमें ऊपर मुँह होता है। यह सीधा कुआँ है, सबलोग जानते हैं; परन्तु मनुष्य का शिर ऊपर खोपड़ी से बन्द है, इसमें नीचे से जाने का मार्ग है। इसीलिए मनुष्य का शिर उलटा कुआँ है।। इसमें बिना तेल और बत्ती के दीपक जलता है। छहो ऋतुओं और बारह मास दिन-रात जलता ही रहता है।। जिसको सद्गुरु मिलते हैं, उसको यह देखने में आता है। जिसको सद्गुरु नहीं प्राप्त है, उसको यह दीपक-प्रकाश देखने में नहीं आता है।। उस दीपक-ज्योति में एक आवाज निकलती है। ज्ञान-युक्त समाधि- प्राप्त साधक उसको सुनता है और कोई उसको नहीं सुनता है।। पलटू दासजी कहते हैं कि जो कोई उसको सुनते हैं, उनका पूरा भाग्य है।।
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।। मूल पद्य ।।

सुर नर मुनि जोगी यती सभै काल बसि होय।।
सभै काल बसि होय मौत कालौं की होती।
पार ब्रह्म भगवान मरै ना अविगत जोती।।
जाको काल डेराय ओट ताही की लीजै।
काल की कहा बसाय भक्ति जो गुरु की कीजै।।
जरा मरन मिटि जाय सहज में औना जाना।
जपि कै नाम अनाम संतजन तत्त्व समाना।।
बैद धनंतर मरि गया पलटू अमर न कोय।।
सुर नर मुनि जोगी यती सभै काल बसि होय।।

भावार्थ-देवता, मनुष्य, मुनि (मननशील), योगी और यति (संन्यासी); ये सभी काल के वशीभूत होते हैं।। इतना ही नहीं, ये सभी तो मृत्यु को प्राप्त होते ही हैं, साथ ही काल की भी मृत्यु होती है अर्थात् काल (समय) का भी अंत होता है। कहने का तात्पर्य यह कि काल की विकरालता या उनका प्रभुत्व देश के अन्दर ही होता है; किन्तु जो देशकालातीत है, वह तो ‘अति कराल कालहु कर काला’ है। ऋषि-वाक्यानुसार- " जिस नाम-रूपात्मक काल से सब कुछ ग्रसित है, उस काल को भी ग्रसनेवाला या पचा जानेवाला जो तत्त्व है, वही परब्रह्म है।" (मै0 6-15)। उस परमात्म-पद में काल का कोई चारा नहीं चलता। संत कबीर साहब के शब्दों में- " उहाँ गम काल की नाहीं।" और गो0 तुलसीदासजी ने कहा है- " देस काल तहँ नाहीं।" उस पद तक पहुँचते-पहुँचते काल अपना अस्तित्व खो बैठता है अर्थात् उसकी विलीनता हो जाती है। इसको दूसरे शब्दों में ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका विनाश भी अवश्यमेव होता है। इस दृष्टि से काल की उत्पत्ति के कारण उसका नाश भी कभी-न-कभी होगा ही। " जो ऊगे सो अत्थवै, जामे सो मरि जाय। जो चुनिये सो ढहि पड़ै, फले सो कुम्हिलाय।।"-संत कबीर साहब। किन्तु परब्रह्म परमात्मा की, जिसका प्रकाश सर्वव्यापक है, मृत्यु नहीं होती।। जिस प्रभु के भय से स्वयं काल कम्पित वा भयभीत रहता है, उसका आश्रय ग्रहण कीजिये। उसपर काल का कुछ वश नहीं चलता, जो गुरु की भक्ति करनेवाले होते हैं।। (ऐसे भक्त जन की) स्वाभाविक ही जन्म-मृत्यु और आवागमन छूट जाता है। संत जन नाम का जप करके (साधना-द्वारा) अनाम तक पहुँचकर परमात्म-तत्त्व में समा गये।। पलटू दासजी कहते हैं कि धन्वन्तरि-जैसा वैद्य भी मर गया, कोई अमर नहीं है; देव, मानव, मुनि, योगी और यति; सभी काल के वश हैं।।
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।। मूल पद्य ।।

हमने बातें तहकीक किया, सबमें साहब भरपूर है जी।।
अपनी समझ कुआँ को पानी, कहिं नियरे कहिं दूर है जी।
गाफिल की ओर से सोय गया, चेतन को हाल हजूर है जी।
पलटू इस बात को ना मानै, तिसके मुख ऊपर धूर है जी।।

व्याख्या-हमने इस बात की यथार्थ खोज की है कि ईश्वर कहाँ रहते हैं, तो पाया कि ईश्वर सबमें भरपूर होकर रहते हैं (जैसे सब घट में आकाश भरपूर रहता है।) भिन्न-भिन्न मनुष्य की भिन्न-भिन्न समझ होती है, जैसे कुएँ-कुएँ का पानी किसी में नजदीक है और किसी में दूर है। जो सात्त्विक विचारवाला मनुष्य सद्ज्ञान में रहता हुआ भक्ति-योग का साधन करता है, उसके लिए ईश्वर उसके अन्दर ही नजदीक हैं। जो मनुष्य ऐसा नहीं है, उसके लिए ईश्वर दूर हैं।। यह भक्ति-योग का साधन जो सबका परम कर्त्तव्य है, नहीं करता है- साधन में चूका हुआ है, उसके अन्दर ईश्वर की ओर की कोई अनुभूति प्राप्त नहीं होती है, गोया इसकी ओर से ईश्वर सोये हुए हैं। परन्तु कथित उस भक्ति-योग के साधक को ईश्वर की ओर की अनुभूतियाँ होती रहती हैं, तो उनके लिए वे सामने ही प्रत्यक्ष विदित होते हैं। संत पलटू दासजी कहते हैं कि जो इस बात को नहीं मानते हैं, उनके मुख पर धूल है।।
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।। मूल पद्य ।।

आठ पहर निरखत रहै जैसे चन्द चकोर।।
जैसे चन्द चकोर पलक से टारत नाहीं।
चुगै बिरह से आग रहै मन चन्दै माहीं।।
फिरै जेहि दिस चन्द तेही दिस को मुख फेरै।
चन्दा जाय छिपाय आग के भीतर हेरै।।
मधुकर तजै न पदम जान से जाय बँधावै।
दीपक में ज्यों पतंग प्रेम से प्राण गँवावै।।
पलटू ऐसी प्रीति कर परधन चाहै चोर।
आठ पहर निरखत रहै, जैसे चन्द चकोर।।

अर्थ-(इस वाणी में संत पलटू साहब ने अन्तरंग साधन शाम्भवी मुद्रा-वैष्णवी मुद्रा-दृष्टि-साधन का वर्णन किया है और उपमान प्रमाण-द्वारा इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने बताया है कि) जैसे चकोर पक्षी बाह्याकाश में चन्द्रमा को एकटक से देखता रहता है, उसी भाँति साधक अन्तराकाश में अपने लक्ष्य को आठो पहर खूब मन लगाकर एकटक से देखता रहे।। जिस प्रकार चकोर अपनी आँख से चन्द्रमा को अलग नहीं हटाता, उसके वियोग के विरह में वह आग को चुगता है, फिर भी अपने मन को चन्द्रमा में ही लगाकर रखता है।। आकाश में चन्द्रमा जैसे-जैसे जिस ओर घूमता है, चकोर भी अपना मुँह वैसे-वैसे उस ओर घुमाता है। चन्द्रमा के छिप जाने पर वह आग के भीतर उसको खोजता है।। सूर्यास्त होने पर कमल फूल बन्द हो जाता है और भौंरा उसी में बँधकर रह जाता है। वह अपनी जान गँवाता है; किन्तु उस कमल का त्याग नहीं करता। जैसे दीपक-टेम के प्रेम में वशीभूत हो फतिंगा अपना प्राण देता है (उसी प्रकार साधक दृष्टि-योग का साधन करे)।। संत पलटू दासजी कहते हैं कि जिस प्रकार चोर दूसरे का धन लेने में प्रेम करता है, उसी तरह साधक दृष्टि-साधन-क्रिया से प्राप्तव्य-गुप्त धन के लिए प्रेम करे। तात्पर्य यह कि जैसे चकोर का प्रेम चन्द्रमा में, भ्रमर का कमल-फूल में, फतिंगे का दीपक-टेम में और चोर का पर-धन में होता है, वैसे ही साधक दृष्टियोग के साधन-द्वारा उक्त अन्तर्ज्योति-ब्रह्मज्योति के पाने में प्रेम करे।
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।। मूल पद्य ।।

हाथी घोड़ा खाक है, कहै सुनै सो खाक।।
कहै सुनै सो खाक, खाक है मुलुक खजाना।
जोरू बेटा खाक, खाक जो साचै माना।।
महल अटारी खाक, खाक है बाग बगैचा।
सेत सपेदी खाक, खाक है हुक्का नैचा।।
साल-दुसाला खाक, खाक मोतिन कै माला।
नौबतखाना खाक, खाक है ससुरा साला।।
पलटू नाम खुदाय का, यही सदा है पाक।
हाथी घोड़ा खाक है, कहै सुनै सो खाक।।

अर्थ-(संत पलटू साहब ने इस पद्य के द्वारा संसार की असारता का बोध दिलाया है। उन्होंने बताया है कि संसार की वस्तुओं में से कोई भी नित्य-स्थिर नहीं है; सभी अनित्य एवं अनस्थिर हैं)। हाथी और घोड़े मिट्टी हैं तथा जो कहते हैं और सुनते हैं, सभी मिट्टी हैं।। कहने और सुननेवाले मिट्टी हैं। देश अर्थात् राज्य, खजाना यानी कोष, सभी मिट्टी हैं। स्त्री और पुत्र सभी मिट्टी हैं तथा जो इनको सत्य करके मानते हैं, वे भी मिट्टी हैं अर्थात् वे एक दिन मिट्टी में मिल जायेंगे।। बहुत बड़े बढ़िया मकान, अट्टालिका, वाटिका वा उपवन; सभी मिट्टी हैं। सभी उजले-उजले अर्थात् बाहरी सफाई-तड़क-भड़क खाक यानी मिट्टी है तथा हुक्का और नैचा खाक हैं। तात्पर्य यह कि हुक्का और नैचा का व्यवहार कर शान-शौकत दिखलानेवाले भी खाक यानी मिट्टी हैं।। शाल-दुशाले और मोतियों के हार, सभी खाक हैं। नौबतखाना, ससुर और साले, सभी संबंध मिट्टी-ही-मिट्टी हैं।। संत पलटू साहब कहते हैं कि परम प्रभु परमात्मा का नाम ही सदा पवित्र है। अन्य हाथी और घोड़े आदि सभी मिट्टी-ही-मिट्टी हैं।।
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।। संत पलटू साहब की वाणी समाप्त ।।
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