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(10) . सन्त जगजीवन साहब की वाणी 

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।। मूल पद्य ।।

मन जब मगन भा मस्ताना।
भयो सीतल महाकोमल, नाहिं भावै आन।।1।।
डोरि लागी पोढ़ि गुरु तेँ, जगत तैं विलगान।
अहै मता अगाध तिनका, करै को पहिचान।।2।।
अहैं ऐसे जग्त माँ कोइ, कहत आहैं ज्ञान।
ऐसे निरमल ह्वै रहै हैं, जैसे निरमल भान।।3।।
बड़ा बल है ताहि केरे, थमा है असमान।
जग जिवन गुरु चरण परिकै, निर्गुण धरि ध्यान।।4।।

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।। मूल पद्य ।।

मन जब मगन भा मस्ताना।
भयो सीतल महाकोमल, नाहिं भावै आन।।1।।
डोरि लागी पोढ़ि गुरु तेँ, जगत तैं विलगान।
अहै मता अगाध तिनका, करै को पहिचान।।2।।
अहैं ऐसे जग्त माँ कोइ, कहत आहैं ज्ञान।
ऐसे निरमल ह्वै रहै हैं, जैसे निरमल भान।।3।।
बड़ा बल है ताहि केरे, थमा है असमान।
जग जिवन गुरु चरण परिकै, निर्गुण धरि ध्यान।।4।।

अर्थ-जब मन (प्रभु-प्रेम में) मग्न होकर मस्त हो गया, तो मन शीतल और सुकोमल (नम्र) हो गया। अब अन्य दूसरा कुछ नहीं सुहाता है।।1।। प्रगाढ़ प्रेम की डोरी गुरु से लगकर चित्त जगत् से पृथक् हो गया। जो ऐसी अगाध बुद्धिवाले हैं, उनकी पहचान कौन कर सकता है।।2।। उपर्युक्त गुणवाले संसार में कोई ऐसे हैं, जो ज्ञान कहते हैं अर्थात् औरों को उपदेश करते हैं। वे ऐसे पवित्र होते हैं, जैसे स्वच्छ-पवित्र सूर्य है।।3।। उसका विशाल बल है, जो आकाश में अड़े हैं अर्थात् जिनका ध्यान अविचलित रूप से शून्य में स्थिर है। जगजीवन साहब कहते हैं कि गुरु-चरणाश्रित होकर गुणातीत का ध्यान करते हैं।।4।।
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।। सन्त जगजीवन साहब की वाणी समाप्त ।।
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परिचय

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