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।। मूल पद्य ।।
झकझक्क लगा झकझक्क लगा रिमिझिमि का नुर बरसंदा है।
दस्तगीर जो पीर रहम किया फहम दी बात कहंदा है।।
चीराक रोसन महल हुआ, फुलगुल घनेरे आनन्दा है।
कहै दरिया दरस दीदंम करम मन्दिल में भावन्दा है।।
एम अलंम सो नाम सदाफल पीअत प्रेम गुँगे गुर खायो।
तींत ना मीठा खटा खटतूरस कासे कहें मानों अम्रित पायो।।
सूरति मूरति नीरति नीरषि सूइ में जाए सुमेर समायो।
दरिया जो कहै जब ज्ञान नहीं कथनी कथि मूरख मूल गँवायो।।
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।। मूल पद्य ।।
जाके अनभो आगि लगी।
कसमल सकल जरी तन भीतर, ऐसो प्रेम पगी।।
बिन मसि लिखे कलम बिनु कागज, अगम निगम ततु सारा।
ब्रह्म निरूपणि भेद विचारो, ज्ञान रतन के धारा।।
जेँव मराल निर छिर विवरण, कियो वोइसी बुद्धि सरीरा।
हंस दसा कुल वंस बापुरे, सभ मति भैगौ थीरा।।
आम्रित बुन्द परे फुहकारा, परिमल बास सुबासा।
गगन मधे सुरति रोपो, देखो अजब तमासा।।
विमल विमल पद करो विचारा, निरमल निरखत मोती।
कहै दरिया सतगुरु की महिमा, जगमग झलके जोती।।
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।। मूल पद्य ।।
काया गढ़ कनक मन रावना मद है, कुमति कुंभकरन मदमस्त माता।
मेघनाद गर्व है गरजि बाते करे, सुन बे मूढ़ फिर होत पाता।।
भक्त भभीखना भरम जाके नहीं, राम के काम में आप राता।
कहै दरिया उन्हि सर्व कुल नासिया, दाया मन्दोदरि कहत बाता।।
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।। मूल पद्य ।।
सन्तो साधु लच्छन निज बरना।
विगसित नैन बोलु सतबानी, देखु कमल दल चरना।।
उँचे नीचे चलब संभारे, समुझि समुझि पग धरना।
परमारथ पर पीर जो जाने, पर आतम के भरना।।
सिंह ठवनि धरि जुथ जेहि नाहीं, जियतहिं भोजन करना।
म्रीतक मंद दूरि परित्यागहु, ऐसो पेट ना भरना।।
दया दीनता लीन चरन में, एक दसा निजु धरना।
कहै दरिया सुक्रित दिल साचो, भवसागर में तरना।।
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।। मूल पद्य ।।
याफ्रत तदबीर है दिल के बीच में, कुदरत मस्जीद बनाय दीता।
दोय बीच जो लाल अजब लागे, तहाँ जोति का नूर प्रगट्ट कीता।।1।।
यह चित्त के चोभ में बाँग देवै, यह नाम नीशान नजर लीता।
कहै दरिया दाना दिल के बीच, अलफ अलह को याद कीता।।2।।
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।। मूल पद्य ।।
सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम। सब विधि पूँजी सुफल काम।।1।।
निर्गुन नाह से करहु प्रीति। लेहु कायागढ़ काम जीति।।2।।
ऐनक मूल है शब्द सार। चहुँ ओर दीसै रंग करार।।3।।
झरत झरी तहाँ झमकै नूर। चित चकमक गहि बाजु तूर।।4।।
झलकत पदम गगन उजियार। दिव्य दृष्टि गहु मकर तार।।5।।
द्वादश इँगला पिंगला जाय। परिमल बास अग्र सो पाय।।6।।
बंक कमल मध हीरा अमान। सेत बरन भौंरा तहाँ जान।।7।।
खोजहु सतगुरु सत्त निसान। जुगति जानि जिन कथहिं ज्ञान।।8।।
कहै दरिया यह अकह मूल। आवागमन के मेटै सूल।।9।।
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।। मूल पद्य ।।
जानिले जानिले सत्त पहिचानि ले सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।1।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै चैन चंगा हुआ जीति दाना।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै जागता जिन्द है देखु ध्याना।।2।।
पीर पंजा दिया रसद दाया किया मसत माता रहै आपु ज्ञाना।
हुआ बेकैद यह और सभ कैद में झूमता दिव्य निशान बाना।।3।।
गगन घहरान वए जिन्द अमान है जिन्हि यह जगत सब रचा खाना।
कहै दरिया सर्वज्ञ सब माहिं है कफा सब काटि के कुफुर हाना।।4।।
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।। सन्त दरिया साहब (बिहारी) की वाणी समाप्त ।।
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।। मूल पद्य ।।
झकझक्क लगा झकझक्क लगा रिमिझिमि का नुर बरसंदा है।
दस्तगीर जो पीर रहम किया फहम दी बात कहंदा है।।
चीराक रोसन महल हुआ, फुलगुल घनेरे आनन्दा है।
कहै दरिया दरस दीदंम करम मन्दिल में भावन्दा है।।
एम अलंम सो नाम सदाफल पीअत प्रेम गुँगे गुर खायो।
तींत ना मीठा खटा खटतूरस कासे कहें मानों अम्रित पायो।।
सूरति मूरति नीरति नीरषि सूइ में जाए सुमेर समायो।
दरिया जो कहै जब ज्ञान नहीं कथनी कथि मूरख मूल गँवायो।।
अर्थ-(ध्यानाभ्यासी साधक अपने अन्दर साधना करते हुए विभिन्न दृश्यों का अवलोकन करता है और उस समय वह आन्तरिक अनुभूतियों को प्राप्त कर हर्षातिरेक हो अपना उद्गार अभिव्यक्त करता है।) चकमक-चकमक झकाझक लगता है और अन्तराकाश में प्रकाश की वर्षा होती है। हाथ पकड़नेवाले गुरु ने जो कृपा की, तो उन्होंने यह सूझ की बात कही।। अपने शरीर-रूप भवन में प्रदीप का प्रकाश हुआ और अनेकों खिले फूल नजर आए अर्थात् चतुर्दिक् प्रकाश-ही-प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। (‘जैसे मन्दिर दीपक बारा। ऐसे जोति होत उजियारा।।’-सन्त तुलसी साहब, हाथरस) दरिया साहब कहते हैं कि दया-रूप मन्दिर में प्रभु का दर्शन करके बड़ा सुहावना लगा।। जिस प्रकार गूँगा गुड़ खाकर उसके स्वाद के सम्बन्ध में कुछ भी व्यक्त नहीं कर सकता, उसी भाँति उस एक प्रभु का नाम, जो सदा फल-ही-फल है, अवलम्ब ग्रहण कर प्रेम से पान कर उनका वर्णन नहीं किया जाता। वह न तो तीता है, न मीठा और न खट्टा वा खटरस ही है। किससे कहा जाय? वह तो ऐसा है, जैसे मानो अमृत ही पा लिया। मूर्त्ति में सुरत को विशेष रत कर देखा, तो सूई में पर्वत जाकर समा गया अर्थात् दृष्टि-साधना की क्रिया द्वारा एकविन्दुता प्राप्त करने पर बाह्य संसार (विश्व-ब्रह्माण्ड) की विलीनता हो गयी। दरिया साहब कहते हैं कि जबतक प्रत्यक्ष ज्ञान (अनुभव ज्ञान) नहीं हुआ, तबतक केवल वाक्य-ज्ञान में मूर्ख ने अपनी पूँजी गँवा दी।।
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।। मूल पद्य ।।
जाके अनभो आगि लगी।
कसमल सकल जरी तन भीतर, ऐसो प्रेम पगी।।
बिन मसि लिखे कलम बिनु कागज, अगम निगम ततु सारा।
ब्रह्म निरूपणि भेद विचारो, ज्ञान रतन के धारा।।
जेँव मराल निर छिर विवरण, कियो वोइसी बुद्धि सरीरा।
हंस दसा कुल वंस बापुरे, सभ मति भैगौ थीरा।।
आम्रित बुन्द परे फुहकारा, परिमल बास सुबासा।
गगन मधे सुरति रोपो, देखो अजब तमासा।।
विमल विमल पद करो विचारा, निरमल निरखत मोती।
कहै दरिया सतगुरु की महिमा, जगमग झलके जोती।।
अर्थ-जिसको समाधि-साधन-द्वारा अनुभव की आग लगती है, उसका प्रेम ऐसा परिपक्व होता है कि उसके शरीर के अन्दर सभी कल्मष-पाप-दुर्गुण जलकर भस्मसात् हो जाते हैं।। वह वेद-शास्त्र के सारतत्त्व को स्याही, कलम और कागज के बिना ही लिखता है अर्थात् अपनी अनुभूति से उसे अपनी बुद्धि में धारण करता है। ज्ञान-रत्न की धारा में ब्रह्म-स्वरूप-निर्णय और उसकी प्राप्ति की युक्ति का विचार करता है।। जिस तरह हंस दूध और जल को पृथक्-पृथक् कर देता है, उसी तरह सारासार-सत्यासत्य-निर्णयात्मिका बुद्धि उसके शरीर में होती है। जिन सबों ने हंस-दशा को प्राप्त किया, तुच्छ वंश के होने पर भी उन सबकी बुद्धि स्थिर हो गई।। विशुद्ध सुगन्ध में निवास करते अमृत-बूँद की झड़ी झड़ती है। आकाश के मध्य में सुरत को स्थिर कर आश्चर्यमय तमाशा देखो।। निर्मल मोती को निरखते हुए निर्मल पद का विचार करो। दरिया साहब कहते हैं कि सद्गुरु के प्रताप से जगमगाती हुई ज्योति झलकती है।
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।। मूल पद्य ।।
काया गढ़ कनक मन रावना मद है, कुमति कुंभकरन मदमस्त माता।
मेघनाद गर्व है गरजि बाते करे, सुन बे मूढ़ फिर होत पाता।।
भक्त भभीखना भरम जाके नहीं, राम के काम में आप राता।
कहै दरिया उन्हि सर्व कुल नासिया, दाया मन्दोदरि कहत बाता।।
अर्थ-शरीर-रूप सोने के गढ़ में अहंकारी मन रावण है और कुबुद्धि-रूपी कुम्भकर्ण अहंकार के नशे में चूर है। गर्जन कर गौरव या घमण्ड से बात करनेवाला मेघनाद है। अरे मूर्ख! सुनो, इससे पुनः पुनः पतन होता है।। भ्रम-विहीन जन भक्त विभीषण है, जो राम के काम में स्वयं संलग्न रहता है। सन्त दरिया साहब कहते हैं कि उन्होंने अर्थात् रावण और कुम्भकर्ण ने अपने कुल का सर्वनाश कर दिया, दया-रूपा मन्दोदरी यह बात कहती है।।
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।। मूल पद्य ।।
सन्तो साधु लच्छन निज बरना।
विगसित नैन बोलु सतबानी, देखु कमल दल चरना।।
उँचे नीचे चलब संभारे, समुझि समुझि पग धरना।
परमारथ पर पीर जो जाने, पर आतम के भरना।।
सिंह ठवनि धरि जुथ जेहि नाहीं, जियतहिं भोजन करना।
म्रीतक मंद दूरि परित्यागहु, ऐसो पेट ना भरना।।
दया दीनता लीन चरन में, एक दसा निजु धरना।
कहै दरिया सुक्रित दिल साचो, भवसागर में तरना।।
अर्थ-हे सन्त जन! मैं साधु के लक्षण का वर्णन करता हूँ। उन साधु की अन्तर्दृष्टि खुली होती है, सत्यभाषण करते हैं और अपने इष्ट के चरण-कमलों का अवलोकन करते हैं।। वे ऊँचे-नीचे पथ में सँभलकर चलते हैं और विचार-विचारकर पैर रखते हैं। जो परमार्थ और दूसरे के दुःख को जानते हैं और अन्यों के अभाव की पूर्त्ति करते हैं।। जो सिंह की रीति को धारण करते हैं अर्थात् झुण्ड में नहीं रहकर निर्भय और अकेले रहते हैं और जीवित का ही भोजन करते हैं। तात्पर्य यह कि प्रेमी जन की सेवा को स्वीकार करते हैं, भावहीन का नहीं।
‘साध सिंह का एक मत, जीवत ही को खाय।
भावहीन मिरतक दशा, ताके निकट न जाय।।’
-सन्त कबीर साहब
मृतक अर्थात् भावहीन और मन्दबुद्धि जन का दूर से परित्याग करते हैं। ऐसे के संग में रहकर अपना पेट नहीं भरते हैं अर्थात् उनका भोजन नहीं करते हैं।। दया और गरीबी भाव को रखते हुए प्रभु-चरण में लीन रहते हैं और अपनी मनोदशा को एक तरह बनाए रखते हैं। सन्त दरिया साहब कहते हैं कि ऐसे सुकर्मी और सच्चे हृदय के साधु जन संसार से निस्तार (उद्धार) पाते हैं।।
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।। मूल पद्य ।।
याफ्रत तदबीर है दिल के बीच में, कुदरत मस्जीद बनाय दीता।
दोय बीच जो लाल अजब लागे, तहाँ जोति का नूर प्रगट्ट कीता।।1।।
यह चित्त के चोभ में बाँग देवै, यह नाम नीशान नजर लीता।
कहै दरिया दाना दिल के बीच, अलफ अलह को याद कीता।।2।।
भावार्थ-कुदरती मस्जिद-ठाकुरबाड़ी (शरीर) के अन्तःकरण में मैंने युक्ति प्राप्त की है। दोनों (नेत्रें) के बीचोबीच में एक आश्चर्यमयी लाल-लाल रंग की मणि लगी हुई है, वहाँ प्रकाश प्रकट प्राप्त किया।।1।। चित्त की विशेष संलग्नता में जोर की आवाज हो रही है, यह नाममय परमात्मा का चिह्न है, उसका प्रत्यक्ष ज्ञान-लाभ किया। सन्त दरिया साहब कहते हैं कि बुद्धिमान अपने अन्दर उस परमात्मा का उपर्युक्त विधि से भजन किया करते हैं।।2।।
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।। मूल पद्य ।।
सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम। सब विधि पूँजी सुफल काम।।1।।
निर्गुन नाह से करहु प्रीति। लेहु कायागढ़ काम जीति।।2।।
ऐनक मूल है शब्द सार। चहुँ ओर दीसै रंग करार।।3।।
झरत झरी तहाँ झमकै नूर। चित चकमक गहि बाजु तूर।।4।।
झलकत पदम गगन उजियार। दिव्य दृष्टि गहु मकर तार।।5।।
द्वादश इँगला पिंगला जाय। परिमल बास अग्र सो पाय।।6।।
बंक कमल मध हीरा अमान। सेत बरन भौंरा तहाँ जान।।7।।
खोजहु सतगुरु सत्त निसान। जुगति जानि जिन कथहिं ज्ञान।।8।।
कहै दरिया यह अकह मूल। आवागमन के मेटै सूल।।9।।
भावार्थ-हे सन्तो! निर्गुण अजर नाम का भजन करो। सफल-मनोरथ होने के लिए वह सब तरह की पूँजी है।।1।। निर्गुण परमात्म-प्रभु से प्रीति करो और अपने कायागढ़ में काम को जीत लो।।2।। सारशब्द मुख्य या प्रधान चश्मा है, जिसको प्राप्त करने से सब ओर स्थिर रंग (परमात्म-स्वरूप) ही झलकता है।।3।। वहाँ प्रकाश की ज्योति होती रहती है। स्वच्छ और साफ (पवित्र) चित्त को पकड़कर रखो, तो तुरही बजती हुई अनहद ध्वनि सुनोगे।।4।। आकाशी कमल या मण्डल प्रकाश से प्रकाशित झलकता है। दिव्य दृष्टि से मकर तार1 को पकड़ो।।5।। यदि इड़ा-पिंगला 2बारह पर जाय, तो अगर-चन्दन की सुगन्धित गन्ध अभ्यासी को प्राप्त हो।।6।। जिस कमल या मण्डल में कठिनाई से प्रवेश होता है, उसमें बिना माप का हीरा है और वहाँ मन-रूप भौंरा उज्ज्वल या पवित्र हो जाता है, ऐसा जानो।।7।। सत्य चिह्न या सत्य ग्रहण करनेवाले सद्गुरु की खोज करो, जो युक्ति3 जानकर ज्ञान कथन करते हैं।।8।। दरिया साहब यह कहते हैं कि मूल अकथनीय है, जो आवागमन के शूल या दुःख को मेट देता है।।9।।
[1- सुरत का वह निज तार या धार जिसके ऊपर होकर सुरत का उतार ऊपर के मण्डलों से नीचे पिण्ड में हुआ है। उसी धार को पकड़कर पिण्ड से ब्रह्माण्ड में और उससे भी ऊपर उसकी चढ़ाई होगी। ठीक मकड़े की तरह जो अपने ही तार पर ऊपर से नीचे उतरता है और उसी के सहारे ऊपर चढ़ता है।
2- यह गुर-गम्य रहस्य की बात है।
3- भजन-भेद।]
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।। मूल पद्य ।।
जानिले जानिले सत्त पहिचानि ले सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।1।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै चैन चंगा हुआ जीति दाना।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै जागता जिन्द है देखु ध्याना।।2।।
पीर पंजा दिया रसद दाया किया मसत माता रहै आपु ज्ञाना।
हुआ बेकैद यह और सभ कैद में झूमता दिव्य निशान बाना।।3।।
गगन घहरान वए जिन्द अमान है जिन्हि यह जगत सब रचा खाना।
कहै दरिया सर्वज्ञ सब माहिं है कफा सब काटि के कुफुर हाना।।4।।
भावार्थ-हे लोगो! जानो और सत्य की पहचान करो। यह सच्ची बात है कि सुरत आँख की पुतली में बसती है। इसको अर्थात् स्थूल अन्धकारमय कपाट को खोलो, तो सहज ही रास्ता मिल जायगा। हे विचार में निपुण पुरुष! पल-भर भी दिव्य दृष्टि को तानो।।1।। ऐन या आँख के घर में शब्द ध्वनित होता रहता है। जो दाना या विन्दु को जीत लेता है, वही सुखी और स्वस्थ (मानस रोग-रहित) हो जाता है। उसके मस्तक में मणि जलती है, उसकी दुहाई फिर जाती है। चेतन पुरुष जागता हुआ है, ध्यान में देखो।।2।। गुरु ने आज्ञा दी और ज्ञान-रूपी रसद अर्थात् मोक्ष-साधन में ज्ञान-रूप भोजन भी देने की दया की, जिससे कि शिष्य निज ज्ञान में मस्त-माता हुआ रहता है। यह भक्त बन्धन-रहित हो गया और वे सब जिनके यहाँ दिव्य निशान फहराते और झूमते रहते हैं अर्थात् जो बड़े ऐश्वर्यशाली सब लोग हैं, वे कैद में पड़े हैं।।3।। अन्तराकाश की गम्भीर ध्वनि प्रकट होती है, तो वह उपमा-रहित चेतन पुरुष प्रत्यक्ष होता है, जिसने इस सारी सृष्टि को साजा है। दरिया साहब कहते हैं कि वह सर्वज्ञ पुरुष सर्वव्यापी है। मैंने कफाओं-कैफियतों, संशयों और सन्देहों अथवा अनावश्यक तर्कों को काटकर नास्तिकता को दूर किया।।4।।
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।। सन्त दरिया साहब (बिहारी) की वाणी समाप्त ।।
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