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(6) . संत दादू दयालजी की वाणी
[ आप आपण में खोजौ रे भाई।]

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।। मूल पद्य ।।

आप आपण में खोजौ रे भाई। वस्तु अगोचर गुरू लखाई।।टेक।।
ज्यूँ दही विलोयें माखन आवै। त्यों मन मथियाँ तें तत पावै।।1।।
काठ हुतासन रह्या समाई। त्यूँ मन माहिं निरंजन राई।।2।।
ज्यूँ अवनी में नीर समाना। त्यूँ मन माँहि साच सयाना।।3।।
ज्यूँ दर्पण के नहिं लागै काई। त्यूँ मुरति माहैं निरखि लखाई।।4।।
सहजैं मन मथियाँ ते तत पाया। दादू उन तौ आप लगाया।।5।।
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  ।। सन्त दादू दयालजी की वाणी समाप्त ।। 
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।। मूल पद्य ।।

आप आपण में खोजौ रे भाई। वस्तु अगोचर गुरू लखाई।।टेक।।
ज्यूँ दही विलोयें माखन आवै। त्यों मन मथियाँ तें तत पावै।।1।।
काठ हुतासन रह्या समाई। त्यूँ मन माहिं निरंजन राई।।2।।
ज्यूँ अवनी में नीर समाना। त्यूँ मन माँहि साच सयाना।।3।।
ज्यूँ दर्पण के नहिं लागै काई। त्यूँ मुरति माहैं निरखि लखाई।।4।।
सहजैं मन मथियाँ ते तत पाया। दादू उन तौ आप लगाया।।5।।

अर्थ-(इस पद्य में सन्त दादू दयालजी ने विविध उपमान-प्रमाणों के द्वारा यह समझाने की चेष्टा की है कि ईश्वर की प्राप्ति कहाँ और कैसे होती है। वे कहते हैं-) हे भाई! अपने को अपने में खोजो। वह इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं आनेवाली वस्तु गुरु ने लखायी है। तात्पर्य यह कि अपनी खोज और पहचान के बिना ईश्वर की खोज और पहचान नहीं हो सकती।।टेक।। जिस प्रकार दही के मथने से मक्खन निकलता है, उसी प्रकार मन के मंथन से तत्त्व अर्थात् सार वस्तु की प्राप्ति होती है।।1।। जैसे लकड़ी में अग्नि व्यापक है, उसी भाँति मन में माया-रहित अर्थात् शुद्ध चेतन के स्वामी सर्वेश्वर (परमात्मा) हैं।।2।। जैसे पृथ्वी में पानी समाया हुआ है, उसी प्रकार हे चतुर जन! मन में सत्य है।।3।। जैसे शीशे में काई नहीं लगती, वैसे ही वह काई-हीन निरंजन साधन की दृष्टि से लौलीनता-पूर्वक देखने पर शरीर-रूप मूर्त्ति में देखा जाता है।।4।। दादू दयालजी कहते हैं कि स्वाभाविक डोर यानी शब्द की डोरी अर्थात् सुरत-शब्द-योग के द्वारा मन का मंथन करके सार वस्तु को प्राप्त किया। उन सार वस्तु-रूप परमात्मा ने तो अपने में मुझको लगा लिया।।5।।

।। सन्त दादू दयालजी की वाणी समाप्त ।।  

परिचय

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