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।। मूल पद्य ।।
सतसंगति मगन पाइये। गुर परसादैं राम गाइये।।टेक।।
आकाश धरनि धरीजै, धरनी आकाश कीजै।
सुन्नि माहैं निरखि लीजै।।1।।
निरखि मुकताहल माहैं आइर आयो।
अपने पिया हौं धावत खोजत पायो।।2।।
सेचि साइर अगोचर लहिये।
देव देहरे माहैं कौन कहिये।।3।।
हरि कौ हितारथ ऐसौ लखै न कोई ।
दादू जे पीव पावै अमर होई ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
सतसंगति मगन पाइये। गुर परसादैं राम गाइये।।टेक।।
आकाश धरनि धरीजै, धरनी आकाश कीजै।
सुन्नि माहैं निरखि लीजै।।1।।
निरखि मुकताहल माहैं आइर आयो।
अपने पिया हौं धावत खोजत पायो।।2।।
सेचि साइर अगोचर लहिये।
देव देहरे माहैं कौन कहिये।।3।।
हरि कौ हितारथ ऐसौ लखै न कोई ।
दादू जे पीव पावै अमर होई ।।4।।
अर्थ-जब अपने को सत्संग में संलग्न पाइए, तब गुरु के प्रसाद से राम का भजन कीजिए।। आकाश में हठपूर्वक रहिए अर्थात् धरना दीजिए, आकाश को आधार बनाइए और आकाश के अन्दर देख लीजिए।।1।। मोती* को देखकर जीवन प्राप्त हुआ अर्थात् अध्यात्म-जीवन प्राप्त हुआ। अपने प्रभु को मैंने शीघ्रता से चलकर प्राप्त किया।।2।। सोच-विचारकर अर्थात् अच्छी तरह मनन करके इन्द्रियातीत समुद्र को प्राप्त कीजिए। उस अगोचर समुद्र को अर्थात् परम प्रभु परमेश्वर को संसार के देवालयों में प्राप्त करने को कौन कहता है?।।3।। उस हरि का, यथार्थ में उन देवालयों में कोई नहीं दर्शन पाता है। दादू दयालजी कहते हैं कि जो प्रभु को पाता है, वह अमर होता है।।4।।
[*मेरी नजर में मोती आया है।
है तिल के तिल के तिल भीतर, विरले साधू पाया है।।
-सन्त कबीर साहब
श्याम कंज लीला गिरि सोई। तिल परिमाण जान जन कोई।।
-सन्त तुलसी साहब ]
परिचय
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