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(6) . संत दादू दयालजी की वाणी
[दादू जानै न कोई, सन्तन की गति गोई]

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।। मूल पद्य ।।

दादू जानै न कोई, सन्तन की गति गोई ।।टेक।।
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।1।।
अण्ड न पिण्ड खण्ड ब्रह्मण्डा, सूरत सिन्ध समोई ।
निराकार आकार न जोती, पूरन ब्रह्म न होई ।।2।।
इनके पार सार सोइ पइहैं, मन तन गति पति खोई ।
दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई ।।3।।
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।। मूल पद्य ।।

दादू जानै न कोई, सन्तन की गति गोई ।।टेक।।
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।1।।
अण्ड न पिण्ड खण्ड ब्रह्मण्डा, सूरत सिन्ध समोई ।
निराकार आकार न जोती, पूरन ब्रह्म न होई ।।2।।
इनके पार सार सोइ पइहैं, मन तन गति पति खोई ।
दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई ।।3।।

शब्दार्थ-अगोई=अकथनीय, वर्णनातीत।

भावार्थ-दादू दयालजी कहते हैं कि सन्तों की गति छिपी हुई है, जिसको सर्वसाधारण में से कोई नहीं जानता है। उनकी गति अन्तर-पट के अन्त में, बुद्धि से परे, वर्णनातीत और अथाह सर्वव्यापी परमात्मा तक है, जो तीन शून्यों1 के पार में और निर्गुण-सगुण दोनों ब्रह्म-रूपों से परे है2।।1।। वह परमात्मा ब्रह्माण्ड-रूप, ब्रह्माण्ड का खण्ड-रूप और पिण्ड-रूप नहीं है। उसमें चेतन का समुद्र समाया हुआ है। वह आकार और ज्योति-विहीन है3 और वह पूर्ण ब्रह्म4 भी नहीं है।।2।। इनके पार (पूर्ण ब्रह्मपद के पार, साकार और ज्योति के पार, ब्रह्माण्ड और पिण्ड के पार, तीन शून्यों के पार और निर्गुण-सगुण के पार) वह सार पदार्थ है। जो मन, तन, गति (चाल) और पति (सांसारिक प्रतिष्ठा) को खोयेंगे, वे उसको पायेंगे। दादू दयालजी कहते हैं कि दीन होकर अपने चित्त को उस प्रभु के चरणों में लगाते हुए मैं उनकी शरण में हूँ।।3।।  


[1- अन्धकाराकाश, प्रकाशाकाश तथा शब्दाकाश।
2- जड़-त्रयगुणात्मिका मूल अपरा प्रकृति अथवा क्षर पुरुष-सगुण।
चेतनात्मिका परा प्रकृति, अक्षर पुरुष-निर्गुण।
3- प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्।
अतद्व्यावृत्ति रूपोऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।। (मुक्तिकोपनिषद्)
4- सारे प्रकृति-मण्डल में व्यापक परमात्म-अंश ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है। प्रकृति-मण्डल के बाहर, व्याप्य-विहीन, अनादि, अनन्त परमात्म-स्वरूप को पूर्ण ब्रह्मपद से उच्च माना जाता है।] 

परिचय

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