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(6) . संत दादू दयालजी की वाणी
[जोगिया बैरागी बाबा।]

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।। मूल पद्य ।।

जोगिया बैरागी बाबा। रहै अकेला उनमनि लागा ।।
आतमा जोगी धीरज कंथा। निहचल आसण आगम पंथा ।।
सहजैं मुद्रा अलख अधारी। अनहद सिंगी रहणि हमारी ।।
काया बनखंड पाँचौं चेला। ज्ञान-गुफा में रहै अकेला ।।
दादू दरसन कारनि जागै। निरंजन नगरी भिष्या माँगै ।।
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।। मूल पद्य ।।

जोगिया बैरागी बाबा। रहै अकेला उनमनि लागा ।।
आतमा जोगी धीरज कंथा। निहचल आसण आगम पंथा ।।
सहजैं मुद्रा अलख अधारी। अनहद सिंगी रहणि हमारी ।।
काया बनखंड पाँचौं चेला। ज्ञान-गुफा में रहै अकेला ।।
दादू दरसन कारनि जागै। निरंजन नगरी भिष्या माँगै ।।

शब्दार्थ-आगम=मिलाप। रहणि=प्रेम।

भावार्थ-योगी वैरागी बाबा उन्मनी में (मनोलय की मुद्रा में) संलग्न रहते हुए अकेले रहते हैं।। जीवात्म-भाव में जीवात्म-रूप से वे योगी बने रहते हैं, धैर्य की गुदड़ी पहने रहते हैं, अचल आसन से बैठते हैं और प्रभु परमात्मा से मिलाप के रास्ते पर वे चलते रहते हैं।। वे सहज ढंग से अलख प्रभु के अवलम्ब से रहते हैं और अनहद ध्वनि की सिंगी में प्रेम रखते हुए रहते हैं।। पाँचो ज्ञान-इन्द्रियों को चेला बनाकर अर्थात् वश में रखकर काया-रूपी जंगल की ज्ञान-गुफा में वे अकेले रहते हैं।। दादू दयाल साहब कहते हैं कि वे दर्शन के वास्ते जगते हैं और निर्मायिक पद में भिक्षा माँगते हैं।।  

परिचय

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