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।। मूल पद्य ।।
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सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उल्टा माहिं समाइ ।।1।।
क्यों करि उल्टा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।।2।।
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यौं रहै, तब हीं बीखरि जाइ ।।3।।
तन में मन आवै नहीं, निस दिन बाहरि जाइ ।
दादू मेरा जिव दुखी, रहै नहीं ल्यौ लाइ ।।4।।
कोटि जतन करि करि मुए, यहु मन दह दिसि जाइ ।
राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ।।5।।
मन हीं सन्मुख नूर है, मन हीं सन्मुख तेज ।
मन हीं सन्मुख जोति है, मन हीं सन्मुख सेज ।।6।।
मन हीं सौं मन थिर भया, मन हीं सौं मन लाइ ।
मन हीं सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।7।।
सबदैं बन्ध्या सब रहै, सबदैं सब ही जाइ ।
सबदैं ही सब ऊपजै, सबदैं सबै समाइ ।।8।।
सबदैं ही सूषिम भया, सबदैं सहज समान ।
सबदैं ही निर्गुण मिलै, सबदैं निर्मल ज्ञान ।।9।।
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगै पीछैं तौं करे, जे बलहीणा होइ ।।10।।
जंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।11।।
पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होइ ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ ।।12।।
सबद जरै सो मिलि रहै, एकै रस पूरा ।
काइर भाजै जीव ले, पग माँड़ै सूरा ।।13।।
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।। मूल पद्य ।।
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सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उल्टा माहिं समाइ ।।1।।
क्यों करि उल्टा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।।2।।
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यौं रहै, तब हीं बीखरि जाइ ।।3।।
तन में मन आवै नहीं, निस दिन बाहरि जाइ ।
दादू मेरा जिव दुखी, रहै नहीं ल्यौ लाइ ।।4।।
कोटि जतन करि करि मुए, यहु मन दह दिसि जाइ ।
राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ।।5।।
मन हीं सन्मुख नूर है, मन हीं सन्मुख तेज ।
मन हीं सन्मुख जोति है, मन हीं सन्मुख सेज ।।6।।
मन हीं सौं मन थिर भया, मन हीं सौं मन लाइ ।
मन हीं सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।7।।
सबदैं बन्ध्या सब रहै, सबदैं सब ही जाइ ।
सबदैं ही सब ऊपजै, सबदैं सबै समाइ ।।8।।
सबदैं ही सूषिम भया, सबदैं सहज समान ।
सबदैं ही निर्गुण मिलै, सबदैं निर्मल ज्ञान ।।9।।
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगै पीछैं तौं करे, जे बलहीणा होइ ।।10।।
जंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।11।।
पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होइ ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ ।।12।।
सबद जरै सो मिलि रहै, एकै रस पूरा ।
काइर भाजै जीव ले, पग माँड़ै सूरा ।।13।।
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भावार्थ-तन-मन में पसर जाना, ऐसा सब किसी को होता है; परन्तु ऐसे कोई-कोई होते हैं, जो उलटकर अपने अन्दर में समाते हैं।।1।। मन को बहिर्मुख से उलटाकर अन्तर्मुख कैसे लावें? यह मन फिर बहिर्मुख फैल गया। दादू दयालजी कहते हैं कि स्वाभाविक (शब्द-) धारा में मन को लगाकर उसे बाहर से घेर-घेरकर इस तरह अन्दर में लावै।।2।। साधक अन्तर्नाद से मिलकर रहें, तो मन को अन्तर में विलम्ब से ठहराकर रखें। साधक शब्द के बिना क्यों रहता है? शब्द में बिना लगे हुए मन बिखर जाता है।।3।। यह मन दिन-रात बाहर-बाहर भागता है, शरीर के अन्दर नहीं आता है-लौ लगाकर अन्दर में नहीं रहता है। दादू दयालजी कहते हैं कि इससे मेरा जीव दुःखी है।।4।। करोड़ों जतन करके थकते-मरते हैं, परन्तु यह मन अन्तर्मुख में एकाग्र भाव को छोड़कर दसो दिशाओं में भाग जाता है। रामनाम (ऊपर-कथित सर्वव्यापक अन्तर्नाद) से रुका हुआ रहता है, दूसरा यत्न नहीं है।।5।। मन के सम्मुख ही प्रकाश है और आराम का स्थान है।।6।। दादू दयालजी कहते हैं कि तन-मन (पिण्डी मन) को निज-मन-आत्ममुखी मन (ब्रह्माण्डी मन) से लगाकर मन के सहारे मन स्थिर हो गया। अब दूसरी जगह नहीं जाता है।।7।। शब्द से बँधे हुए सब रहते हैं, शब्द में ही सब जाते हैं। शब्द से ही सब उत्पन्न होते हैं और शब्द में ही समा जाते हैं।।8।। शब्द-अभ्यास द्वारा ही वृत्ति सूक्ष्म होती है, शब्द-द्वारा ही आसानी से अन्तर में समाव होता है, शब्द-द्वारा ही निर्गुण ब्रह्म मिलते हैं और शब्द-द्वारा ही पवित्र ज्ञान मिलता है।।9।। प्रभु परमात्मा ऐसा समर्थ है कि एक ही शब्द से उन्होंने सब रचना की है। एक के बाद दूसरा आगे-पीछे जो करता है, वह शक्तिहीन होता है।।10।। दादू दयालजी कहते हैं कि ब्रह्माण्ड और पिण्ड-रूपी यन्त्रें को कारीगर परमात्मा ने व्यवस्थित रूप से संगठित कर बनाया है और उनमें पाँचो नाद अपने-अपने कारणों के सहित हैं।।11।। सृष्टि के पाँच मण्डल शब्द से उत्पन्न हुए हैं और उनके पाँचो केन्द्रों से शब्द होते हैं। मरे प्रभु ने यह सब किया है। इसको कोई बिरले ही बूझते हैं।।12।। जो शब्द में जल जाता है अर्थात् शब्द-अभ्यास करते-करते जो द्वैत भाववाले अपने आपा को उसमें जला देता है, वह परमात्मा से मिलकर रहता है। परन्तु इस काम के करने में जो साहसहीन है-जो कायर है, वह इस काम से भागता है और जो शूरमा है, वह इस साधन में जमा रहता है अर्थात् दृढ़ता से साधन करता है।।13।।
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परिचय
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