free bootstrap themes

(6) . संत दादू दयालजी की वाणी
[1. निराधार निज देखिये]

*********************
।। मूल पद्य, साखी ।।
*********************
निराधार निज देखिये, नैनहु लागा बन्द।
तहँ मन खेलै पीव सौं, दादू सदा अनन्द।।1।।
*********************
नैनहुँ आगें देखिये, आतम अन्तर सोइ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ।।2।।
*********************
अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास।
जोति सरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास।।3।।
*********************
सबद अनाहद हम सुन्या, नख सिख सकल सरीर।
सब घटि हरि-हरि होत है, सहजै ही मन थीर।।4।।
*********************
सबदैं सबद समाइले, पर आतम सों प्राण।
यहु मन मन सौं बाँधि ले, चित्तैं चित्त सुजाण।।5।।
*********************
दृष्टै दृष्टि समाइले, सुरतैं सुरत समाइ।
समझैं समझि समाइले, लै सों लै ले लाइ।।
*********************
जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव।।
*********************
सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं।
लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं।।
*********************
सुन्नहिं मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाइ।
चेतन पेंड़ा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ।।
*********************
सुरत समाइ सनमुख रहै, जुगि जुगि जन पूरा।
दादू प्यासा प्रेम का, रस पीवै सूरा।।
*********************
दादू उलटि अपूठा आप में, अंतरि सोधि सुजाण।
सो ढिग तेरी बावरे, तजि बाहिर की बाण।।
*********************
सुरति अपूठी फेरि कर, आतम माहैं आण।
लागि रहै गुरुदेव सौं, दादू सोइ सयाण।।
*********************
सुरति सदा सनमुख रहै, जहाँ तहाँ लैलीन।
सहज रूप सुमिरण करै, निहकर्मी दादू दीन।।
*********************
सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग।
दादू पीवै रामरस, रहै निरंजन लाग।।
*********************  
  

*********************
।। मूल पद्य, साखी ।।
*********************
निराधार निज देखिये, नैनहु लागा बन्द।
तहँ मन खेलै पीव सौं, दादू सदा अनन्द।।1।।

भावार्थ-आँखों को बन्द करके अपने निराधार (दृष्टि-विन्दु) को देखना चाहिए। वहाँ मन परमात्मा-प्रभु (अणोरणीयाम्-अणु या छोटे-से-छोटा अर्थात् ज्योतिर्विन्दु परमात्म-विभूति-रूप) के साथ खेलेगा और सदा आनन्दित होगा।।1।।
*********************

नैनहुँ आगें देखिये, आतम अन्तर सोइ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ।।2।।

भावार्थ-वह दर्शन अपने अन्दर आँख के सामने देखना चाहिए। समस्त मण्डल प्रकाश-पुंज से भरा हुआ है और झिलमिल झिलमिल होता है।।2।।

*********************
अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास।
जोति सरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास।।3।।

भावार्थ-अनहद बाजा बजता है, (सुननेवाले का) अमरपुर-मोक्ष-पद में निवास होता है। ज्योति-स्वरूपी जगमगाता है, परमात्मा-प्रभु को कोई निज दास देखता है।।3।।
*********************
सबद अनाहद हम सुन्या, नख सिख सकल सरीर।
सब घटि हरि-हरि होत है, सहजै ही मन थीर।।4।।

भावार्थ-मैंने अनाहत शब्द सुना है। जो हरि-ध्वनि* समस्त शरीर में नख से शिख तक हो रही है, उसके सुनने से मन सहज ही थिर हो जाता है।।4।।
*********************
सबदैं सबद समाइले, पर आतम सों प्राण।
यहु मन मन सौं बाँधि ले, चित्तैं चित्त सुजाण।।5।।

भावार्थ-शब्द के द्वारा अपने को शब्द में समा लो। परमात्मा से अपना प्राण मिला लो। पिण्डी मन को ब्रह्माण्डी मन से बाँध लो और हे सुजान! अन्तःकरणस्थ चेतना-चित्त को निर्मल चेतन में मिला दो।।5।।
*********************
दृष्टै दृष्टि समाइले, सुरतैं सुरत समाइ।
समझैं समझि समाइले, लै सों लै ले लाइ।।

भावार्थ-दृष्टि को दृष्टि में समा लो, मन-सहित सुरत को मन-रहित सुरत में समा लो। बुद्धि-बोध को आत्म-बोध में समा लो और ध्यान में डूबकर लौ लगाते हुए लौलीन हो जाओ।।
*********************
जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै सहजै आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव।।

भावार्थ-सुरत से योगाभ्यास की समाधि का सुख धीरे-धीरे आता है। भक्ति भाव यही है कि मुक्ति-महल का द्वार प्राप्त हो।।
*********************
सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं।
लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं।।

भावार्थ-(इड़ा-पिंगला) इन दोनों के मध्य के स्वाभाविक शून्य में मन को रखना चाहिये। वहाँ लय-समाधि का सुख पान कीजिये, वहाँ काल का डर नहीं है।
*********************
सुन्नहिं मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाइ।
चेतन पेंड़ा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ।।

भावार्थ-सुरत शून्य-मार्ग से आयी है और शून्य के मार्ग से ही जाती है। शून्य में वह मार्ग चेतन-धार (ज्योति और शब्द-रूप) का है। दादू दयालजी कहते हैं कि लौ लगाये रहो अर्थात् ध्यान करते रहो।
*********************
सुरत समाइ सनमुख रहै, जुगि जुगि जन पूरा।
दादू प्यासा प्रेम का, रस पीवै सूरा।।

भावार्थ-जिसकी सुरत बहिर्मुख से मुड़, अन्तर में समा सम्मुख में रहे, वह भक्त जन युग-युग में पूर्ण है। यह प्रेम का प्यासा शूरमा भक्त भक्ति-रस पीता है अर्थात् भक्ति का सुख प्राप्त करता है।।
*********************
दादू उलटि अपूठा आप में, अंतरि सोधि सुजाण।
सो ढिग तेरी बावरे, तजि बाहिर की बाण।।

शब्दार्थ-अपूठा=अपरिपक्व।

भावार्थ-दादू दयालजी कहते हैं कि साधन में अपरिपक्व को चाहिये कि बहिर्मुख से अपने अन्दर में उलटे। हे सुजान लोगो! अपने अन्तर की खोज करो। (हे बहिर्मुखी) पागल! वह प्रभु तुम्हारे पास है। बाहर खोजने की आदत छोड़ दो।।
*********************
सुरति अपूठी फेरि कर, आतम माहैं आण।
लागि रहै गुरुदेव सौं, दादू सोइ सयाण।।

भावार्थ-दादू दयालजी कहते हैं कि हे साधन में अपरिपक्व लोग! बहिर्मुख से सुरत को फेरकर अपने अन्दर में लाओ। जो गुरुदेव के साथ लगे रहते हैं अर्थात् जो गुरुदेव के सत्संग में लगे रहते हैं, वे चतुर हैं।।
*********************
सुरति सदा सनमुख रहै, जहाँ तहाँ लैलीन।
सहज रूप सुमिरण करै, निहकर्मी दादू दीन।।

भावार्थ-दादू दयालजी कहते हैं कि जो जहाँ-तहाँ रहते हुए सुरत को सम्मुख में रखते हैं और ध्यान में लौलीन रहते हैं, वे सहज में सुमिरण करते हैं। वे कर्म-फल-रहित हैं और दीनता से रहते हैं।।
*********************
सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग।
दादू पीवै रामरस, रहै निरंजन लाग।।

भावार्थ-दादू दयालजी कहते हैं कि जिनकी सुरत सदा स्थिर रहती है, उनका भाग्य बड़ा है। वे राम-रस (ब्रह्म-रस) पीते हैं और (मायातीत) परमात्मा में लगे रहते हैं।।
*********************  

[* अन्तर के ध्वन्यात्मक अनहद शब्दों को हरि-हरि शब्द कहा गया है। वे शब्द हरि-परमात्मा की ओर सुरत को खींचते हैं। शब्द बहुत मधुर होते हैं। इसकी मधुरता को पाकर मन चंचलता को छोड़ देता है।]

परिचय

Mobirise gives you the freedom to develop as many websites as you like given the fact that it is a desktop app.

Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.

Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.