।। मूल पद्य ।।
हम घरि साजन आए। साचै मेलि मिलाए।।
सहजि मिलाए हरि मन भाए, पंच मिले सुखु पाइआ।
साई वसतु परापति होई, जिसु सेती मनु लाइआ।।
अनुदिनु मेलु भइआ मनु मानिआ, घर मन्दर सोहाए।
पंच सबद धुनि अनहद बाजे, हम घरि साजन आए।।1।।
आवहु मीत पिआरे। मंगल गावहु नारे।।
सचु मंगल गावहु ता प्रभु भावहु, सोहिलड़ा जुग चारे।
अपने घरु आइआ थानि सुहाइआ, कारज सबदि सवारे।।
गिआनु महारसु नेत्री अंजनु, त्रिभुवन रूप दिखाइआ।
सखी मिलहु रसि मंगल गावहु, हम घरि साजनु आइआ।।2।।
मनु तनु अंम्रित भिना। अंतरि प्रेमु रतंना।।
अंतरि रतनु पदारथु मेरे, परम ततु वीचारो।
जंत भेख तू सफलिउ दाता, सिरि सिरि देवणहारो।।
तू जानु गिआनी अंतरजामी, आपे कारणु कीना।
सुनहु सखी मनु मोहनि मोहिआ, तनु मन अंम्रित भीना।।3।।
आतम राम संसारा। साचा खेलु तुमारा।।
सचु खेलु तुमारा अगम अपारा, तुधु बिनु कउण बुझाए।
सिध साधिक सिआणे केते, तुधु बिनु कवणु कहाए।।
कालु विकाल भए देवाने, मनु राखिआ गुरि ठाए।
नानक अवगण सबदि जलाए, गुण संगमि प्रभु पाए।।4।।
शब्दार्थ-साई=सोई। नारे=उच्च स्वर से। सोहिलड़ा=एक रागिनी। जंत=जीव। सफलिउ दाता=अच्छा फल देनेवाला। जानु=ज्ञाता। विकाल=विकराल, भयंकर। ठाए=पास, स्थान में। संगमि=संग, साथ।
भावार्थ-हमारे घर में (सन्त) सज्जन आए और उन्होंने हमको सत्य (परमात्मा) से मेल-मिलाप कराया।। उन्होंने यह मेल-मिलाप सुगमता से ही कराया। वह सत्य परमात्मा-हरि मन को बहुत अच्छे लगे और पंच नादों के मिलने से सुख प्राप्त हुआ। वही वस्तु प्राप्त होती है, जिससे मन लगाया जाता है। प्रतिदिन वह मिलाप होता रहता है, इसमें मन मान गया है अर्थात् राजी हो गया है, और घर-मन्दिर सब सुहावने हो गए हैं। अनहद ध्वनि के पाँचों शब्द बजते हैं। हमारे घर में सन्त-सज्जन आए हैं।।1।। हे मित्र प्यारे! आओ, उच्च स्वर से मंगल गाओ।। सोहिलड़ा राग में सत्य मंगल का गान करो, जिससे चारो युगों में प्रभु को पाओगे। शब्द-साधना से अपना काम बनाकर निज घर में आते हैं, जो स्थान सुहावना लगता है। ज्ञान का महारस आँख का अंजन (सुरमा) है, जिससे त्रिभुवन का रूप देखने में आता है। मित्रे! मिलो, रस-मंगल गाओ, हमारे घर में सज्जन आए हैं।।2।। मेरा मन और शरीर अमृत से भींगे हुए हैं, अन्दर में प्रेम का रत्न है और परम तत्त्व का विचार भी मेरे अन्दर में रत्न पदार्थ है। हे प्रत्येक को देनेहारे! सब जीवों और वेशों का तू सफल दाता है।। हे अन्तर्यामी ज्ञाता! तूने अपने आपको सारी सृष्टि का कारण बनाया है। सुनो मित्रे! मन को मोहित करनेवालों ने मोह लिया है, तन-मन अमृत से भींगा हुआ है।।3।। हे संसार के आत्मा राम! आपका खेल सत्य है। आपका खेल सत्य है, आप अगम अपार हैं, आपके बिना कौन बुझा-समझा सकता है? सिद्ध-साधक और चतुर कितने हैं? अर्थात् बहुत हैं। आपकी कृपा के बिना कौन ऐसे कहलाते हैं। अर्थात् आप ही की कृपा से सिद्ध-साधक और चतुर कहलाते हैं।। भयंकर काल मस्त हो गया है, मैंने अपने मन को गुरु के पास में रखा है। गुरु नानक कहते हैं, मैंने अवगुणों को शब्द में जला दिया है और सद्गुण को धारण करके प्रभु को पाया है।।4।।
।। मूल पद्य ।।
हम घरि साजन आए। साचै मेलि मिलाए।।
सहजि मिलाए हरि मन भाए, पंच मिले सुखु पाइआ।
साई वसतु परापति होई, जिसु सेती मनु लाइआ।।
अनुदिनु मेलु भइआ मनु मानिआ, घर मन्दर सोहाए।
पंच सबद धुनि अनहद बाजे, हम घरि साजन आए।।1।।
आवहु मीत पिआरे। मंगल गावहु नारे।।
सचु मंगल गावहु ता प्रभु भावहु, सोहिलड़ा जुग चारे।
अपने घरु आइआ थानि सुहाइआ, कारज सबदि सवारे।।
गिआनु महारसु नेत्री अंजनु, त्रिभुवन रूप दिखाइआ।
सखी मिलहु रसि मंगल गावहु, हम घरि साजनु आइआ।।2।।
मनु तनु अंम्रित भिना। अंतरि प्रेमु रतंना।।
अंतरि रतनु पदारथु मेरे, परम ततु वीचारो।
जंत भेख तू सफलिउ दाता, सिरि सिरि देवणहारो।।
तू जानु गिआनी अंतरजामी, आपे कारणु कीना।
सुनहु सखी मनु मोहनि मोहिआ, तनु मन अंम्रित भीना।।3।।
आतम राम संसारा। साचा खेलु तुमारा।।
सचु खेलु तुमारा अगम अपारा, तुधु बिनु कउण बुझाए।
सिध साधिक सिआणे केते, तुधु बिनु कवणु कहाए।।
कालु विकाल भए देवाने, मनु राखिआ गुरि ठाए।
नानक अवगण सबदि जलाए, गुण संगमि प्रभु पाए।।4।।
शब्दार्थ-साई=सोई। नारे=उच्च स्वर से। सोहिलड़ा=एक रागिनी। जंत=जीव। सफलिउ दाता=अच्छा फल देनेवाला। जानु=ज्ञाता। विकाल=विकराल, भयंकर। ठाए=पास, स्थान में। संगमि=संग, साथ।
भावार्थ-हमारे घर में (सन्त) सज्जन आए और उन्होंने हमको सत्य (परमात्मा) से मेल-मिलाप कराया।। उन्होंने यह मेल-मिलाप सुगमता से ही कराया। वह सत्य परमात्मा-हरि मन को बहुत अच्छे लगे और पंच नादों के मिलने से सुख प्राप्त हुआ। वही वस्तु प्राप्त होती है, जिससे मन लगाया जाता है। प्रतिदिन वह मिलाप होता रहता है, इसमें मन मान गया है अर्थात् राजी हो गया है, और घर-मन्दिर सब सुहावने हो गए हैं। अनहद ध्वनि के पाँचों शब्द बजते हैं। हमारे घर में सन्त-सज्जन आए हैं।।1।। हे मित्र प्यारे! आओ, उच्च स्वर से मंगल गाओ।। सोहिलड़ा राग में सत्य मंगल का गान करो, जिससे चारो युगों में प्रभु को पाओगे। शब्द-साधना से अपना काम बनाकर निज घर में आते हैं, जो स्थान सुहावना लगता है। ज्ञान का महारस आँख का अंजन (सुरमा) है, जिससे त्रिभुवन का रूप देखने में आता है। मित्रे! मिलो, रस-मंगल गाओ, हमारे घर में सज्जन आए हैं।।2।। मेरा मन और शरीर अमृत से भींगे हुए हैं, अन्दर में प्रेम का रत्न है और परम तत्त्व का विचार भी मेरे अन्दर में रत्न पदार्थ है। हे प्रत्येक को देनेहारे! सब जीवों और वेशों का तू सफल दाता है।। हे अन्तर्यामी ज्ञाता! तूने अपने आपको सारी सृष्टि का कारण बनाया है। सुनो मित्रे! मन को मोहित करनेवालों ने मोह लिया है, तन-मन अमृत से भींगा हुआ है।।3।। हे संसार के आत्मा राम! आपका खेल सत्य है। आपका खेल सत्य है, आप अगम अपार हैं, आपके बिना कौन बुझा-समझा सकता है? सिद्ध-साधक और चतुर कितने हैं? अर्थात् बहुत हैं। आपकी कृपा के बिना कौन ऐसे कहलाते हैं। अर्थात् आप ही की कृपा से सिद्ध-साधक और चतुर कहलाते हैं।। भयंकर काल मस्त हो गया है, मैंने अपने मन को गुरु के पास में रखा है। गुरु नानक कहते हैं, मैंने अवगुणों को शब्द में जला दिया है और सद्गुण को धारण करके प्रभु को पाया है।।4।।
परिचय
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