।। मूल पद्य ।।
घर महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु।
पंच सबदु धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु निसाणु।।
दीप लोअ पाताल तह, खण्ड मण्डल हैरानु।
तार घोर वाजिंत्र तह, साचि तखति सुलतानु।।
सुखमन कै घरि रागु सुनि, सुन मण्डल लिव लाइ।
अकथ कथा वीचारिअै, मनसा मनहि समाई।।
उलटि कमलु अमृत भरिआ, इहु मन कतहुँ न जाइ।
अजपा जाप न बीसरै, आदि जुगादि समाइ।।
सभि सखिया पंचे मिलै, गुरमुखि निज घरि वासु।
सबदु खोजि इहु घरु लहै, नानक ताका दासु।।
।। मूल पद्य ।।
घर महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु।
पंच सबदु धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु निसाणु।।
दीप लोअ पाताल तह, खण्ड मण्डल हैरानु।
तार घोर वाजिंत्र तह, साचि तखति सुलतानु।।
सुखमन कै घरि रागु सुनि, सुन मण्डल लिव लाइ।
अकथ कथा वीचारिअै, मनसा मनहि समाई।।
उलटि कमलु अमृत भरिआ, इहु मन कतहुँ न जाइ।
अजपा जाप न बीसरै, आदि जुगादि समाइ।।
सभि सखिया पंचे मिलै, गुरमुखि निज घरि वासु।
सबदु खोजि इहु घरु लहै, नानक ताका दासु।।
शब्दार्थ-निसाणु=निशान, तीक्ष्ण, तेज। लोअ=लोक। तह=तहाँ। वाजिंत्र=बाजता। पंचे=पाँच नादों से।
भावार्थ-जो घर में घर दिखला दे, वह सुजान पुरुष सद्गुरु है। पाँच शब्दों की ध्वनियों का वहाँ गुंजार तीक्ष्ण शब्द के रूप में होता रहता है।। वहाँ घर के अन्दर में अर्थात् शरीर के अन्दर शरीर में द्वीप, सब लोक, सब पाताल, सब खण्ड और सब मण्डल हैं; यह आश्चर्य है। परम प्रभु के सत्य पद से गहरे ध्वनि-गर्जन का तार बजता रहता है।। शून्य-मण्डल में लौ लगाकर सुषुम्ना के घर में शब्द सुनो। इस अकथ कथा का विचार करो, मन की इच्छाएँ मन में विलीन हो जायँ।। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो उलटकर अन्तर के मण्डल में अमृत से भर जाओ, तो यह मन वहाँ से कहीं नहीं जायगा-शान्त और स्थिर हो जायगा। अजपा जप* नहीं भूलना चाहिए, उसमें सदा समाकर रहना चाहिये।। समस्त मित्र# गण पंच शब्दों से मिले। गुरु-मुख का आत्म-पद में निवास होता है। जो शब्द की खोज करके आत्म-पद को प्राप्त करते हैं, गुरु नानक साहब कहते हैं कि मैं उनका दास हूँ।।
[* नाक के छिद्रों में श्वास-प्रश्वास आते-जाते रहते हैं। भीतर खींचते समय ‘सो’ और बाहर छोड़ते समय ‘हं’ का आरोपण करके उसी का ख्याल करते रहने को बहुत लोग ‘अजपा जप’ कहते हैं, जो बिना जपे नहीं हुआ, जैसा कि ‘अजपा जप’ शब्द का अर्थ ‘बिना जपे हुए जप’ होता है। परन्तु इससे विशेष अनहद ध्वनि में सुरत रखना ‘अजपा’ है; क्योंकि इसमें किसी प्रकार के शब्द की भावना मन में नहीं रखनी पड़ती है और न उसके होने के लिए श्वास-प्रश्वास की तरह की स्थूल वायु की आवश्यकता रहती है। यह अनहद ध्वनि भावना-विशेष से नहीं बनती है और न यह आरोपित ध्वनि है। यह तो वह सहज ध्वनि है, जिसे साधक गुरु-गम होकर अपने अन्दर में ग्रहण करता है। ‘जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु-गम धारिये।’ -सन्त कबीर साहब। ‘अनहद अपने साथ है, अजपा ताको नाम। अमल करो अपनाइ के, अमर नाम घर ठाम।।’ -श्रीलक्ष्मीपतिजी महाराज।]
[# गुरु नानकदेवजी के मित्र उन्हीं की तरह के सन्तों को जानने चाहिये।]
परिचय
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