।। मूल पद्य ।।
अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारि।।1।।
गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु।। रहाउ।।
ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी।।2।।
मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुरु सबदि विचारी।।3।।
सिंञी सुरति अनाहदि बाजै घटि घटि जोति तुमारी।।4।।
परपंच वेणु तही मनु राखिआ ब्रह्म अगनि परजारी।।5।।
पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी।।6।।
रवि ससि लउकै इह तनु किंगुरी बाजै सबदु निरारी।।7।।
सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगंमु अपारी।।8।।
काइआ नगरी एहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी।।9।।
सबदि रबै आसणि घरि राजा अदलुु करे गुणकारी।।10।।
कालु विकराल कहे केहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी।।11।।
ब्रह्मा बिसन महेस इक मूरति आपे करता कारी।।12।।
काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी।।13।।
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी।।14।।
आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी।।15।।
त्रैगुण मेटै चउथै वरतै एहा भगति निरारी।।16।।
गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एक मुरारी।।17।।
मनुआँ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी।।18।।
वेदु वादु न पाखण्ड न अउधू गुरुमुखि सबदि वीचारी।।19।।
गुरुमुखि जोग कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी।।20।।
सबदि मरे मन मारे अउधू जोग जुगति वीचारी।।21।।
माइआ मोह भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी।।22।।
सबदि सूर जुग चारे अवधू वाणी भगति वीचारी।।23।।
एहु मन माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी।।24।।
आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी।।25।।
।। मूल पद्य ।।
अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारि।।1।।
गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु।। रहाउ।।
ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी।।2।।
मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुरु सबदि विचारी।।3।।
सिंञी सुरति अनाहदि बाजै घटि घटि जोति तुमारी।।4।।
परपंच वेणु तही मनु राखिआ ब्रह्म अगनि परजारी।।5।।
पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी।।6।।
रवि ससि लउकै इह तनु किंगुरी बाजै सबदु निरारी।।7।।
सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगंमु अपारी।।8।।
काइआ नगरी एहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी।।9।।
सबदि रबै आसणि घरि राजा अदलुु करे गुणकारी।।10।।
कालु विकराल कहे केहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी।।11।।
ब्रह्मा बिसन महेस इक मूरति आपे करता कारी।।12।।
काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी।।13।।
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी।।14।।
आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी।।15।।
त्रैगुण मेटै चउथै वरतै एहा भगति निरारी।।16।।
गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एक मुरारी।।17।।
मनुआँ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी।।18।।
वेदु वादु न पाखण्ड न अउधू गुरुमुखि सबदि वीचारी।।19।।
गुरुमुखि जोग कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी।।20।।
सबदि मरे मन मारे अउधू जोग जुगति वीचारी।।21।।
माइआ मोह भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी।।22।।
सबदि सूर जुग चारे अवधू वाणी भगति वीचारी।।23।।
एहु मन माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी।।24।।
आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी।।25।।
शब्दार्थ-अउहठि=छोड़कर। हसत=हाथी, अहंकार। कल=कला, तेज। सोखै=सुखावै। सिंञी=सिंगी, सींग से बना हुआ बाजा। परपंच=संसार। वेणु=वेणु बाजा। परजारी=जलाई। निरारी=न्यारी। सिव नगरी=कल्याण की नगरी। अउधू=साधु, जीव। रबै=रमै। अदलु=हुकूमत। गुणकारी=गुणवान। विकराल=भयंकर। बपुरे=तुच्छ। सोधि=शोध कर, मलिनता दूर करके। रविआ=रमकर। लए=मिला लिए। त्रैगुण=तीन गुण। चउथै=चौथा पद, सतलोक। एहा=यह। सबदि=शब्दयोग। असथिरु=स्थिर, थिर। राता=अत्यंत लवलीन होना। वादु=बहस। सूर=सूर्य। बखसे=देवे, दान करे।
भावार्थ-धरती और आकाश को अपने तेज से धारण करनेवाले प्रभु परमात्मा के हेतु मैंने अहंकारपद को छोड़कर अपनी छोटी कुटी बनायी है।।1।। हे संतगण! उस परमात्मा के शब्दों ने बहुत गुरुमुखों का उद्धार किया है। ममता का दमन करके अहंकार को जो सुखा डालता है, हे प्रभु (परमात्मा)! वह तीनों भुवनों में आपकी व्यापक ज्योति को पाता है।।2।। वह भक्त इच्छा का दमन करके मन में लय कर डालता है और सद्गुरु के शब्द का विचार करता है।।3।। हे प्रभु! सब घट-घट में आपकी ज्योति है और सुरत से जाननेयोग्य सिंगी बाजा की अनहद ध्वनि भी बजती है।।4।। ब्रह्म-अग्नि1 को जलाकर अर्थात् दृष्टियेाग-द्वारा ब्रह्म-प्रकाश को पाकर जहाँ मायिक वेणु बजता है, तहाँ मन को रखो।।5।। पाँच तत्त्व मिलकर दीपक की निर्मल बड़ी ज्योति दिन-रात जलती रहती है2।।6।। इस शरीर के अन्दर में सूर्य और चन्द्रमा का दर्शन होता है और मजीरे का न्यारा विलक्षण शब्द बजता है।।7।। अलख, अगम और अपार कल्याणकारी नगरी-परमात्मपद में हे जीव! आसन करो।।8।। इस शरीर में मन राजा है और विचार किया है कि इसमें पाँच मण्डल3 हैं।।9।। जो शब्द में रमता है, वह गुणवान उपर्युक्त धाम में आसन कर प्रमुख-लाभ करके मन राजा पर शासन करता है।।10।। जिसने जीते-जी मरकर मन को वश में किया है, उसको भयंकर काल क्या कर सकता है।।11।। ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही मूर्त्ति हैं अर्थात् एक ही बड़प्पनवाले हैं।।12।। स्वयं कर्त्ता (परम प्रभु) इनके उत्पन्न करनेवाले हैं। साधक शरीर की मलिनता को दूर करके और आत्म-तत्त्व को विचारकर संसार-सागर को पार करते हैं। प्रशंसनीय कर्म करनेवाले गुरु की सेवा में सदा सुख पाते हैं और अन्तर के शब्द में रमते हैं। जो अहंकार और तृष्णा का दमन करते हैं, उन्हें गुण के देनेवाले प्रभु परमात्मा मिला लेते हैं। रज, तम, सत्त्व-तीन गुणों को पार करके चौथे पद सतलोक में पहुँचा दे, यह भक्ति न्यारी है अर्थात् मोटी भक्ति से भिन्न और विशेष है। गुरुमुख शब्द-योग-साधन से आत्मा को पहचानता है। उसके हृदय में केवल परमात्मा का ही विचार रहता है। स्थिर मन शब्द में रत रहे, यही सार कर्म (कथित न्यारी भक्ति का) है। हे लोगो! यह वेद का शास्त्रर्थ और पाखण्ड नहीं है, गुरुमुख को शब्द का विचारनेवाला होना चाहिए।।19।। गुरुमुख जीव यतिपन, सत्यता और शब्द-विचारी होकर योग-अभ्यास करता है।।20।। वह योग-युक्ति का विचार कर शब्द में मरता है और मन को वश में करता है।।21।। हे जीवो! यह माया-मोह संसार है, इसको शब्द-अभ्यास (सुरत-शब्द-योग) करके पार करो और कुल को तारो।।22।। हे जीव! संसार-रूप अंधकार को दूर करने के लिए शब्द (अनाहत नाद) चारो युगों में सूर्य है। सन्त-वचन से भक्ति का विचार कर लो।।23।। हे जीव! इस मन को माया ने मोहित कर लिया है। शब्द का विचार करके इस माया से निकलना चाहिए।।24।। हे परम प्र्रभु परमात्मा! तुम स्वयं दयादान दो, अपने में मेल मिला लो, नानक तुम्हारी शरण में है।।25।।
[1- ये दिव्य और सूक्ष्म होने पर भी मायिक हैं।
2- साधक को पाँचो तत्त्वों के रंग अलग-अलग मालूम होते हैं, वही वहाँ की ज्योति है।
3- 1- स्थूल, 2- सूक्ष्म, 3- कारण, 4- महाकारण और 5-कैवल्य।]
परिचय
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