।। मूल पद्य।।
जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ, साच सबदि रसि लीणा।
मेरा गुरु दइआल, सदा रंग लीणा।
अहिनिसि रहै एक लिव लागी, साचे देखि पतीणा।।1।। रहाउ।।
रहै गगन-पुरि द्रिसटि समैसरि, अनहद सबदि रंगीणा।।2।।
सतु बंधि कुपीन भरि पुरि लीणा, जिहवाँ रंगि रसीणा।।3।।
मिलै गुर साचे जिन रचु राचे, किरतु बीचारि पतीणा।।4।।
एक महि सरब सरब महि एका, एह सतिगुर देखि दिखाई ।।5।।
जिनि कीए खंड मण्डल ब्रह्मण्डा, सो प्रभु लखनु न जाई।।6।।
दीपक ते दीपकु परगासिया, त्रिभवण जोति दिखाई।।7।।
साचै तखति सच महली बैठे, निरभउ ताड़ी लाई।।8।।
मोहि गइआ वैरागी जोगी, घटि-घटि किंगुरी वाई।।9।।
नानक सरणि प्रभू की छूटे, सतिगुर सचु सखाई।।10।।
।। मूल पद्य।।
जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ, साच सबदि रसि लीणा।
मेरा गुरु दइआल, सदा रंग लीणा।
अहिनिसि रहै एक लिव लागी, साचे देखि पतीणा।।1।। रहाउ।।
रहै गगन-पुरि द्रिसटि समैसरि, अनहद सबदि रंगीणा।।2।।
सतु बंधि कुपीन भरि पुरि लीणा, जिहवाँ रंगि रसीणा।।3।।
मिलै गुर साचे जिन रचु राचे, किरतु बीचारि पतीणा।।4।।
एक महि सरब सरब महि एका, एह सतिगुर देखि दिखाई ।।5।।
जिनि कीए खंड मण्डल ब्रह्मण्डा, सो प्रभु लखनु न जाई।।6।।
दीपक ते दीपकु परगासिया, त्रिभवण जोति दिखाई।।7।।
साचै तखति सच महली बैठे, निरभउ ताड़ी लाई।।8।।
मोहि गइआ वैरागी जोगी, घटि-घटि किंगुरी वाई।।9।।
नानक सरणि प्रभू की छूटे, सतिगुर सचु सखाई।।10।।
शब्दार्थ-जतु=यतिपन। सतु=सचाई। संजमु=परहेजगारी। पतीणा=विश्वास किया। समैसरि=एक ही तरह, थिर। कुपीन=कौपीन, लँगोटी। रचु राचे=बना दिया।
भावार्थ-यतिपन, सत्यता एवं शम-दम यथार्थ रूप में दृढ़ करके जो सत्यशब्द के रस में डूबे रहते हैं, वे उस रंग में सदा लीन मेरे दयालु गुरु हैं।। वे दिन-रात एक परम प्रभु परमात्मा में लौ लगाये हुए उस सत्य पुरुष का दर्शन करके उसका विश्वास किए हुए हैं।।1।। वे गगनपुर में दृष्टि को एक ही तरह वा थिर करके अनहद शब्द में अपने को रँगकर रखते हैं।।2।। वे पूर्ण रूप से सचाई का कौपीन बाँधते हैं। भजन में डूबे और जिह्वा से हरि-रंग-रस को ग्रहण किये रहते हैं अर्थात् हरि-भक्ति-संबंधी बातों का वर्णन करते रहते हैं।।3।। जिन्होंने अपने को सुधारा और बनाया है, जिनके यश को विचारकर विश्वास किया जाय, ऐसे सच्चे गुरु मिलें। सारी सृष्टि उस एक (परमात्मा) में है और वह एक (परमात्मा) सबमें है, यह सद्गुरु ने देखकर* दिखलाया है। जिस प्रभु ने ब्रह्माण्ड के खण्ड और मण्डल बनाए हैं, वह प्रभु देखने में नहीं आता है अर्थात् वह नेत्र का विषय नहीं है। दीपक से दीपक जलाया, उस ज्योति से त्रयलोक दरसता है अर्थात् ज्ञानवान साधनशील ज्योति-मण्डल पर आरूढ़ पुरुष-रूप दीपक के सत्संग से जो अपने को भी वैसा दीपक बनाता है, उसको त्रयलोक दरसता है। वह सत्य की चौकी पर सत्य के महल में निर्भय ध्यान लगाता है। वह विरक्त योगी घट-घट में बजनेवाले मजीरे की ध्वनि से मोहित हो जाता है। गुरु नानक साहब कहते हैं कि प्रभु परमात्मा की शरण यदि छूटे, तो सद्गुरु सच्चे मित्र हैं अर्थात् ये न छूटने पावें।
[* वह देखना नेत्र इन्द्रिय का नहीं है, नेत्रादि इन्द्रियों से ऊपर उठकर कैवल्य दशा में स्थित चेतन आत्मा का यह देखना होता है।]
परिचय
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