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(5) . गुरु नानक साहब की वाणी
[3. जोगु न खिंथा जोग न डंडै
जोगु न भसम चड़ाईअै]


।। मूल पद्य ।।

जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंडि मूड़ाइअै जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।1।।
गली जोगु न होई।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।1।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोग न तीरथि नाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।2।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु बरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।3।।
नानक जीवतिआ मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिंञी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।4।।


।। मूल पद्य ।।

जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंडि मूड़ाइअै जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।1।।
गली जोगु न होई।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।1।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोग न तीरथि नाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।2।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु बरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।3।।
नानक जीवतिआ मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिंञी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।4।।

शब्दार्थ-खिंथा=गुदड़ी। मुंदी=मुद्रा, गोरखपंथी साधुओं के पहनने का एक कर्णभूषण। अंजन=माया। गली=गप करना। द्रिसटि=दृष्टि। समसरि=अच्छी तरह एक करना, सम करना। ताड़ी=नकली समाधि वा नकली ध्यान। भविअै=भ्रमण करके। नाईअै=स्नान करके। ता=तो। सहसा=संशय। निझरु झरै=अन्तर में प्रकाश-रूप चेतन की वर्षा होवै। सहज धुनि=ब्रह्मनाद। बाझहु=बजै।

पद्यार्थ-गुदड़ी और दण्ड (दण्डी संन्यासी का दण्ड या लाठी) धारण करने से, शरीर पर भस्म लगाने से, कान में मुद्रा पहनने से, मूँड़ मुँड़ाने से तथा सिंगी बाजा बजाने से योग नहीं होता है। तात्पर्य यह कि योगिवर गोरखनाथजी महाराज के योगियों-के-से धारण किए जानेवाले उपर्युक्त उपकरणों को धारण करने से ही योग नहीं होता है। माया में मायातीत परमात्मा वर्त्तमान रहते हैं, योगयुक्ति से उनकी प्राप्ति होती है।।1।। प्रवचन करने से भी योग नहीं होता है। दृष्टिधारों को अच्छी तरह सम करके जाननेयोग्य वस्तु को जो जानता है, योगी उसी को कहते हैं।।1।। गाँव से बाहर श्मशान-भूमि में झोपड़ा बनाकर रहने से और विषयों के चिन्तन का ध्यान लगाने से, देश-देशान्तर में भ्रमण करने से, तीर्थों में स्नान करने से योग नहीं होता है। माया में मायातीत परमात्मा वर्त्तमान रहते हैं, योग-युक्ति से उनकी प्राप्ति होती है।।2।। जिसको सद्गुरु मिलते हैं, उसका संशय टूट जाता है, वह उपर्युक्त दौड़-धूप से छूटकर रहता है। अपने अन्दर में ज्योति की वर्षा होती है, सुरत स्वाभाविक ध्वनि-ब्रह्मनाद में लग जाती है। इसका परिचय योग-अभ्यासी को घर ही में प्राप्त हो जाता है। माया में मायातीत परमात्मा वर्त्तमान रहते हैं, योग-युक्ति से उसकी प्राप्ति होती है।।3।। बाबा नानक कहते हैं कि योग-अभ्यास ऐसा करो कि जीते-जी मर जाओ अर्थात् अपने शरीर के अन्दर-ही-अन्दर चलकर स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीरों को त्याग सको और सब इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर काबू में हो जाएँ। जब तुम्हारे अन्दर बाजे बजें और सिंगी भी बजे, तब भय-रहित पद को प्राप्त करोगे। माया में मायातीत परमात्मा वर्त्तमान रहते हैं, योग-युक्ति से उनकी प्राप्ति होती है।।4।।  

परिचय

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