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(5) . गुरु नानक साहब की वाणी
[1. काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि]

   
।। मूल पद्य ।।

काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि। साचा बासा पुरि गगनंदर।।
असथिरु थान सदा निरमाइलु। आपे आपु उपाइदा।।
अंदरि कोट छजे हट नाले। आपे लेवै वसतु समाले।।
बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै। गुर सबदी खोलाइदा।।
भीतर कोट गुफा घर जाई। नउ घर थापे हुकमि रजाई।।
दसवै पुरषु अलेखु अपारी। आपे अलखु लखाइदा।।
पउण पाणी अगनी इकि वासा। आपे कीतो खेलु तमासा।।
वलदी जलि निवरै किरपा ते। आपे जलनिधि पाइदा।।
धरती उपाइ धरी धरमसाला। उतपति परलउ आप निराला।।
पवणै खेलु किया सभ थाई। कला खींचि ढाहाइदा।।
भार अठारह मालणि तेरी। चउर ढुलै पवणै लै फेरी।।
चन्द सूरज दुइ दीपक राखे। ससि घरि सूरु समाइदा।।
पंखी पंच उडर नहिं धावहि। सफलिउ विरख अंम्रित फल पावहि।।
गुरुमुखि सहजि रवै गुण गावै। हरि रसु चोग चुगाइदा।।
झिलमिल झिलकै चन्दु न तारा। सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा।।
अकथी कथहु चिहनु नहिं कोई। पूरि रहिआ मन भाइदा।।
पसरी किरणि जोति उजिआला। करि करि देखै आपि दइआला।।
अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि। निरभउ कै घरि वाइदा।।
अनहद बाजै भ्रम भउ भाजै। सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै।।
सभ तेरी तू गुरुमुखि जाता। दरि सौहै गुण गाइदा।।
आदि निरंजनु निरमल सोई। अवरु न जाणा दूजा कोई।।
ऐकंकार वसै मनि भावै। हउमैं गरबु गँवाइदा।।
अम्रित पीआ सतिगुरि दीआ। अवरु न जाणा दूआ तीआ।।
ऐको ऐकु सु अपरपरंपरु। परखि खजानै पाइदा।।
गिआनु धिआनु सच गहिर गंभीरा। कोइ न जाणै तेरा चीरा।।
जेती है तेती तुधु जाचै। करमि मिलै सो पाइदा।।
करम धरमु सबु हाथि तुमारै। बेपरवाह अखुट भण्डारै।।
तू दइआलु किरपालु सदा। प्रभु आपै मेलि मिलाइदा।।
आपे देखि दिखावै आपे। आपे थापि उथापे आपे।।
आपे जोड़ि बिछोड़े करता। आपे मारि बिजमन्दरि।।
जेति है तेती तुधु अंदरि । देखहि आपि बैसि जिवाइदा।।
नानकु साचु कहै बेनंती। हरि दरसनि सुखु पाइदा।।


।। मूल पद्य ।।

काइआ नगरु नगर गड़ अंदरि। साचा बासा पुरि गगनंदर।।
असथिरु थान सदा निरमाइलु। आपे आपु उपाइदा।।
अंदरि कोट छजे हट नाले। आपे लेवै वसतु समाले।।
बजर कपाट जड़े जड़ि जाणै। गुर सबदी खोलाइदा।।
भीतर कोट गुफा घर जाई। नउ घर थापे हुकमि रजाई।।
दसवै पुरषु अलेखु अपारी। आपे अलखु लखाइदा।।
पउण पाणी अगनी इकि वासा। आपे कीतो खेलु तमासा।।
वलदी जलि निवरै किरपा ते। आपे जलनिधि पाइदा।।
धरती उपाइ धरी धरमसाला। उतपति परलउ आप निराला।।
पवणै खेलु किया सभ थाई। कला खींचि ढाहाइदा।।
भार अठारह मालणि तेरी। चउर ढुलै पवणै लै फेरी।।
चन्द सूरज दुइ दीपक राखे। ससि घरि सूरु समाइदा।।
पंखी पंच उडर नहिं धावहि। सफलिउ विरख अंम्रित फल पावहि।।
गुरुमुखि सहजि रवै गुण गावै। हरि रसु चोग चुगाइदा।।
झिलमिल झिलकै चन्दु न तारा। सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा।।
अकथी कथहु चिहनु नहिं कोई। पूरि रहिआ मन भाइदा।।
पसरी किरणि जोति उजिआला। करि करि देखै आपि दइआला।।
अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि। निरभउ कै घरि वाइदा।।
अनहद बाजै भ्रम भउ भाजै। सगल बिआपि रहिआ प्रभु छाजै।।
सभ तेरी तू गुरुमुखि जाता। दरि सौहै गुण गाइदा।।
आदि निरंजनु निरमल सोई। अवरु न जाणा दूजा कोई।।
ऐकंकार वसै मनि भावै। हउमैं गरबु गँवाइदा।।
अम्रित पीआ सतिगुरि दीआ। अवरु न जाणा दूआ तीआ।।
ऐको ऐकु सु अपरपरंपरु। परखि खजानै पाइदा।।
गिआनु धिआनु सच गहिर गंभीरा। कोइ न जाणै तेरा चीरा।।
जेती है तेती तुधु जाचै। करमि मिलै सो पाइदा।।
करम धरमु सबु हाथि तुमारै। बेपरवाह अखुट भण्डारै।।
तू दइआलु किरपालु सदा। प्रभु आपै मेलि मिलाइदा।।
आपे देखि दिखावै आपे। आपे थापि उथापे आपे।।
आपे जोड़ि बिछोड़े करता। आपे मारि बिजमन्दरि।।
जेति है तेती तुधु अंदरि । देखहि आपि बैसि जिवाइदा।।
नानकु साचु कहै बेनंती। हरि दरसनि सुखु पाइदा।।

शब्दार्थ-काइआ=काया, शरीर। गड़=गढ़, किला। गगनं- दर=आकाश के भीतर। असथिरु=स्थिर, थिर। थान=स्थान। निरमाइलु= निर्माया। आपे आपु=स्वयं या खुद अपने से। उपाइदा=रचा, बनाया, पैदा किया। कोटि=किला। छजै=छत। हट=हाट। नाले=साथ। जड़े जड़ि=मजबूत जड़े हुए। थापे=स्थापन किए। रजाई=मरजी। कीतो=किया। वलदी=जलती। जलि=धिंधोर। निवरै=बचे। जलनिधि=समुद्र। पाइदा=डालना, देना। उपाइ=रचकर। थाई=जगह। कला=अंश। ढाहाइदा=गिराया है, ढाहा है। भार अठारह=सब प्रकार के वृक्ष और लताएँ। ढुलै=झुलाता है, डुलाता है। ससि=चन्द्रमा। सूरु=सूर्य। पंखी=पक्षी। उडर=उड़कर। पंखी पंच=पाँच-पक्षी (यहाँ पर तात्पर्य है पाँच प्राण से)। सफलिउ विरख=फलदार पेड़। रवै=रमे। चोग=दाना, अहरा। चुगाइदा=चुगाया, खिलाया। गैणारा=जुगनू, तारा। चिहनु=चिह्न, निशाना। भाइदा=पसन्द आया, भाया। रुण=मीठा-मीठा शब्द। वाइदा=बजाता है। छाजै=शोभा पा रहा है। जाता=जानता है। दरि=दरवाजा, द्वार। सोहै=शोभा पावे। ऐकंकार=ॐकार। गरबु=घमण्ड। सु=सुन्दर, वह। अपरपरंपरु=सबसे परे। पाइदा=दाखिल किया। चीरा=हद, पसारा, किनारा, अन्त। तुधु=तुमको। करमि=दया का दान, बख्शिश। पाइदा=प्राप्त किया। अखटु=नहीं घटनेवाला। थापि=कायम करके। उथापे=मिटाता है। बिजमंदरि=ऊँचा महल।

भावार्थ-शरीर नगर है। इस नगर-गढ़ के अन्दर गगनपुरी में सत्य (परम पुरुष) का निवास-स्थान है। इस सदा स्थिर निर्मायिक स्थान को स्वयं अपने से (उस प्रभु ने) रचा है।।1।। (इस काया) कोट के अन्दर छत (वाले भवन के) साथ हाट है। मनुष्य को चाहिए कि वह उस हाट की वस्तु को अपने से प्राप्त करे और सँभाले। उसको जानना चाहिए कि (उस हाट के फाटक पर) दृढ़ वज्रकपाट जड़ा हुआ है, जो गुरु के शब्द से खुलता है।।2।। वज्रकपाट के खुलने पर काया-कोट की गुफा में उस कपाट को खोलनेवाला जाएगा। उस सत्य परम पुरुष की आज्ञा-(शब्द) की तरंग ने नौ घरों की स्थापना की है। नौ घर-(1) षष्ठ चक्र, (2) सहस्त्रदल कमल, (3) त्रिकुटी, (4) शून्य, (5) महाशून्य, (6) भँवर गुफा, (7) सतलोक या सचखण्ड, (8) अलख लोक और (9) अगम लोक। दसवें अलख, दुर्बोध अपार पुरुष है। उस अलख पुरुष को भक्त-साधक अपने से लख पाता है।।3।। यह शरीर पवन, पानी और अग्नि का एक बासा है। इस खेल और तमाशे को उस प्रभु ने स्वयं किया है। उपर्युक्त बासा-रूप जलती हुई आग से प्रभु-कृपा से बचें और स्वयं अपने को उस प्रभु-रूप समुद्र में डालें।।4।। उस प्रभु ने धरती को रचकर धर्मशाला बना रखा है। उत्पन्न होने और नष्ट होने से वह आप अलग है। सभी स्थानों में पवन का खेल किया है और (उनमें-से) अपने अंश को खींचकर ढाहता है-नष्ट करता है।।5।। हे प्रभु! पवन-रूप मालिनी सब प्रकार के वृक्ष और लता-रूपी चँवर लेकर डुलाती है। चन्द्र और सूर्य दो दीपक रखे हुए हैं। चन्द्र और सूर्य घर में समाए हुए हैं।।6।। ज्ञान-इन्द्रियों में मन की पाँच वृत्तियाँ-रूपी पाँच पक्षी यदि उड़कर विषयाकाश में नहीं दौड़े, तो सुरत-पक्षी निर्विषय-रूप फलदार वृक्ष का अमृत फल प्राप्त करे। गुरु-बुद्धि के अनुकूल चलनेवाला (गुरुमुख) सहज ही उस अमृतफल में रमता है, प्रभु-गुण गाता है और कथित फल के हरि-रस-रूप दाने को चुगता है-खाता है।।7।। चन्द्रमा, तारे, सूर्य-किरणें, बिजली और जुगनू नहीं हैं। झिलमिल ज्योति झलकती है। यह अकथनीय का कथन करता हूँ। बाहरी जगत् में इसका कोई चिह्न नहीं है; परन्तु यह अन्तर में परिपूर्ण हो रहा है, मन को अच्छा लगता है।।8।। ज्योति की किरणें पसर गई हैं। इन्हें निर्माण करके स्वयं दयालु प्रभु देखता है। उस भय-रहित प्रभु के घर में रुन-झुनकार अनहद ध्वनि बजती रहती है।।9।। अनहद बजता है, सुननेवालों का भ्रम-जाल दूर हो जाता है। सर्वव्यापी होता हुआ वह प्रभु शोभायमान है। हे प्रभु! सब तुम्हारी है, तुम गुरुमुख को जानते हो। वह तुम्हारे शोभायमान द्वार पर तुम्हारा गुण गाता है।।10।। जो मायातीत आदिपुरुष है, वह पवित्र है, वही निर्मल है। मैंने किसी दूसरे को नहीं जाना है। मुझमें एक ॐकार बसता है, वह मन को बहुत भाता है। अहंकार और घमण्ड को मैंने गँवा दिया है।।11।। सद्गुरु ने अमृत दिया, मैंने पिया है और दूसरे-तीसरे को मैंने नहीं जाना है। वह एक-ही-एक अपरम्पार पुरुष है, जिस भंडार को परखकर मैंने अपने को उसमें लीन किया है।।12।। हे सच्चे प्रभु! आपका ज्ञान और ध्यान गहरा-गम्भीर है। आपके अन्त को-किनारे को कोई नहीं जानता है। जितने हैं, सभी आपसे याचना करते-माँगते हैं। आपके दयादान से जो मिलता है, सो वे प्राप्त करते हैं।।13।। कर्म और धर्म सब आपके वश में हैं। आप बेपरवाह और अघट भण्डार हैं। आप सदा दयालु और कृपालु प्रभु हैं। स्वयं आप मेल मिला देते हैं।।14।। स्वयं देखते और दिखाते हैं, स्वयं स्थिर करते हैं और स्वयं मिटाते हैं। हे कर्त्ता पुरुष! आप स्वयं जोड़कर फिर अलग-अलग कर देते हैं और आप स्वयं मारकर जिला देते हैं।।15।। जो कुछ भी है, सो सब आपके अन्दर है, ऊँचे महल में बैठकर आप सबको देखते हैं। गुरु नानक सच्ची विनती करते हैं-‘हरि दर्शन से सुख पाता हूँ’।।16।।  

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