।। मूल पद्य ।।
गगन घटा घहरानी साधो, गगन घटा घहरानी ।। टेक।।
पूरब दिसि से उठी बदरिया, रिमझिम बरसत पानी ।
आपन-आपन मेंड़ि सम्हारो, बह्यो जात यह पानी ।। 1।।
मन के बैल सुरत हरवाहा, जोत खेत निर्वानी ।
दुबिधा दूब छोल करु बाहर, बोवो नाम की धानी ।। 2।।
जोग जुक्ति करि करु रखवारी, चर न जाय मृग धानी ।
बाली झार कूटि घर लावै, सोई कुसल किसानी ।। 3।।
पाँच सखी मिलि कीन्ह रसोइयाँ, एक से एक सयानी ।
दूनों थार बराबर परसे, जेवैं मुनि अरु ज्ञानी ।। 4।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह पद है निर्वानी ।
जो या पद को परचा पावै, ताको नाम विज्ञानी ।। 5।।
।। संत कबीर साहब की वाणी समाप्त ।।
।। मूल पद्य ।।
गगन घटा घहरानी साधो, गगन घटा घहरानी ।। टेक।।
पूरब दिसि से उठी बदरिया, रिमझिम बरसत पानी ।
आपन-आपन मेंड़ि सम्हारो, बह्यो जात यह पानी ।। 1।।
मन के बैल सुरत हरवाहा, जोत खेत निर्वानी ।
दुबिधा दूब छोल करु बाहर, बोवो नाम की धानी ।। 2।।
जोग जुक्ति करि करु रखवारी, चर न जाय मृग धानी ।
बाली झार कूटि घर लावै, सोई कुसल किसानी ।। 3।।
पाँच सखी मिलि कीन्ह रसोइयाँ, एक से एक सयानी ।
दूनों थार बराबर परसे, जेवैं मुनि अरु ज्ञानी ।। 4।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह पद है निर्वानी ।
जो या पद को परचा पावै, ताको नाम विज्ञानी ।। 5।।
अर्थ-हे साधक! अन्धकारमय शून्य ध्वनित होता है।। साधक जन पहले-पहल इस अंधकार को पाता है। ध्यानाभ्यास में जल-वर्षा-जैसी बूँदें झरती हुई देख पाता है। हे साधक-वृन्द! अपनी-अपनी इन्द्रियों के घाटों को सँभालकर रखो कि अनुभूति-रूप यह पानी बहता जा रहा है अर्थात् क्षय होता जा रहा है।।1।। मन को बैल और सुरत को हलवाहा बनाकर मुक्ति के खेत जोतो। अर्थात् तनमन को निजमन के अधीन में करो, तो मुक्ति का खेत बनेगा। (‘मन उलटे तो सुरत कहावे’-संत कबीर साहब। तनमन-शरीरमुखी मन-पिण्डी मन जब बहिर्मुखता छोड़ता है अर्थात् उलटकर निजमन-आत्ममुखी मन-ब्रह्माण्डी मन में बारम्बार केन्द्रित होता है, तब वह आत्ममुखी मन-रूपी सुरत के वश में हो जाता है। इस तरह मन का बैल और सुरत का हलवाहा होता है।) इस खेत में दुविधा-दूब-रूप जंगल को छीलकर बाहर करो अैर नाम-रूप धान को बोओ।।2।। योग की युक्ति जानकर अभ्यास करो, उसीसे खेत की रखवाली करो कि मनोविकार-रूप मृग उस धान को चर न जाय। फिर जो धान के शीश या बाली को झाड़-कूटकर अर्थात् अन्न-रूप मोक्ष प्राप्त करे, वही प्रवीण किसान है।।3।। इस बात को इस ख्याल के मित्रगण ने, जो एक से एक सयाने होते हैं, मिलकर मोक्ष के इस ज्ञान को पका दिया अर्थात् दृढ़ कर लिया है। ये ऐहलौकिक और पारलौकिक, दोनों ओर के कर्त्तव्य-ज्ञान को बराबर-बराबर देते हैं और मननशील ज्ञानी लोग इसका भोजन करते हैं अर्थात् साधन-भजन और आचरण करते हैं।।4।। कबीर साहब कहते हैं-हे साधो भाई! सुनो, मैंने यह निर्वाण-मुक्ति का पद्य गाया है, जो इस पद्य का परिचय पावेगा, वह विज्ञानी कहलावेगा।।5।।
।। संत कबीर साहब की वाणी समाप्त ।।
परिचय
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