।। मूल पद्य ।।
सतगुरु सोई दया करि दीन्हा, तातें अनचिन्हार मैं चीन्हा ।।
बिन पग चलना बिन पर उड़ना, बिना चुंच का चुगना ।
बिना नैन का देखन-पेखन, बिना सरवन का सुनना ।। 1।।
चन्द न सूर दिवस नहिं रजनी, तहाँ सुरत लौ लाई ।
बिना अन्न अमृत रस भोजन, बिन जल तृषा बुझाई ।। 2।।
जहाँ हरष तहाँ पूरन सुख है, यह सुख का से कहना ।
कहै कबीर बल बल सतगुरु की, धन्य शिष्य का लहना ।। 3।।
।। मूल पद्य ।।
सतगुरु सोई दया करि दीन्हा, तातें अनचिन्हार मैं चीन्हा ।।
बिन पग चलना बिन पर उड़ना, बिना चुंच का चुगना ।
बिना नैन का देखन-पेखन, बिना सरवन का सुनना ।। 1।।
चन्द न सूर दिवस नहिं रजनी, तहाँ सुरत लौ लाई ।
बिना अन्न अमृत रस भोजन, बिन जल तृषा बुझाई ।। 2।।
जहाँ हरष तहाँ पूरन सुख है, यह सुख का से कहना ।
कहै कबीर बल बल सतगुरु की, धन्य शिष्य का लहना ।। 3।।
अर्थ-सद्गुरु ने दया करके मुझे वह वस्तु दी, जिसके द्वारा अपरिचित अर्थात् जिससे मैं कभी परिचित नहीं था, तात्पर्य परमात्मा की मैंने पहचान की।। उसकी पहचान में बिना पैर के चलना होता है, बिना पंख के उड़ना होता है, बिना चोंच के दाना चुगना होता है, बिना आँख के देखना होता है और बिना कान के सुनना होता है।।1।। वह देशकालातीत पद ऐसा है, जहाँ न चन्द्रमा है, न सूर्य ही और न दिवस है, न रात ही। मैंने वहाँ सुरत से लौ लगायी, तो बिना अन्न के अमृत के स्वाद का भोजन मिला और बिना पानी के प्यास बुझ गई।।2।। जहाँ परम प्रसन्नता है, वहाँ पूर्ण सुख है; लेकिन इस सुख की बात किससे कही जाय? संत कबीर साहब कहते हैं कि यह सद्गुरु महाराज की बलिहारी है और वह शिष्य भी धन्य है, जो उस पद को प्राप्त करता है।।3।।
परिचय
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