।। मूल पद्य ।।
मन तू थकत थकत थकि जाई।
बिन थाके तेरे काज न सरिहैं, फिर पाछे पछिताई ।। 1।।
जब लग तोकर जीव रहतु है, तब लग परदा भाई ।
टूटि जाय ओट तिनुका की, रसक रहै ठहराई ।। 2।।
सकल तेज तज होय नपुंसक, यहि मति सुन ले मेरी ।
जीवत मृतक दसा विचारै, पावै वस्तु घनेरी ।। 3।।
याके परे और कछु नाहीं, यह मति सबसे पूरा ।
कहै कबीर मार मन चंचल, हो रहु जैसे धूरा ।। 4।।
।। मूल पद्य ।।
मन तू थकत थकत थकि जाई।
बिन थाके तेरे काज न सरिहैं, फिर पाछे पछिताई ।। 1।।
जब लग तोकर जीव रहतु है, तब लग परदा भाई ।
टूटि जाय ओट तिनुका की, रसक रहै ठहराई ।। 2।।
सकल तेज तज होय नपुंसक, यहि मति सुन ले मेरी ।
जीवत मृतक दसा विचारै, पावै वस्तु घनेरी ।। 3।।
याके परे और कछु नाहीं, यह मति सबसे पूरा ।
कहै कबीर मार मन चंचल, हो रहु जैसे धूरा ।। 4।।
अर्थ-हे मन! तू निदिध्यासन करते-करते थकते-थकते थक जाएगा-तेरा चलना बन्द हो जाएगा-तेरी चंचलता छूट जाएगी। बिना थके तेरा काम नहीं बनेगा, जिसके बिना तू फिर पछताएगा।।1।। जबतक तेरे वश में जीव रहता है, तभी तक ईश्वर और जीव के बीच में परदा रहता है-माया का आवरण रहता है। यह पट्टी या आवरण टूट जाय, तो सूक्ष्म माया मण्डल में ही लसककर ठहरा हुआ रहेगा अर्थात् तेरा संकल्प-विकल्प छूट जाएगा और तू विलीन हो जाएगा।।2।। सांसारिक तभी तेजों को छोड़कर उस ओर नपुंसक-शक्तिहीन हो जा, यह मेरी बुद्धि की बात सुन ले। जीवन-काल में मृतक-दशा का विचारकर रहेगा अर्थात् इन्द्रियां की गति को बाहर के विषयों की ओर से समेटकर रहेगा, तो पारमार्थिक बहुत पदार्थ पाएगा।।3।। इसके आगे और कुछ नहीं है, यह बुद्धि दूसरी सब बुद्धियों से विशेष पूर्ण है। कबीर साहब कहते हैं कि चंचल मन को मार अर्थात् इसको संकल्प- विकल्प-विहीन कर और जैसे पैर-तले की धूल रहती है, उसी तरह अर्थात् घमण्ड छोड़कर रह।।4।।
परिचय
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