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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[92. अबधू छाड़हु मन विस्तारा]


।। मूल पद्य ।।

अबधू छाड़हु मन विस्तारा।
सो गहहु जाहि ते सदगति, पारब्रह्म तें न्यारा।।1।।
नहीं महादेव नहीं महम्मद, हरि हजरत तब नाहीं।
आदम ब्रह्मा नहिं तब होते, नहीं धूप औ छाहीं।।2।।
असी सहस पैगम्बर नाहीं, सहस अठासी मूनी।
चाँद सूर्य तारागन नाहीं, मच्छ कच्छ नहिं दूनी।।3।।
वेद कितेब सुम्रिति नहिं संजम, नहीं जवन परसाही।
बंग निमाज न कलमा होते, रामौ नाहिं खोदाई।।4।।
आदि अन्त मन मध न होते, आतस पौन न पानी।
लख चौरासी जीव न होते, साखी सब्द न बानी।।5।।
कहहिं कबीर सुनहु हो अवधू, आगे करहु विचारा।
पूरन ब्र्रह्म कहाँ ते प्रगटे, किरतम किन उपराजा।।6।।


।। मूल पद्य ।।

अबधू छाड़हु मन विस्तारा।
सो गहहु जाहि ते सदगति, पारब्रह्म तें न्यारा।।1।।
नहीं महादेव नहीं महम्मद, हरि हजरत तब नाहीं।
आदम ब्रह्मा नहिं तब होते, नहीं धूप औ छाहीं।।2।।
असी सहस पैगम्बर नाहीं, सहस अठासी मूनी।
चाँद सूर्य तारागन नाहीं, मच्छ कच्छ नहिं दूनी।।3।।
वेद कितेब सुम्रिति नहिं संजम, नहीं जवन परसाही।
बंग निमाज न कलमा होते, रामौ नाहिं खोदाई।।4।।
आदि अन्त मन मध न होते, आतस पौन न पानी।
लख चौरासी जीव न होते, साखी सब्द न बानी।।5।।
कहहिं कबीर सुनहु हो अवधू, आगे करहु विचारा।
पूरन ब्र्रह्म कहाँ ते प्रगटे, किरतम किन उपराजा।।6।।

पद्यार्थ-हे अबुद्धगण अथवा अवधूतगण! मन का विस्तार अर्थात् मन की पहुँच जहाँ तक है, वहाँ तक का त्याग करो। उस पद को ग्रहण करो, जिससे सद्गति होती है, जो पारब्र्रह्म से भी परे का पद है। (जड़ प्रकृति मण्डल-अपरा प्रकृति मंडल में व्यापक आत्मतत्त्व को पूरण ब्रह्म वा पूर्ण ब्रह्म और चेतनात्मिका परा प्रकृति मंडल में व्यापक आत्मतत्त्व को पारब्रह्म कहते हैं) तात्पर्य यह कि क्षर पुरुष-असत् पद और अक्षर पुरुष-सत् पद से न्यारे पद को ग्रहण करो, जिससे सद्गति होगी। यही पारब्रह्म से न्यारा पद अनाम, शब्दातीत-पुरुषोत्तम पद है।।1।। तब महादेव, मुहम्मद, हरि-विष्णु, हजरत अर्थात् महापुरुष नहीं थे, आदम और ब्रह्मा नहीं थे, धूप और छाँह नहीं थी।।2।। अस्सी हजार पैगम्बर और अठासी हजार मुनि, सूर्य, चन्द्र और तारेगण, मच्छ और कच्छ और संसार नहीं था।।3।। वेद, कितेब या कुरान, स्मृति-संयम नहीं थे। मुसलमानी बादशाही नहीं थी; बाँग, नमाज, कलमा नहीं थे; अवतारी पुरुष राम भी ईश्वर नहीं कहलाते थे।।4।। आदि, मध्य और अन्त (वाला प्रकृति फैलाव) और मन नहीं था; अग्नि, हवा और पानी नहीं था; चौरासी लाख जीव-योनियाँ नहीं थीं। साखी, शब्द और अन्य शब्द नहीं थे।।5।। कबीर साहब कहते हैं कि हे अवधू! सुनो, सबसे आगे का विचार करो, पूर्ण ब्रह्म कहाँ से प्रकट हुए और बनावटी संसार को किनने उत्पन्न किया है, सो विचार करो।।6।।

टिप्पणी-इस शब्द से यह नहीं विदित होता है कि मन की गति के परे पूर्ण ब्रह्म, पारब्रह्म, महादेव, मुहम्मद, हरि, आदम, पैगम्बर, मुनि और सारे संसार के पसार से परे सर्वेश्वर की स्थिति नहीं है, बल्कि यह कहा गया है कि पारब्रह्म से न्यारा कोई सर्वोपरि पद है, जिसको पकड़ने से सद्गति-मोक्ष होगा, उसको पकड़ो। कबीर साहब के इस शब्द को पढ़कर कोई-कोई कहते हैं कि कबीर साहब ने इस पद में अनीश्वरवाद को दृढ़ाया है; किन्तु मेरे विचार से ऐसा ख्याल भूल है।  

परिचय

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