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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[91. संतो मते मातु जन रंगी ]


।। मूल पद्य ।।

संतो मते मातु जन रंगी ।
पियत पियाला प्रेम सुधारस, मतवाले सत्संगी ।।1।।
अरधे उरधे भाठी* रोपिन्ह, ब्रह्म अगिनि उदगारी ।
मूदे मदन काटि कर्म कसमल, संतन चुवत अगारी ।।2।।
गोरख दत्त वशिष्ट व्यास कपि, नारद सुक मुनि जोरी ।
सभा बैठि संभु सनकादिक, तहाँ फिरे अधर कटोरी ।।3।।*
अंबरीष और जाग जनक जड़, सेस सहस मुख पाना ।
कहँ लां गनौं अनन्त कोटि लौं, अमहल महल दिवाना ।।4।।
ध्रू प्रहलाद भभीषण माते, माती सबरी नारी ।
सगुन ब्रह्म माते बींद्रावन, अजहु लागु खुमारी ।।5।।
सुर नर मुनि जति पीर औलिया, जिन्ह रे पिया तिन्ह जाना ।
कहहि कबीर गूँगे की सक्कर, क्यों करि करै बखाना ।।6।।

 


।। मूल पद्य ।।

संतो मते मातु जन रंगी ।
पियत पियाला प्रेम सुधारस, मतवाले सत्संगी ।।1।।
अरधे उरधे भाठी* रोपिन्ह, ब्रह्म अगिनि उदगारी ।
मूदे मदन काटि कर्म कसमल, संतन चुवत अगारी ।।2।।
गोरख दत्त वशिष्ट व्यास कपि, नारद सुक मुनि जोरी ।
सभा बैठि संभु सनकादिक, तहाँ फिरे अधर कटोरी ।।3।।*
अंबरीष और जाग जनक जड़, सेस सहस मुख पाना ।
कहँ लां गनौं अनन्त कोटि लौं, अमहल महल दिवाना ।।4।।
ध्रू प्रहलाद भभीषण माते, माती सबरी नारी ।
सगुन ब्रह्म माते बींद्रावन, अजहु लागु खुमारी ।।5।।
सुर नर मुनि जति पीर औलिया, जिन्ह रे पिया तिन्ह जाना ।
कहहि कबीर गूँगे की सक्कर, क्यों करि करै बखाना ।।6।।

पद्यार्थ-हे संतगण! धर्म में मस्त होकर भक्तगण अपने रँग जाते हैं और दूसरों को भी रँगा देते हैं। वे प्रेम के अमृत-रस का प्याला पीते-पीते मस्त सत्संगी बन जाते हैं।।1।। वे ऊपर के आधे (आज्ञाचक्र के नीचे के आधे भाग को छोड़कर उसके ऊपर के आधे भाग) में भट्ठी स्थापित करते हैं। वीर्य-रक्षा पूर्णरूपेण कर ब्रह्माग्नि प्रकाशित करके पाप कर्म काट डालते हैं। उनके आगे में वह प्रेम-सुधा-रस चूता रहता है।।2।। गोरख, दत्तात्रेय, वशिष्ठ, व्यास, हनुमान, नारद, शुकदेव मुनि, शम्भु (महादेवजी) और सनकादिक (सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन) जहाँ सभा जोड़कर बैठते हैं, वहाँ प्रेम-सुधा-रस की अधर कटोरी फिरती रहती है। अर्थात् ये सब भक्त योगिगण अधर (शून्य)-ध्यान में प्राप्त प्रेममय ब्रह्म-पीयूष-रस का पान करते हैं।।3।। अम्बरीष, याज्ञवल्क्य, जनक, जड़ भरत और हजार मुखवाले शेषनाग इस कटोरी का रस पीते हैं। कहाँ तक गिनें, ऐसे अगणित कोटि हैं, जो बिना घर के मस्त हैं अर्थात् शरीरातीत होकर रहते हुए मस्त हैं।।4।। ध्रुव, प्रह्लाद, विभीषण और शवरी उक्त रस को पीकर मस्त थे। वृन्दावन के सगुण ब्रह्म (श्रीकृष्ण) इस रस के पान से ऐसे मस्त हैं, जो अब भी उनकी मादकता नहीं उतरी है।।5।। देवता, मनुष्य, मुनि, यति, पीर और औलिया, जिन्होंने इस रस को पिया, वे इस रस के पान की मस्ती को जानते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि जैसे गूँगा शक्कर का स्वाद नहीं बता सकता, उसी तरह अधर-कटोरी के रस को पान कर उसके स्वाद का कोई वर्णन नहीं कर सकता।।6।। 


[* दृष्टियोग से यह भट्ठी रोपी जाती है और यहाँ स्थिर रहते हुए अनुभूति में ब्रह्माग्नि और चूते हुए पीयूष-रस की प्रत्यक्षता होती है।
विद्वान् समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये। शशभृद्बिम्बै पश्यन्नेत्रभ्याममृतं पिबेत् ।।
-शाण्डिल्योपनिषद्, अध्याय 1
अर्थात् विद्वान गला और शिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए भ्रुवों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रें से अमृत का पान करें।
नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्रभ्यां सुसमाहितः ।।
-श्रीजाबालदर्शनोपनिषद्, खंड 5
अर्थात् नाक के आगे चन्द्र-बिम्ब-विन्दु के मध्य में उस तुरीय और चूते हुए अमृत को अच्छी तरह समाधिस्थ होकर आँखों से देखे।
सत सुरत समझि सिहार साधौ, निरखि नित नैनन रहौ ।
धुनि धधक धीर गम्भीर मुरली, मरम मन मारग गहौ ।।
सम सील लील अपील पेलै, खेल खुलि खुलि लखि पड़ै ।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर, सुरति सजि पल पल भरै ।।
-संत तुलसी साहब, हाथरस
* तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।
-श्रीमद्भागवत पुराण, स्कन्द 11, अध्याय 14
अर्थात् (मुखारविन्द में) चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदनन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।
न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।।
-ज्ञान-संकलिनी तन्त्र
अर्थात् ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष लाभ होते हैं, इसमें सन्देह नहीं।
‘शून्य ध्यान सबके मन माना। तुम बैठो आतम असथाना।।’
-संत कबीर साहब
‘गगनि निवासि आसणु जिसु होई। नानक कहे उदासी सोई।।’
-गुरु नानक (प्राण-संगली, भाग 1)
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिड़की में निस दिन बासा।।’
-संत तुलसी साहब, हाथरस
‘इक पहर एकान्त ह्वै के सुन्न ध्यान लगावनं।’
-संत पलटू साहब
सुनके मंदिल में अनहद के धमक, दामिन में दोमिल में बिजुली की छटक।’
-संत शिवनारायण स्वामी
भेदी गुरु से युक्ति पाकर अभ्यास करने पर निज अनुभूति प्राप्त कर इन सब पद्यों का मेल ‘अधर-कटोरी’ से मिल जाता है।] 

परिचय

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