।। मूल पद्य ।।
संतो आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहिं वाकेसना कहुँ गया न आया ।।1।।
क्या मकसूद मच्छस कछस होना, शंखासुर न संहारा ।
है दयाल द्रोह नहिं वाकोस, कहहु कौन को मारा ।।2।।
नहिं वैस कर्त्ता ब्राहस कहायो, धरणि धरो नहिं भारा ।
इ सब काम साहिबस के नाहीं, झूठ कहै संसारा ।।3।।
खम्भ फोरि जो बाहर होई, ताहि पतिज सब कोई ।
हिरनाकस नख उदर बिदारेऽ, सो नहिं कर्त्ता होई ।।4।।
बावनऽ ह्वै नहिं बलि को जाँच्यो, जो जाँचे सो माया।
बिना विवेक सकल जग भरमे, माया जग भरमाया ।।5।।
परसुरामऽ ह्वै छत्रि न मारा, ई छल माया कीन्हा ।
सतगुरु भक्ति भेद नहिं जान्यो, जीवन मिथ्या दीन्हा ।।6।।
सिरजनहार न ब्याही सीता, जल पषाण नहिं बन्धा ।
वै रघुनाथऽ एक को सुमिरै, जो सुमिरै सो अंधा ।।7।।
गोपी ग्वालऽ न गोकुल आयो, कर ते कंस न मारा ।
मेहरबान सबन के साहिब, नहिं जीता नहिं हारा ।। ।।
नहिं वै कर्त्ता बुद्धऽ कहायो, नहिं असुरन को मारा ।
ज्ञानहीन करता सब भरमे, माया जग संहारा ।।9।।
नहिं वै कर्त्ता भये कलंकीऽ, नहीं कलिंगहि मारा ।
ई छल-बल सब माया कीन्हा, यत्त सत्त सब टारा ।।10।।
दस अवतार ईश्वरी माया, कर्त्ता कै जिन पूजा ।
कहहि कबीर सुनो हो सन्तो, उपजै खपै सो दूजा ।।11।।
।। मूल पद्य ।।
संतो आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहिं वाके# ना कहुँ गया न आया ।।1।।
क्या मकसूद मच्छ#कछ# होना, शंखासुर न संहारा ।
है दयाल द्रोह नहिं वाको#, कहहु कौन को मारा ।।2।।
नहिं वै# कर्त्ता ब्राह# कहायो, धरणि धरो नहिं भारा ।
इ सब काम साहिब# के नाहीं, झूठ कहै संसारा ।।3।।
खम्भ फोरि जो बाहर होई, ताहि पतिज सब कोई ।
हिरनाकस नख उदर बिदारे*, सो नहिं कर्त्ता होई ।।4।।
बावन* ह्वै नहिं बलि को जाँच्यो, जो जाँचे सो माया।
बिना विवेक सकल जग भरमे, माया जग भरमाया ।।5।।
परसुराम* ह्वै छत्रि न मारा, ई छल माया कीन्हा ।
सतगुरु भक्ति भेद नहिं जान्यो, जीवन मिथ्या दीन्हा ।।6।।
सिरजनहार न ब्याही सीता, जल पषाण नहिं बन्धा ।
वै रघुनाथ* एक को सुमिरै, जो सुमिरै सो अंधा ।।7।।
गोपी ग्वाल* न गोकुल आयो, कर ते कंस न मारा ।
मेहरबान सबन के साहिब, नहिं जीता नहिं हारा ।। ।।
नहिं वै कर्त्ता बुद्ध* कहायो, नहिं असुरन को मारा ।
ज्ञानहीन करता सब भरमे, माया जग संहारा ।।9।।
नहिं वै कर्त्ता भये कलंकी*, नहीं कलिंगहि मारा ।
ई छल-बल सब माया कीन्हा, यत्त सत्त सब टारा ।।10।।
दस अवतार ईश्वरी माया, कर्त्ता कै जिन पूजा ।
कहहि कबीर सुनो हो सन्तो, उपजै खपै सो दूजा ।।11।।
टिप्पणी-ग्यारह पदवाले इन समस्त शब्दों का अर्थ सरल है। सर्वसाधारण की समझ में आनेयोग्य है।
# चिह्नवाले सब शब्दों में ईश्वर की स्थिति का बोध दृढ़ाया गया है।
और
* चिह्न के शब्द से विदित किया गया है कि दस अवतारों से भिन्न दूसरे कोई हैं, जो मायातीत सर्वेश्वर हैं।
अवतारवाद-विषयक कबीर साहब के उपर्युक्त ख्याल में और अध्यात्म-रामायण, प्रथम सर्ग की ‘राम-हृदय-गीता, शिव-पार्वती-संवाद’ में एक मेल-सा ज्ञात होता है-
‘अथ राम-हृदय-गीता, शिव-पार्वती-संवाद’ श्लोक-संख्या 32 से 44 तक पण्डित रामेश्वर भट्ट-कृत टीका से उद्धृत-
" सीताजी बोलीं-(हे हनुमान!) तुम रामजी को परब्रह्म सच्चिदानन्द, द्वैत-रहित, सम्पूर्ण (स्थूल-सूक्ष्म) उपाधियों से रहित, सत्ता मात्र कहिए, वस्तु मात्र के व्यवहार को चलानेवाले, मन-वाणी के विषय से परे, आनन्द-स्वरूप, निर्मल, शांत, निर्विकार, निरंजन अर्थात् मायाकृत अज्ञान-रहित, सर्वव्यापी, स्वयंप्रकाश और पाप-रहित परमात्मा जानो (।।32-33।।) और (हे हनुमान!) मुझे उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली मूल प्रकृति जानो, उन रामजी के समीप-मात्र होने से मैं आलस्य-रहित होकर इस संसार को रचती हूँ।।34।। और उस परमात्मा के समीप-मात्र होने से मेरे रचे हुए जगत् को अज्ञानी लोग उसे परमात्मा में आरोपण करते हैं। उसी परमात्मा का जन्म अयोध्या नगरी में अत्यन्त निर्मल वंश में होना (।।35।।), विश्वामित्र की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहल्या का शाप दूर करना, शिवजी का धनुष भंग करना (।।36।।), फिर मेरे साथ विवाह करना, परशुरामजी का गर्व तोड़ना, फिर अयोध्या में मेरे साथ बारह वर्ष रहना (।।37।।), फिर दण्डकारण्य में जाना, विराध का मारना, माया-रूपी मारीच का वध करना और माया की सीता का हरण होना (।।38।।), जटायु का मोक्ष-लाभ होना, कबन्ध को पाप से छुटाना, शवरी का पूजन ग्रहण करना और फिर सुग्रीव से समागम होना (।।39।।), फिर बालि का वध करना, सीता को ढुँढ़वाना, समुद्र पर पुल बँधवाना, फिर लंका पर चढ़ाई करना (।।40।।), फिर युद्ध में दुष्ट रावण को पुत्र-सहित मारना, विभीषण को राज्य देना, फिर पुष्पक विमान में बैठकर मेरे साथ (।।41।।) अयोध्या को आना, फिर रामजी का गद्दी पर बैठना इत्यादि सब कर्म मेरे किये हैं (।।42।।), उनको अज्ञानी जन इन निर्विकार परमात्मा रामजी में आरोपण करते हैं, वास्तव में रामजी न चलते हैं, न बैठते हैं, न शोक करते हैं, न कुछ चाहते हैं, न कुछ त्यागते हैं और न कुछ करते हैं। वे तो आनन्द की मूर्त्ति, अचल और परिणाम-रहित अर्थात् एकरस हैं। केवल माया के गुणों के कारण कर्म में प्रवृत्त दीखते हैं। (।।44।।)" और-
‘वाम भाग सोभित अनुकूला । आदि सक्ति छविनिधि जग मूला ।।
भृकुटि विलास जासु जग होई । राम वाम दिसि सीता सोई ।।
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया । सोउ अवतरहिं मोरि यह माया ।।’
रामचरितमानस, बालकाण्ड में राजा स्वायम्भुव मनु और रानी की कथा के अभ्यन्तर की इन चौपाइयों में सीताजी को रामजी की माया कहा गया है। अध्यात्म-रामायण में सीताजी अपने लिए उपर्युक्त बातें ही कहती हैं और संत कबीर साहब आने-जानेवाले पदार्थ को माया कहकर अवतारी रूपों को माया ही कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड में अवतार-विषयक विचार में यह भी कहते हैं-
‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।’
‘यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ।।’
परिचय
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