।। मूल पद्य ।।
ये ततु राम जपहु रे प्रानी, तुम बूझहु अकथ कहानी ।
जाको भाव होत हरि ऊपर, जागत रैनि बिहानी ।।
डाइनि डारे सुनहा डोरे, सिंघ रहे बन घेरे ।
पाँच कुटुम मिलि जूझन लागे, बाजत बाजु घनेरे ।।
रोहु मृगा संसे बन हाँके, पारथ बाना मेलै ।
सायर जरै सकल बन डाहै, मछ अहेरा खेलै ।।
कहहि कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अरथावै ।
जो यहि पद को गाय विचारै, आप तरै औ तारै ।।19।।
।। मूल पद्य ।।
ये ततु राम जपहु रे प्रानी, तुम बूझहु अकथ कहानी ।
जाको भाव होत हरि ऊपर, जागत रैनि बिहानी ।।
डाइनि डारे सुनहा डोरे, सिंघ रहे बन घेरे ।
पाँच कुटुम मिलि जूझन लागे, बाजत बाजु घनेरे ।।
रोहु मृगा संसे बन हाँके, पारथ बाना मेलै ।
सायर जरै सकल बन डाहै, मछ अहेरा खेलै ।।
कहहि कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अरथावै ।
जो यहि पद को गाय विचारै, आप तरै औ तारै ।।19।।
शब्दार्थ-रोहु=आखेट में सहायता देनेवाला व्यक्ति विशेष (बीजक के साथ में लगा हुआ कोश-कबीर-ग्रंथ-प्रकाशन-समिति, हरक, जिला-बाराबंकी)। मछ=मछली पानी की उलटी धारा पर भाठे से सिरे की ओर चढ़ती है। इसी तरह सुरत-शब्द-योग के अभ्यासी की सुरत, शब्द की धारा के द्वारा नीचे से ऊपर को चढ़ती है। इसलिए शब्द-धार पर चढ़नेवाली सुरत ‘मछ’ है।
पद्यार्थ-रे प्राणी! तुम राम को जपो, यह सार (वस्तु) है और तुम अकथ कहानी को बूझो। जिसको ईश्वर से प्रेम होता है, वह दिन-रात जगता रहता है। तात्पर्य यह कि ईश्वर का प्रेमी ईश्वर-भजन में दिन-रात संलग्न रहता है।। विषय-लोलुप प्राणी-रूप कुत्ते को गले में डोरी डालकर माया पकड़े हुई है। मन-रूप सिंह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द विषय-रूप जंगल से घिरा हुआ रहता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य; पाँच मण्डलों के केन्द्रीय शब्द-रूप कुटुम्ब से मिलकर सुरत उन (मन-माया) से लड़ने लगती है, तो बहुत-से बाजे बजते हैं। तात्पर्य यह कि सुरत-शब्द-योग-अभ्यास में उपर्युक्त पाँचो मंडलों के केन्द्रीय शब्दों के अतिरिक्त उन मंडलों में और भी बहुत-सी ध्वनियाँ जो होती रहती हैं, अभ्यासी को उनकी भी अनुभूति होती रहती है।। आखेट या शिकार (साधन-भजन) में सहायक (गुरु) संशय-रूप मृगा को उपर्युक्त वन में हाँक देता है, जहाँ साधक-पारथ-पारधाी-शिकारी भजन-साधन का तीर चलाता है। साधक के भजन-अभ्यास के तेजोमय अग्नि-वाण से संसार-समुद्र-आवागमन का चक्र जल जाता है और उपर्युक्त सम्पूर्ण वन को वह जला देता है अर्थात् पाँचो विषयों की आसक्ति को वह नष्ट कर देता है। तब संशय-मृगा-सहित मन-सिंह को वह मछली-सदृश शब्द की उलटी धारा पर चढ़कर शब्द के उद्गम की ओर जानेवाला अभ्यासी पराजित कर जीत लेता है। कबीर साहब कहते हैं कि हे संतगण! जो इस पद्य का अर्थ करता है (सुलझाता है), वह अपने तरता है और दूसरे को भी तारता है।।19।।
परिचय
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