।। मूल पद्य ।।
संतो जागत नींद न कीजै ।
काल न खाय कल्प नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै ।।1।।
उलटि गंग समुद्रहिं सोखै, ससि और सुरहिं ग्रासै ।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे, जल महँ बिम्ब प्रकासै ।।2।।
बिनु चरनन को चहुँ दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै ।
ससकहिं उलटि सिंह को ग्रासै, ई अचरज को बूझै ।।3।।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया ।
जिहि कारन नर भिन्न-भिन्न करै, गुरू परसादे तरिया ।।4।।
पैठि गुफा महँ सब जग देखै, बाहर कुछ नहिं सूझै ।
उलटा बान पारिधिहि लागै, सूरा होय सो बूझै ।।5।।
गायन कहै कबहुँ नहिं गावै, अनबोला नित गावै ।
नटवत बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै ।।6।।
कथनी वन्दनि निज कै जोहै, ई सब अकथ कहानी ।
धरती उलटि अकासहिं बेधै, ई पुरुषन की बानी ।।7।।
बिना पियालेहिं अमृत अँचवै, नदी नीर भरि राखै ।
कहहि कबीर सो युग-युग जीवै, राम सुधा-रस चाखै ।।8।।
।। मूल पद्य ।।
संतो जागत नींद न कीजै ।
काल न खाय कल्प नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै ।।1।।
उलटि गंग समुद्रहिं सोखै, ससि और सुरहिं ग्रासै ।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे, जल महँ बिम्ब प्रकासै ।।2।।
बिनु चरनन को चहुँ दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै ।
ससकहिं उलटि सिंह को ग्रासै, ई अचरज को बूझै ।।3।।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया ।
जिहि कारन नर भिन्न-भिन्न करै, गुरू परसादे तरिया ।।4।।
पैठि गुफा महँ सब जग देखै, बाहर कुछ नहिं सूझै ।
उलटा बान पारिधिहि लागै, सूरा होय सो बूझै ।।5।।
गायन कहै कबहुँ नहिं गावै, अनबोला नित गावै ।
नटवत बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै ।।6।।
कथनी वन्दनि निज कै जोहै, ई सब अकथ कहानी ।
धरती उलटि अकासहिं बेधै, ई पुरुषन की बानी ।।7।।
बिना पियालेहिं अमृत अँचवै, नदी नीर भरि राखै ।
कहहि कबीर सो युग-युग जीवै, राम सुधा-रस चाखै ।।8।।
अर्थ-हे संतो! जाग्रत अवस्था में रहते हुए सो मत जाओ-अचेत मत बने रहो-केवल आधिभौतिक की ओर मत लगे रहो। आध्यात्मिक की ओर होओ (अध्यात्म-ज्ञान-विचार तथा तुरीय अवस्था में प्रवेश करने के साधन-द्वारा आध्यात्मिकता की ओर हुआ जाता है। अर्थात् जाग्रत-नींद को छोड़कर जगा जाता है। इसके लिए दृष्टियोग-अभ्यास- द्वारा एकविन्दुता प्राप्त करनी अत्यन्त अपेक्षित है।)।
‘जन्म जन्म तोहि सोवत बीते, अजहुँ न जाग सबेरे ।’
-कबीर साहब
‘माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान ।
दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।’
-दरिया साहब, मारवाड़ी
मोह निसा सब सोवनिहारा । देखइ सपन अनेक प्रकारा ।।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
जाग्रत-नींद को छोड़ने से तुम उस स्वरूप को प्राप्त होओगे, जिसको काल नहीं खाता है। कल्प (ब्रह्मा का एक दिन वा एक रात- चौदह मन्वन्तर वा चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष बीतने पर) के प्रलय का कष्ट तुमको नहीं व्यापेगा और तुम्हारी उस देह-चिन्मय शरीर को बुढ़ापा नष्ट नहीं करेगा।।1।। शरीरस्थ बहती हुई पवित्र चेतन धारा (सुरत) बहिर्मुख से उलटकर अन्तर्मुख हो माया-समुद्र को सोख ले और शशि-इड़ा-इंगला-बायीं धारा तथा सूर-सूर्य-पिंगला-दायीं धारा; दोनों को वह ग्रस ले अर्थात् दोनों वृत्तियों का दो नहीं रहने देकर, एक कर सुषुम्ना में लय कर दे। जीवत्व दशा को प्राप्त हुआ रोगी जीवात्मा आँख के दो, कान के दो, नाक के दो, मुँह का एक, गुदा का एक और उपस्थ का एक; इन नवो द्वारों में बरतता हुआ सुरत या चेतन की धाराओं को अन्तर्मुख सिमटाव के साधन से मारकर अर्थात् वश में करके बैठता है अर्थात् स्थिर हो जाता है, तो अत्यन्त स्वच्छ जल-रूप आन्तरिक ज्योति में चेतन आत्मा की प्रतिमूर्त्ति प्रकाशित होती है।।2।। बिना पैर के ही दसो दिशाओं में द्रुतगति से चलता है। आँख के बिना ही सारा विश्व उसको सूझता है। निर्बल पशु खरहा-रूप घटस्थ जीवात्मा ही बहिर्मुख से अन्तर्मुख उलटकर सिंह-रूप मन को ग्रस लेता है अर्थात् काबू में कर लेता है। इस आश्चर्य को वह बूझता है।।3।। औंधा घड़ा-जिस घड़े का मुख नीचे की ओर है, उसके सदृश जो सुरत बाह्य विषयों की ओर बाह्य इन्द्रियों के द्वारा रहकर अधोमुखी है, वह चेतनमय जल में डूबकर उससे नहीं भर जाती है; परन्तु जो सुरत इससे विपरीत होती है, उलटकर सीधी हो जाती है अर्थात् जिसका मुख (रुख) ऊपर हो जाता है, वह चेतन-जल से भर जाती है। जिस अज्ञानता और माया के कारण मनुष्य एकात्म भाव नहीं, बल्कि भिन्न-भिन्न भावों में रहकर काम करता है, उस अज्ञानता और माया को वह गुरु की कृपा से तर जाता है।।4।। जो अपने अन्तर-रूप गुफा में पैठता है, वह सारे विश्व को देखता है। इस देखने की बराबरी में बाहर में कुछ नहीं सूझता है। अपने को बहिर्मुख से उलटकर अपने अन्दर की ओर प्रवेश करनेवाला अपने अन्दर में शब्द-वाण1 मारता है। इस बात को अन्तर-साधन का शूरमा साधक जो होता है, सो बूझता है।।5।। गायक तो गान करता है; परन्तु कभी नहीं गाता है और जो बोलता नहीं है, वह प्रतिदिन गाता है। भाव यह है कि मुँह से गानेवाले गायन या गायक उस स्वर में नहीं गा सकते, जिस स्वर की अनुभूति सुरत-शब्द-योग के अभ्यासी को होती है। जो चुपके बैठा रहता है, पर आन्तरिक अलौकिक स्वर की अनहद ध्वनियों की अनुभूतियां में तल्लीन रहता है, वह नट के बाजे और खेल के सदृश खेल देखता है अर्थात् जैसे नट खेल करता है, बाजा बजाता है और गाना गाता है, उसी तरह वह अभ्यासी अपने अन्दर में अनहद नादों के बाजां में रहते हुए विविध प्रकार की ज्योतियों2 का खेल देखता है, जो उस साधक के अनहद-ध्यानाभ्यास- संबंधी अनुराग3 को अधिक बढ़ाता है।।6।। कहने की बात यह है कि अपने को खोजो4 उपर्युक्त बातें कहनेयोग्य बातें नहीं हैं। पिण्ड में फँसी हुई सुरत मिट्टी के समान स्थूलता और अज्ञानता के भाव को ग्रहण किये हुई है। वह बहिर्मुख से अन्तर्मुख, नौ द्वारों से दसवें द्वार, पिण्ड से ब्रह्माण्ड और स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर उलटकर आकाश को बेधती है अर्थात् अंधकारमय स्थूलाकाश को पार करती है, साधनशील पुरुषों के ये वचन हैं।।7।। वह साधक बिना कटोरे का अमृत पीता है और उस चैतन्य अमृत-जल से अपनी साधनामयी नदी को भरकर रखता है। कबीर साहब कहते हैं कि वह साधक भक्त अनन्त जीवन में रहकर सर्वेश्वर राम की प्राप्ति-संबंधी अमृतरस चखता है।।8।।
[1- किसी के द्वारा फेंका हुआ साधारण वाण फेंकनेवाले को नहीं लगकर उसके सम्मुख बाहर जाता है; परन्तु अन्तर-ग्राह्य आन्तरिक ध्वन्यात्मक शब्द-वाण अपने आकर्षण-द्वारा सुरत को अन्तर के अन्त तक खींच लाता है, बाहर की ओर धक्का नहीं देता है। इसलिए साधारण वाण के गुण के विपरीत इसका गुण होता है और यह शब्द ‘उलटा वाण’ कहलाता है।
2- सत सुरत समझि सिहार साधौ, निरखि नित नैनन रहौ ।।
धुनि धधक धीर गम्भीर मुरली, मरम मन मारग गहौ ।।
सम सील लील अपील पेलै, खैल खुलि खुलि लखि परै ।।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर, सुरति सजि पल-पल भरै ।।
-संत तुलसी साहब, हाथरस
3- यह अपने अन्दर की बात है, बाहर की नहीं।
4- ‘भजन में होत आनन्द आनन्द।
बरसत बिसद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत।।
अगर बास तहँ तत की नदिया, मानो धारा गंग-------।।
-संत कबीर साहब (कबीर-शब्दावली)]
परिचय
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