।। मूल पद्य ।।
भाइ रे नयन रसिक जो जागे ।
पारब्रह्म अविगत अविनासी, कैसहुँ के मन लावै ।।
अमली लोग खुमारी तृष्णा, कतहुँ सन्तोष न पावै ।
काम क्रोध दोनों मतवाले, माया भरि भरि आवै ।।
ब्रह्म-कलाल चढ़ाइन भाठी, लै इन्द्री रस चावै ।
संगहि पोच जु ज्ञान पुकारे, चतुरा होइ सु पावै ।।
संकर सोच पोच यह कलि महँ, बहुतक व्याधि सरीरा ।
जहाँ धीर-गम्भीर अति निश्चल, तहँ उठि मिलहु कबीरा ।।
।। मूल पद्य ।।
भाइ रे नयन रसिक जो जागे ।
पारब्रह्म अविगत अविनासी, कैसहुँ के मन लावै ।।
अमली लोग खुमारी तृष्णा, कतहुँ सन्तोष न पावै ।
काम क्रोध दोनों मतवाले, माया भरि भरि आवै ।।
ब्रह्म-कलाल चढ़ाइन भाठी, लै इन्द्री रस चावै ।
संगहि पोच जु ज्ञान पुकारे, चतुरा होइ सु पावै ।।
संकर सोच पोच यह कलि महँ, बहुतक व्याधि सरीरा ।
जहाँ धीर-गम्भीर अति निश्चल, तहँ उठि मिलहु कबीरा ।।
पद्यार्थ-अरे भाई! जो दृष्टियोग-संबंधी रस का रसिक है, वह जगता है। सर्वव्यापी, अविनाशी पारब्रह्म में किसी तरह मन की लौ लगाता है।। माया-मद में रहनेवाले लोगों को तृष्णा की खुमारी होती है, वे कहीं भी संतोष नहीं पाते हैं। काम-क्रोध दोनों मतवालों में माया भर-भर आती है।। ब्रह्म-रस चुलानेवाले ब्रह्म-कलाल भट्ठी पर इन्द्रियों को चढ़ाते हैं और उनका रस चुवा लेते हैं। तात्पर्य यह है कि दृष्टियोग का अभ्यास ब्रह्म-कलाल है, वह विचार और साधन-रूप भट्ठी पर इन्द्रियों को चढ़ाते हैं। इन्द्रियों की चेतन-धारा शिवनेत्र में खिंचकर केन्द्रित होती है, तब वह ब्रह्म-कलाल केन्द्रित इन्द्रिय-चेतन-धारा-रस को प्राप्त करता है। तब उस अभ्यासी का मन, जो नीच था, ज्ञान की पुकार करने लगता है अर्थात् ज्ञान में रहकर ज्ञान का प्रचार करता है। जो कोई चतुर होते हैं, वे उपर्युक्त रस और ज्ञानमय मन पाते हैं।। इस कलिकाल में दुःख-सुख, हानि-लाभ, शत्रु-मित्र आदि दो भेदों के मिलाप की नीच चिन्ता में लोग रहते हैं और उनके शरीर में भी बहुत व्याधियाँ रहती हैं। इसलिए कबीर साहब कहते हैं कि जहाँ धीर, गम्भीर और अति निश्चल पारब्रह्म अविगत अविनाशी है, वहाँ आरोहण कर उनसे मिलो।।
परिचय
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