।। मूल पद्य, साखी ।।
लव लागी तब जानिये, छूटि कभूँ नहिं जाय ।
जीवत लव लागी रहै, मुए तहहिं समाय ।।1।।
जब लग कथनी हम कथी, दूर रहा जगदीस ।
लव लागी कल ना परै, अब बोलत न हदीस ।।2।।
काया कमण्डल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर ।
पीवत तृषा न भाजही, तिरषावन्त कबीर ।।3।।
मन उलटा दरिया मिला, लागे मलि मलि न्हान ।
थाहत थाह न आवई, सो पूरा रहमान ।।4।।
गंग जमुन उर अन्तरे, सहज सुन्न लव घाट ।
तहाँ कबीरा मठ रचा, मुनि जन जोवैं बाट ।।5।।
जेहि बन सिंह न संचरै, पंछी उड़ि नहिं जाय ।
रैन दिवस की गम नहीं, तहँ कबीर लव लाय ।।6।।
लै पावौ तौ लै रहौ, लैन कहूँ नहिं जाव ।
लै बूड़ै सो लै तिरै, लै लै तेरो नाँव ।।7।।
लव लागी कल ना पड़ै, आप बिसरजनि देह ।
अमृत पीवै आत्मा, गुरु से जुड़ै सनेह ।।8।।
जैसी लव पहले लगी, वैसी निबहै ओर ।
अपनी देह की को गिनै, तारे पुरुष करोर ।।9।।
लागी लागी क्या करे, लागी बुरी बलाय ।
लागी सोई जानिये, जो वार पार होइ जाय ।।10।।
।। मूल पद्य, साखी ।।
लव लागी तब जानिये, छूटि कभूँ नहिं जाय ।
जीवत लव लागी रहै, मुए तहहिं समाय ।।1।।
जब लग कथनी हम कथी, दूर रहा जगदीस ।
लव लागी कल ना परै, अब बोलत न हदीस ।।2।।
काया कमण्डल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर ।
पीवत तृषा न भाजही, तिरषावन्त कबीर ।।3।।
मन उलटा दरिया मिला, लागे मलि मलि न्हान ।
थाहत थाह न आवई, सो पूरा रहमान ।।4।।
गंग जमुन उर अन्तरे, सहज सुन्न लव घाट ।
तहाँ कबीरा मठ रचा, मुनि जन जोवैं बाट ।।5।।
जेहि बन सिंह न संचरै, पंछी उड़ि नहिं जाय ।
रैन दिवस की गम नहीं, तहँ कबीर लव लाय ।।6।।
लै पावौ तौ लै रहौ, लैन कहूँ नहिं जाव ।
लै बूड़ै सो लै तिरै, लै लै तेरो नाँव ।।7।।
लव लागी कल ना पड़ै, आप बिसरजनि देह ।
अमृत पीवै आत्मा, गुरु से जुड़ै सनेह ।।8।।
जैसी लव पहले लगी, वैसी निबहै ओर ।
अपनी देह की को गिनै, तारे पुरुष करोर ।।9।।
लागी लागी क्या करे, लागी बुरी बलाय ।
लागी सोई जानिये, जो वार पार होइ जाय ।।10।।
अर्थ-परमात्मा की ओर चित्त की वृत्ति लगी है, ऐसा तब जानना चाहिए, जब उधर से चित्तवृत्ति कभी नहीं छूटे। जीवन-काल में जहाँ चित्तवृत्ति लगी रहेगी, मरने पर चित्त की वृत्ति लगानेवाला वहीं समा जाएगा।।1।। ज्ञान की कथनी जबतक मैं कहता रहा, तबतक परमात्मा मुझसे दूर रहा। चित्तवृत्ति परमात्मा में लग गई, अब शास्त्र की बातों का कथन नहीं करता हूँ।।2।। शरीर-रूप कमण्डल में पवित्र ज्योतिर्मय जल भर लिया है, पीते-पीते भी प्यास नहीं मिटती है। संत कबीर प्यासे ही रह जाते हैं। तात्पर्य यह कि परमात्म-ज्योति प्राप्त हो जाने पर भी परमात्म-दर्शन प्राप्त नहीं हो पाता है, अतएव प्यास नहीं उतरती है।।3।। [इसीलिए ईशावास्योपनिषद् में कहा है-‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।15।।’ अर्थात् आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्य-धर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे हटा दे।।15।।’] मन बाहर से उलट गया, अन्तर्मुख हो गया और आन्तरिक पवित्र धारा में मन डूबा, जहाँ मन को मल-मलकर उसकी मैल-मलिनताओं को दूर करके उस धारा में स्नान करने लगा। जिसकी थाह पाने का यत्न करने पर थाह नहीं मिले अर्थात् जिसका अन्त नहीं मिले, वह पूर्ण दयामय परमात्मा है।।4।। शरीरस्थ स्वाभाविक शून्य में पिंगला और इड़ा (दायीं धार और बायीं धार) के मिलन-घाट पर चित्तवृत्ति लगनी चाहिए। कबीर साहब ने वहाँ रहने का अपना स्थान बना लिया है। मुनिजन इनका रास्ता ढूँढ़ते हैं।।5।। जिस जंगल में सिंह नहीं चल सकता है और जहाँ चिड़िया उड़कर नहीं जा सकती है, जहाँ दिन और रात की गति नहीं, जो देशकालातीत पद है, वहाँ कबीर साहब सुरत को लगाते हैं।।6।। प्रभु में चित्तवृत्ति या सुरत की लीनता को प्राप्त कर सको, तो उसे प्राप्त करके स्थिर रहो, उसको लेने के वास्ते कहीं मत जाओ। हे प्रभु! जो तुम्हारा नाम-भजन करते-करते तुममें लवलीन होकर डूबता है, वह तुम्हें प्राप्त करके संसार-सागर को तर जाता है।।7।। प्रभु में चित्तवृत्ति जिसकी लगती है, उसको सांसारिक विषय में चैन नहीं पड़ता। शरीर और अहंता को वह त्याग देता है। उसकी आत्मा अमृत पीती है, उसका प्रेम परमात्म-गुरु से जुट जाता है अर्थात् लग जाता है।।8।। आरम्भिक अनुराग में जिस तरह लौ लगती है, उसी तरह यदि अन्त तक लौ रह जाय, तो केवल अपना ही क्या हिसाब है, वह तो करोड़ों को तार सकता है।।9।। अजी! लागी-लागी क्या करते हो अर्थात् चित्तवृत्ति को प्रभु में लगाने के बारे में क्या पूछते हो? यह तो बहुत बुरी आफत या आपदा है। लागी उसीको कहते हैं, जो संसार-समुद्र के इस पार से उस पार तक पहुँच जाय।।10।।
परिचय
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