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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[82. मुरशिद नैनों बीच नबी है ]


।। मूल पद्य ।।

मुरशिद नैनों बीच नबी है ।
स्याह सफेद तिलों बिच तारा, अविगत अलख रबी है ।।
आँखी मद्धै पाँखी चमकै, पाँखी मद्धै द्वारा ।
तेहि द्वारे दुरबीन लगावै, उतरे भव जल पारा ।।
सुन्न सहर में बास हमारा, तहुँ सरवंगी जावै ।
साहब कबीर सदा के संगी, सब्द महल लै आवै ।।


।। मूल पद्य ।।

मुरशिद नैनों बीच नबी है ।
स्याह सफेद तिलों बिच तारा, अविगत अलख रबी है ।।
आँखी मद्धै पाँखी चमकै, पाँखी मद्धै द्वारा ।
तेहि द्वारे दुरबीन लगावै, उतरे भव जल पारा ।।
सुन्न सहर में बास हमारा, तहुँ सरवंगी जावै ।
साहब कबीर सदा के संगी, सब्द महल लै आवै ।।

शब्दार्थ-मुरशिद=गुरु, सद्गुरु। नबी=ईश्वर का दूत। स्याह=काला। रबी=रब=ईश्वर का विभूति-रूप। पाँखी=पक्षी, उड़नेवाली चीज, ज्योति। द्वार=दशम द्वार। सरवंगी=सर्वांग में पसरी हुई चेतन की धारा।

पद्यार्थ-हे गुरु! आँखों के बीच में ईश्वर का दूत है। काले और उजले तिलों-विन्दुओं के बीच में तारा है, जो सर्वव्यापी और अलख रबी-रब-ईश्वर का विभूति-रूप है।। (दृष्टियोग के अभ्यासी को श्याम विन्दु, फिर उसीपर श्वेत विन्दु और फिर उस श्वेत पर तारा दरसता है। ‘दीपज्वालेन्दुखद्योतविद्युन्नक्षत्र भास्वराः । दृश्यन्ते सूक्ष्म रूपेण सदा युक्तस्य योगिनः ।’-योगशिखोपनिषद्। अर्थात् योगयुक्त योगी को सूक्ष्म रूप से दीप, ज्वाला, चन्द्रमा, जुगनू, बिजली, तारा तथा सूर्य देखने में आते हैं। ‘तारा चड़िया लंमा’-गुरु नानक)।। आँखों के बीच में पाँखी-पक्षी अर्थात् उड़नेवाली चीज अर्थात् ज्योति* चकमती है और उस ज्योति-पक्षी के बीच में द्वार (दशम द्वार) है। उस द्वार में दृष्टियोग करो, संसार-सागर से पार हो जाओगे। शून्य शहर में मेरा बासा है अर्थात् मैं शून्य में ध्यान लगाये रहता हूँ। वहाँ उस ध्यान के कारण सर्वांग में पसरी हुई सुरत की धारें-चेतन-धाराएँ सिमटकर जाती हैं। कबीर साहब कहते हैं कि सदा साथ रहनेवाले प्रभु के महल में शब्द ले आता है अर्थात् पहुँचा देता है।। ‘चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्द लोक लै जाई।। लेइ निकारि होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै शरीरा।।’ (दरिया साहब, बिहारी) भावार्थ यह है कि भक्तियोग के साधक को दृष्टियोग के अभ्यास में ब्रह्म-ज्योति-रूप ईश्वर का दूत-नबी मिलता है। यह नबी तब प्रकट होता है, जब साधक प्रथम श्वेत-श्याम के बीच परमात्मा के विभूति-रूप तारे का दर्शन पाता है। इस ध्यान को ‘शून्य-ध्यान’ भी कहते हैं। इसमें उपर्युक्त नबी के दर्शन होने पर अन्तर में आन्तरिक नाद ग्रहण होते हैं, जिनके द्वारा उस तल पर पहुँचा जाता है, जहाँ परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है।

[* जीवितों की आँखों में ज्योति चकमती है; परन्तु मृतकों की आँखों में यह चमक नहीं रहती। मानो वह उड़ जाती है, इसीलिए यह चमक या ज्योति पाँखी या पक्षी है।] 

परिचय

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