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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[81. कबीर गुरु की भक्ति कर]


।। मूल पद्य, साखी ।।

कबीर गुरु की भक्ति कर, तजि विषया रस चौज ।
बार बार नहिं पाइहैं, मानुष जन्म की मौज ।।1।।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, आइ पड़ै जो चोल ।
कंचन जो विष्टा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।2।।
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाँड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यौहार ।।3।।
भक्ति दुहेली गुरू की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारै हाथ से, सो लेसी सतनाम ।।4।।
भक्ति दुहेली नाम की, जस खाँड़े की धार ।
जो डोलै तो कटि पडै़, निहचल उतरै पार ।।5।।
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माँजै नहीं, होन चहत है दास ।।6।।
हरष बड़ाई देख करि, भक्ति करै संसार ।
जब देखै कछु हीनता, औगुन धरै गँवार ।।7।।
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय ।।8।।
भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख करै जो कोय ।
शब्द सनेही ह्वै रहै, घर को पहुँचे सोय ।।9।।
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नात तोड़ हरि को भजै, भक्त कहावै सोय ।।10।।
भक्ति प्रान तें होत है, मन दै कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।11।।



।। मूल पद्य, साखी ।।

कबीर गुरु की भक्ति कर, तजि विषया रस चौज ।
बार बार नहिं पाइहैं, मानुष जन्म की मौज ।।1।।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, आइ पड़ै जो चोल ।
कंचन जो विष्टा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।2।।
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाँड़े की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यौहार ।।3।।
भक्ति दुहेली गुरू की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारै हाथ से, सो लेसी सतनाम ।।4।।
भक्ति दुहेली नाम की, जस खाँड़े की धार ।
जो डोलै तो कटि पडै़, निहचल उतरै पार ।।5।।
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा माँजै नहीं, होन चहत है दास ।।6।।
हरष बड़ाई देख करि, भक्ति करै संसार ।
जब देखै कछु हीनता, औगुन धरै गँवार ।।7।।
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय ।।8।।
भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख करै जो कोय ।
शब्द सनेही ह्वै रहै, घर को पहुँचे सोय ।।9।।
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नात तोड़ हरि को भजै, भक्त कहावै सोय ।।10।।
भक्ति प्रान तें होत है, मन दै कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।11।।

अर्थ-कबीर साहब कहते हैं कि विषय-रस की मौज छोड़कर गुरु-भक्ति करो। बारम्बार मनुष्य-जन्म की मौज नहीं पाओगे।।1।। भक्ति-बीज का विनाश नहीं होता है, चाहे उस बीज को प्राप्त किया हुआ जीव ऊँच-नीच किसी (मनुष्य के) चोले में जन्म ले। जैसे-जो सोना विष्ठा में पड़ जाता है, तो भी उसका मोल नहीं घटता।।2।। तलवार की धार पर चलने के समान गुरु की भक्ति बहुत कठिन है। बिना सचाई के उसपर चलकर भक्ति की पूर्णता तक पहँचा नहीं जा सकता। उसपर चलने का काम बहुत कठिन है।।3।। गुरु की भक्ति कठिन है, यह साहसहीन का काम नहीं है। जो अपने हाथ से अपने मस्तक को उतार सकता है अर्थात् अपनी मान-प्रतिष्ठा को अपने से त्याग सकता है, वही सत्नाम को प्राप्त कर सकता है।।4।। नाम-भजन भी कठिन है, जैसे तलवार की धार पर जाना हो। यदि स्थिर नहीं रहेगा-डोलेगा, तो कटकर-नाम-भजन के संबंध से कटकर गिरेगा; परन्तु जो स्थिर रहेगा, वह संसार-सागर को पार कर जाएगा।।5।। कबीर साहब कहते हैं कि गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत हौसला रहता है; परन्तु मन की इच्छा को माँजकर शुद्ध नहीं करते और भक्त होना कहते हैं अर्थात् मन-मनसा को माँजे बिना कोई भक्त नहीं हो सकता।।6।। हर्ष और बड़ाई को देखकर संसारी लोग भक्ति करते हैं; परन्तु वे गँवार लोग जब कुछ हीनता देखते हैं, तब भक्ति में अवगुण है-मन में ऐसी धारणा धारण करते हैं।।7।। मुक्ति में जाने के लिए भक्ति सीढ़ी है। सन्तगण दौड़ते हुए अर्थात् शीघ्रतापूर्वक उसपर चढ़ गये। जिन लोगों ने उसपर चढ़ने में आलस्य किया, वे जन्म-जन्म पछताते हैं।।8।। कोई लाखों यत्न करे; परन्तु भक्ति के बिना संसार-सागर से उद्धार नहीं होता है। जो शब्द-अभ्यास का-नादानुसन्धान का-सुरत-शब्द-योग का-नाम-भजन का प्रेमी बना रहता है, वही मुक्ति के घर में पहुँचता है।।9।। जबतक संसार का सम्बन्ध है-भजन-काल में संसार-संबंधी बातें मन में उदित होती रहती हैं, तबतक भक्ति नहीं होती है-भजन नहीं बनता है। संसार-सम्बन्ध छोड़कर जिसका मन भजन-काल में हरि-भजन करता है, वही भक्त कहलाता है।।10।। प्राण-जीवनी शक्ति-चेतन-धार को लगाकर भक्ति की जाती है। मन को समर्पित करके भक्ति में प्रेम कीजिये। परमार्थ-तत्त्व में विश्वास करने में शरीर जाय तो जाने दीजिये।।11।।  

परिचय

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