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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[80. सन्तौ अचरज भौ इक भारी]


।। मूल पद्य ।।

सन्तौ अचरज भौ इक भारी, पुत्र धइल महतारी ।।
पिता के संगे भई बावरी, कन्या रहल कुमारी ।
खसमहि छाड़ि ससुर संग गौनी, सो किन लेहु विचारी ।।
भाई के संगे सासुर गौनी, सासुहिं सावत दीन्हा ।
ननद भौज परपंच रचो है, मोर नाम कहि लीन्हा ।।
समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरवारी ।
कहहि कबीर सुनो हो सन्तो, पुरुष जनम भौ नारी ।।



।। मूल पद्य ।।

सन्तौ अचरज भौ इक भारी, पुत्र धइल महतारी ।।
पिता के संगे भई बावरी, कन्या रहल कुमारी ।
खसमहि छाड़ि ससुर संग गौनी, सो किन लेहु विचारी ।।
भाई के संगे सासुर गौनी, सासुहिं सावत दीन्हा ।
ननद भौज परपंच रचो है, मोर नाम कहि लीन्हा ।।
समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरवारी ।
कहहि कबीर सुनो हो सन्तो, पुरुष जनम भौ नारी ।।

भावार्थ-हे सन्तो! एक बड़ा आश्चर्य हुआ है कि जीव-रूपी पुत्र ने माया-रूपी माता को धर लिया।। माया कुमारी कन्या थी, सो (ज्योति निरंजन ब्रह्म-रूप) पिता1 के संग पगली हो गयी है अर्थात् पिता से संग करके संसार को उत्पन्न किया है, जैसे स्त्री पुरुष का संग करके सन्तान उत्पन्न करती है। संसार की दृष्टि में पुत्री पिता से संग करके सन्तान उत्पन्न करे, यह उस पुत्री का बावरी या पगली होना है। इस तरह का कर्म तो माया ने अविद्या-रूपा होकर किया। पुनः वही माया विद्या-रूप में खसम (निरंजन ब्रह्म) का संग छोड़कर ससुर के (निरंजन ब्रह्म के पिता सत्पुरुष2-सच्चिदानन्द ब्रह्म के) संग में चली, सो क्यों नहीं विचार लेते हो? विद्या माया-रूपी बहन अपने भाई जीव (चेतन पुरुष) के साथ ससुराल (सहस्त्रदलकमल यानी ज्योति निरंजन के देश) गई। भाव यह कि जीव सहस्त्रदलकमल के नीचे-पिण्ड में उतरकर पिण्डी और स्थूल जगत् के दुःखों को पाकर इनसे विरक्त हो विद्या-द्वारा ज्ञान का सहारा पा, मायामय देश को त्यागने की युक्ति पाकर, भजन-अभ्यास करके पहले सहस्त्रदलकमल में ऊपर उठा। वहाँ अविद्या-चेतन जीव की माता-रूपा सास को, उसने (विद्या ने) सावत यानी ईर्ष्या प्रदान की। अविद्या ने विद्या को ढँक रखा था, सो उसने जब देखा कि विद्या, चेतन जीव वा सुरत3 के साथ मेरे आवरण को फाड़ती हुई मेरी हद से ऊपर उठी जा रही है, तब उसको विद्या से ईर्ष्या हुई। फिर वहाँ ज्योति निरंजन की बहन और भार्या ऋद्धि और सिद्धि4 दोनों ने मिलकर जीव और विद्या को गिराने के लिए बहुत माया की रचना की। वहाँ उन दोनों (जीव और विद्या) ने (मोर) मेरा अर्थात् शब्द के वक्ता (सद्गुरु कबीर साहब) के नाम अर्थात् वह नाम जो सद्गुरु की युक्ति-द्वारा प्राप्त हुआ-को भजकर ऋद्धि-सिद्धि को अपना लिया अर्थात् उन्हें अपने अधीन में रखा, न कि उनके अधीन होकर पुनः वे अविद्या में बहके।। जो सुरत समधी-समता में रहनेवाली बुद्धि (सम= समता। धी=बुद्धि) के साथ नहीं आई अर्थात् अन्तस्साधन में समत्व बुद्धि प्राप्त नहीं कर सकी और सांसारिक व्यवहारों में आयी, वह सहज ही घरवारी (संसारासक्त) हो गयी। संत कबीर साहब कहते हैं कि हे संतो! सुरत तो जन्म से पुरुष (अक्षर पुरुष)5 है; परन्तु व्यावहारिक बोल में नारी5 हुई है।।

सारांश-मायिक आवरणों के कारण चेतन-आत्मा जीवत्व-दशा को प्राप्त हुई है, मानो माया माता से जनमा है और उसने माया के भोगों में फँसकर माया को धर रखा है। वह विद्या* का या परमात्म-ज्ञान का सहारा लेकर, अन्तर में साधन करके मायिक आवरणों को पार करे और माया से मुक्त हो जाय। अन्तर-साधन की यात्र के स्थानों से ऋद्धि-सिद्धियों के प्रलोभनों में पड़कर उनके अधीन हो फिर अविद्या* में न गिरे। बल्कि उन ऋद्धि-सिद्धियों को अपने वश में रखकर आगे बढ़े। साधन में समत्वबुद्धि प्राप्त करके तब साधक संसार के कर्त्तव्यों का सम्पादन करे।  


[1- कबीर-पंथ में ‘अनुराग-सागर’ नाम की एक पुस्तिका है, उसमें लिखा है कि माया (अष्टांगी देवी) को ज्योति निरंजन ने ग्रस लिया और फिर उसे बाहर निकाला। तब वह देवी उसे ‘पिता! पिता!! कहने लगी। पुनः निरंजन से संग करके उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को उत्पन्न किया और इन तीनों से सृष्टि का प्रसार किया। इसलिए निरंजन उसका पति हुआ और निरंजन का देश सहस्त्रदलकमल उसकी ससुराल हुआ; तथा बीजक में लिखा है-
अन्तर जोति शब्द एक नारी । हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी ।।
ते तरिये भग लिंग अनन्ता । तेउ न जाने आदि औ अन्ता ।।
2- अनुराग-सागर में लिखा है कि सत्पुरुष ने निरंजन को अपने शब्द से उत्पन्न किया।
3- आदि सुरत सतपुरुष ते आई । जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
-अनुराग-सागर
4- ऋद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई । बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई ।।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी । तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ।।
-गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड
5- श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 7, श्लोक 4-5; अध्याय 15, श्लोक 16, 17 एवं 18 पढ़िये।
अक्षर पुरुष=जीव=सुरत, इस तरह ‘पुरुष जन्म भौ नारी ।’
* श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 13 के श्लोक 7 से 11 तक (ज्ञान=) विद्या और (अज्ञान=) अविद्या का बोध करना चाहिए।] 

परिचय

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